नौशाद अली (Naushad Ali)
नौशाद अली (Naushad Ali) नौशाद अली के गाने हिंदी फिल्मों के हिट नंबर्स बन रहे थे लेकिन परिवार वालों को उनका फिल्मों में काम करना पसंद नहीं था। नौशाद की शादी में लड़की वालों को यहीं बताया कि वो मुंबई में दर्जी का काम करते हैं।
भारतीय सिनेमा के दिग्गज संगीतकार नौशाद अली की गिनती महानतम म्यूजिक कंपोजर में की जाती है। बॉलीवुड फिल्मी गीतों में बड़ी खूबसूरती से शास्त्रीय संगीत का प्रयोग कर जन-जन तक अपना गीत पहुंचाने में इन्हें महारत हासिल थी। साल 1940 में बतौर स्वतंत्र संगीत निर्देशक अपना करियर शुरू करने वाले नौशाद की 35 फिल्में सिल्वर जुबली रही और 12 गोल्डन जुबली। उनकी 3 फिल्में डायमंड जुबली, मेगा हिट रहीं। फिल्मों में उनके योगदान के लिए नौशाद को 1981 में दादा साहब फाल्के और 1982 में पद्म भूषण सम्मान से सम्मानित किया गया। इतनी ख्याति के बावजूद नौशाद ने अपने जीवन काल में मात्र 67 फिल्मों में संगीत दिया।
लखनऊ से थे नौशाद
नौशाद अली का जन्म 25 दिसंबर 1919 को उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर में हुआ था। उनका पालन पोषण भी यहीं इसी शहर में हुआ। इनके पिता वाहिद अली, मुंशी (कोर्ट में क्लर्क) का कार्य करते थे। नौशाद को बचपन से ही संगीत में रुचि थी, लेकिन घर का माहौल इसके सख्त खिलाफ था। पाबंदियों के बावजूद नौशाद संगीत से अपना मन हटा नहीं पाए और उन्होंने उस्ताद गुरबत, उस्ताद युसूफ अली, उस्ताद बब्बन साहब जैसे उस समय के दिग्गजों से गीत-संगीत की शिक्षा ली। बचपन से ही वे एक जूनियर थिएटर क्लब में शामिल हो गए और क्लब में संगीत कलाकार के रूप में उन्होंने अपनी नाट्य प्रस्तुतियां देना शुरू कर दिया।
ऐसे बढ़ी फिल्मों में रुचि
नौशाद की रुचि जब फिल्मों में बढ़ी तो तब मूक फिल्में बना करती थीं। 1931 में भारतीय सिनेमा में आवाज आई उस समय नौशाद 13 साल के थे। नौशाद उस वक्त लखनऊ के रॉयल थियेटर में मूक फिल्में देखा करते थे। उस जमाने में सिनेमाघरों के मालिक संगीतकारों की एक टीम रखते थे, जो फिल्म के साथ-साथ लाइव संगीत देते थे। इन संगीतकारों की टीम में तबला, हारमोनियम, सितार और वायलिन बजाने वाले लोग हुआ करते थे।
थिएटर से की थी शुरुआत
थिएटर के मालिक उस दौरान संगीतकारों की एक टीम, संगीत बजाने के लिए नियुक्त करते थे। इन संगीतकारों की टीम में तबला, हारमोनियम, सितार और वायलिन बजाने वाले लोग हुआ करते थे। संगीतकार पहले फिल्म देखते थे, फिर नोट्स बनाते और अंत में कहां किस तरह का संगीत देना है यह निर्धारित करते थे। नौशाद भी ये सब देखते और फिल्मी संगीत की बारीकियों को समझते थे।
फिल्मों में काम के लिए भागकर आए मुंबई
नौशाद मुस्लिम परिवार से थे इसलिए उनके संगीत से जुड़ने पर सख्त पाबंदी थी। नौशाद के पिता ने उन्हें सख्त हिदायत दी कि अगर घर रहना है तो तुम्हें संगीत छोड़ना पड़ेगा। लेकिन संगीत के बिना नौशाद का मन कहा लगता था। उनके मयार में अब लखनऊ पूरा नहीं पड़ रहा था और वो 1937 में वह घर से भागकर मुंबई आ गए। यहां से शुरू हुई एक सितारे के संघर्ष की कहानी।
1940 में मिला पहला ब्रेक
मुंबई आकर शुरुआत में वह कोलाबा में एक परिचित के साथ रहने लगे। लेकिन थोड़े दिन बाद ही नौबत ये आ गई कि उन्हें दादर के फुटपाथ पर सोना पड़ा। इसी समय उन्होंने उस्ताद झंडे खान के यहां 40 रुपये की तनख्वाह पर काम शुरू किया। इसके बाद कंपोजर खेमचंद प्रकाश ने उन्हें फिल्म कंचन में अपने असिस्टेंट के रूप मौका दिया। इसके लिए नौशाद को 60 रुपये महीना मिलते थे। नौशाद खेमचंद को अपना गुरु मानते थे। उन्हें पहली बार 1940 में एक संगीतकार के रूप में काम करने का मौका फिल्म ‘प्रेम नगर’ में मिला। इसके बाद वह पंजाबी फिल्म मिर्जा साहब 1939 के सहायक संगीत निर्देशक बने।
'रतन' ने दिलाई शोहरत
नौशाद ने शास्त्रीय संगीत के राग और लोक संगीत के आधार पर अपने गीतों के धुन तैयार कर नया चलन शुरू किया, लोगों ने भी इसे पसंद किया। एआर करदार की फिल्म 'नई दुनिया' (1942) में उन्हें एक संगीत निर्देशक के रूप में पहली बार पहचान मिली। लेकिन साल 1944 की फिल्म 'रतन' ने नौशाद को शीर्ष पर पहुंचा दिया। यह नौशाद के संगीत का ही जादू था कि 'मुगल-ए-आजम', 'बैजू बावरा', 'अनमोल घड़ी', 'शारदा', 'आन', 'संजोग' आदि कई फिल्मों को न केवल हिट बनाया बल्कि कालजयी भी बना दिया।
शादी में बजे थे उनके ही गानें
नौशाद के बारे में एक किस्सा फिल्मी गलियारों में काफी पॉपुलर है, उनकी शादी का। हुआ ये कि नौशाद के घरवालों ने किसी को नहीं बताया था कि वो संगीतकार है। शादी में बैंड वालें उनकी ही धुन बजा रहे थे, लेकिन वो किसी से कुछ नहीं कह सकते थे। घरवालों ने सबको बताया था कि नौशाद मुंबई में दर्जी का काम करते हैं, क्योंकि उस दौर में गाने-बजाने से जुड़े काम को अच्छा नहीं माना जाता था।