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Interview: अक्षय कुमार की फ़िल्म बेलबॉटम की कहानी कहां से आई? लेखक असीम अरोड़ से जानिए

Interview असीम ने बेलबॉटम व आने वाली फिल्में छलांग एक विलेन की सीक्वल व तुर्रमखां की भी कहानियां लिखी हैं। उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश

By Rajat SinghEdited By: Published: Mon, 14 Sep 2020 04:38 PM (IST)Updated: Mon, 14 Sep 2020 04:38 PM (IST)
Interview: अक्षय कुमार की फ़िल्म बेलबॉटम की कहानी कहां से आई? लेखक असीम अरोड़ से जानिए

नई दिल्ली, जेएनएन। धारावाहिक हो या फिल्म सशक्त कहानी उसका आधार होती है। उतरन, पांच, न बोले तुम न मैंने कुछ कहा, पी.ओ.डब्ल्यू बंदी युद्ध के, 21 सरफरोश : सारागढ़ी 1897 जैसे धारावाहिकों का लेखन करने वाले असीम अरोड़ा करीब दो दशक से इस क्षेत्र में सक्रिय हैं। उन्होंने लखनऊ सेंट्रल, बाजार, मलंग के साथ-साथ अक्षय कुमार द्वारा इन दिनों स्कॉटलैंड में शूट की जा रही फिल्म बेलबॉटम व आने वाली फिल्में छलांग, एक विलेन की सीक्वल व तुर्रमखां की भी कहानियां लिखी हैं। उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश :

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टीवी व फिल्म लेखन की भाषा के प्रति आपका क्या आग्रह रहा?

-मैंने प्रेमचंद से लेकर समकालीन लेखकों को पढ़ा है। मेरे सिनेमा में आने से पहले अनुराग कश्यप की सत्या जैसी फिल्म आ गई थी। उसमें आम बोलचाल वाली भाषा थी। मेरी कोशिश रही कि लेखन में रोजमर्रा की भाषा का इस्तेमाल करूं। सिनेमा में आधी इंग्लिश और आधी हिंदी, जिसे हिंग्लिश कहते हैं का प्रयोग होता रहा है। वह मुझे समझ नहीं आती। मेरा मानना है कि आप जिस पृष्ठभूमि की कहानी लिख रहे हैं, उस भाषा पर पकड़ जरूरी है।

सिनेमा के किस सीन या डायलॉग का आप पर गहरा प्रभाव रहा है?

-राज कपूर की फिल्मों का लेखन बहुत प्रभावी होता था। प्रकाश झा की हिंदी पर पकड़ बहुत अच्छी है। खास तौर पर फिल्म राजनीति, अपहरण और गंगाजल में उनके डायलॉग दमदार हैं। उसमें स्थानीय पुट को जोड़कर उन्होंने जो हिंदी रखी वह कमाल की थी। मौजूदा दौर में रितेश शाह, जूही चतुर्वेदी व फरहान अख्तर की लेखन शैली का भी कायल हूं। ये सब साधारण शब्दों में गहरी बात कह जाते हैं।

बेलबॉटम पिछली सदी के 8वें दशक में सेट है। क्या उस दौर की भाषा का पुट भी फिल्म में होगा?

- मैंने उस दौर की भाषा को पकड़ने का प्रयास किया है। मेरा जन्म भी वर्ष 1981 में हुआ है। मैं दिल्ली में पंजाबी परिवार में पलाबढ़ा हूं। उस समय मेरी नानी और दादी जिस प्रकार से चीजों के बारे में बात करती थीं, उसे भी डाला है। फिल्म में अक्षय कुमार का किरदार भी पंजाबी है। उन्होंने भी अपने इनपुट दिए हैं। जिस तरह उनकी मां उनसे बोला करती थीं।

लोग फिल्म तो हिंदी में बनाते हैं, लेकिन बात अंग्रेजी में करते हैं...

-मैं नहीं कहूंगा कि यह सिनेमा की समस्या है। हमारे देश में विविधता है। अलग-अलग भाषाएं हैं। हिंदी हमारी आधिकारिक भाषा है। कई बार सामने वाला आपसे अंग्रेजी में बात करता है। वह आपसे उम्मीद करता है कि आप भी अंग्रेजी में ही बात करेंगे। मुझे जहां लगता है कि हिंदी में बोलने पर प्रभाव आएगा तो हिंदी में ही बात करता हूं। मुझसे वह झिझक निकल गई है। बनावटीपन निकल गया है कि अंग्रेजों से बात कर रहे हो तो अंग्रेजी में ही करो। मुझे पता है कि यह घर के अंग्रेज हैं, हिंदी समझ जाएंगे।

हिंदी सिनेमा का प्रभाव आपने कैसा पाया है?

-मेरे बहुत सारे रिश्तेदार विदेश में रहते हैं। मेरा भाई ऑस्ट्रेलिया में रहता है। हमारी बहुत सारी फिल्में हैं, जिनकी विदेश में चर्चा और सराहना होती है। सिनेमा आपकी भाषा व संस्कृति को दुनिया तक ले जाने का सबसे बेहतरीन जरिया है। मैं भी फ्रेंच, इतालवी और जर्मन सिनेमा का मुरीद रहा हूं। ब्रिटिश सिनेमा और हॉलीवुड अपने उच्चारण का इस्तेमाल करते हैं। मगर जब उसे देखते हैं, उसके इमोशन से कनेक्ट होते हैं तो आपको उसमें मजा आता है। मेरे रिश्ते के दो भाइयों की पैदाइश अमेरिका की है मगर वे लगान, दिल चाहता है के डायलॉग बहुत खुशी से बोलते हैं। उसके लेखन पर बात करते हैं।

क्या सेना व वीरता से जुड़ी कहानियां आपको ज्यादा प्रभावित करती हैं?

-मैंने हिमाचल के सैनिक स्कूल सुजानपुरा में तीन साल पढ़ाई की है। सेना की वर्दी के प्रति मेरा आकर्षण है। ऐसी कहानियों की भूख हमेशा से रही है। लोगों से मिलता रहता हूं। वहीं से कुछ दिलचस्प कहानियां मिलती हैं। कई बार एक लाइन से आइडिया मिलता है। उसकी रिसर्च में जुट जाते हैं। बेलबॉटम का किस्सा एक किताब में संक्षेप में मिला, लेकिन दिलचस्प लगा। उस पर लिखित सामग्री ज्यादा नहीं है। लोगों से बातचीत के आधार पर जानकारी जुटाई। आइडिया निर्देशक रंजीत सिंह से शेयर किया। उन्होंने निखिल आडवाणी और मधु भोजवानी को बताया। उन्हें भी पसंद आया। वहां से फिल्म की शुरुआत हुई।

अपनी अगली फिल्म गोरखा के बारे में बताएं।

-उसका निर्देशन निखिल आडवाणी कर रहे हैं। यह गोरखा रेजीमेंट के एक अधिकारी की कहानी है। यह कहानी मेरे दिल के काफी करीब है। यह आर्मी की कहानी नहीं है। सेना का जवान सिर्फ सीमा पर जंग नहीं लड़ता है। अगर उसे सामाजिक उत्पीड़न से लड़ना हो तो भी लड़ सकता है। गोरखा उसी मुद्दे को छूती है।

(स्मिता श्रीवास्तव से बातचीत पर आधारित) 


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