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भारतीय फिल्में हमेशा से रही हैं खास, सात समंदर पार भी लहराया है प्रतिभा का परचम

तकनीक के मामले में हिंदी फिल्मों ने बहुत लंबा सफर तय कर लिया है। इस तरह से हम देखें तो भारतीय फिल्मकारों ने स्वाधीनता के पहले जो एक विश्वास अर्जित किया था उसकी बुनियाद पर ही बाद के फिल्मकारों ने सफलता की बुलंद इमारत खड़ी की।

By Anand KashyapEdited By: Published: Sun, 06 Feb 2022 03:14 PM (IST)Updated: Sun, 06 Feb 2022 03:14 PM (IST)
बॉलीवुड फिल्म दंगल और हिंदी मीडियम, Image Source: mid day

अनंत विजय। तकनीक के मामले में आज हिंदी फिल्मों ने बहुत लंबा सफर तय कर लिया है। बात अगर पुराने दौर की करें तो यह हमारे फिल्मकारों का ही हौसला था जो सीमित संसाधनों के सार्थ हिंदी फिल्मों को विदेश तक ले गए और जोरदार सफलता हासिल की। अनंत विजय का आलेख...

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कोरोना महामारी के दौर में ओवर द टाप (ओटीटी) प्लेटफार्म और तकनीक के अन्य माध्यमों के जरिए देश-विदेश में फिल्मों का प्रदर्शन हो रहा है। फिल्म निर्माता या कंपनी फिल्म के मुनाफे को प्रचारित करती हैं तो बहुधा फिल्म के विदेश में प्रदर्शन से होने वाली आय को भी जोड़ा जाता है। आमिर खान की ‘दंगल’ या इरफान खान अभिनीत ‘हिंदी मीडियम’ के विदेश में प्रदर्शन से होने वाली आय पर भी खूब बातें हुईं। करण जौहर की फिल्मों की विदेश में सफलता को भी प्रचारित किया जाता रहा है। जब इन फिल्मों की विदेश में सफलता की बात होती है तो हम ये भूल जाते हैं कि भारतीय निर्माताओं की फिल्में स्वाधीनता के पहले से विदेशी दर्शकों को आकर्षित करती रही हैं।

किश्वर देसाई ने अपनी पुस्तक ‘द लाइफ एंड टाइम्स आफ देविका रानी’ में हिमांशु राय की फिल्म ‘कर्मा’ के लंदन और बर्मिंघम के सिनेमा में प्रदर्शन और उसको लेकर उत्सुकता के बारे में विस्तार से लिखा है। यह फिल्म 1933 में लंदन में रिलीज हुई थी और इसका निर्माण भारत, ब्रिटेन और जर्मनी के निर्माताओं ने संयुक्त रूप से किया था। इसके लीड रोल में हिमांशु राय और देविका रानी थीं। 68 मिनट की इस फिल्म को देखने के लिए उस वक्त लंदन का पूरा अभिजात्य वर्ग उमड़ पड़ा था। आक्सफोर्ड स्ट्रीट पर इस फिल्म का एक बड़ा पोस्टर लगा था जिसमें सिर्फ देविका रानी की तस्वीर लगी थी। इस फिल्म के बारे में लंदन के समाचारपत्रों में कई प्रशंसात्मक लेख छपे थे। उसके बाद भी कई हिंदी फिल्मों को विदेश में सराहना मिली थी। इससे परतंत्र भारत के फिल्मकारों और कलाकारों का स्वयं पर भरोसा भी गाढ़ा हुआ था।

चल गया शोमैन का जादू

जब देश आजाद हुआ तो भारतीय फिल्मों खासतौर पर हिंदी फिल्मों को लेकर पूरी दुनिया में एक उत्सुकता का माहौल बना। फिल्म इतिहासकारों के मुताबिक, इसकी वजह ये थी कि दुनिया के अलग-अलग देशों के लोग भारत के बारे में जानना चाहते थे। 1952 में दिलीप कुमार और निम्मी की एक फिल्म आई थी ‘आन’। इस फिल्म को योजनाबद्ध तरीके से दुनिया के 28 देशों में रिलीज किया गया था। दुनिया की 17 भाषाओं में इस फिल्म के सबटाइटल तैयार किए गए थे। लंदन में इस फिल्म के प्रीमियर पर ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री लार्ड एटली के उपस्थित रहने का उल्लेख कई जगहों पर मिलता है।

अंग्रेजी में इसको ‘सैवेज प्रिंसेस’ तो फ्रेंच में ‘मंगला, फी दिज आंद’ (मंगला, भारत की लड़की) के नाम से रिलीज किया गया था। इस फिल्म में निम्मी ने जिस चरित्र को निभाया था उसका नाम मंगला था। इस फिल्म को कुछ समय बाद जापान में भी रिलीज किया गया था और वहां भी दर्शकों ने इसे खूब पसंद किया था। राज कपूर की फिल्म ‘आवारा’ हिंदी में 1951 में रिलीज हो गई थी। 1954 में मास्को और लेनिनग्राद में भारतीय फिल्म फेस्टिवल में राज कपूर की इस फिल्म का प्रदर्शन हुआ। जिसे दर्शकों ने खूब पसंद किया और वहां के अखबारों में राज कपूर के अभिनय की जमकर प्रशंसा हुई। राज कपूर का जादू ऐसा चला कि इस फिल्म को रूस के अन्य सिनेमाघरों में भी प्रदर्शित किया गया। इस फिल्म के बाद ‘श्री 420’ आई, उसको भी रूस के दर्शकों ने बेहद पसंद किया था। इस फिल्म के प्रीमियर पर जब राज कपूर पहुंचे थे तो दर्शकों को काबू में करना मुश्किल हो गया था।

फिर तो राज कपूर की हर फिल्म रूस में रिलीज होने लगी और व्यावसायिक रूप से सफल भी हुई। राज कपूर की फिल्मों को तो इजरायल के दर्शकों ने भी खूब पसंद किया था। वहां तो राज कपूर की फिल्म ‘श्री 420’ का गाना ‘ईचक दाना बीचक दाना’ तो इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि इजरायल के गायक नईम ने उसको अपनी भाषा में गाया। कई फिल्म इतिहासकारों का मानना है कि रूस और चीन में राज कपूर की फिल्में इस वजह से दर्शकों को पसंद आ रही थीं कि वो समाजवादी विचारधारा के नजदीक थीं, पर राज कपूर खुद कह चुके हैं कि उनकी फिल्में विचार या विचारधारा को ध्यान में रखकर नहीं बनाई जातीं। उनकी फिल्मों में दर्शकों की संवेदना का ध्यान रखा जाता है।

बेहतर तकनीक से बढ़ा आकर्षण

1960 के दौर में और उसके बाद बनी फिल्में भी विदेश में लोकप्रिय हुईं, जिनमें ‘मुगल-ए-आजम’ प्रमुख है। 1965 में आई देवानंद की फिल्म ‘गाइड’ को भी विदेश में पसंद किया गया। उसके बाद ‘शोले’ को भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिली। कालांतर में करण जौहर की रोमांटिक फिल्मों ने भी अंतरराष्ट्रीय दर्शकों को अपनी ओर खींचा, लेकिन तब तक हिंदी फिल्मों में पैसा आ चुका था और तकनीक भी बेहतर हो चुकी थी। तकनीक के मामले में भी अगर हिंदी फिल्मों के सफर को देखें तो हिंदी फिल्मकारों ने कम संसाधन होने के बावजूद बेहतरीन दृश्यों की संरचना की। व्ही. शांताराम जैसे निर्देशक तो बैलगाड़ी के अगले हिस्से में कैमरा लगाकर जिमी जिब तैयार कर मूविंग शाट्स लेते थे। उस जमाने में एल्यूमिनियम शीट्स पर पानी डालकर समंदर की लहर का एहसास करवाने वाले शाट्स बनाए जाते थे।

तकनीक के मामले में हिंदी फिल्मों ने बहुत लंबा सफर तय कर लिया है। वीएफएक्स के इस दौर में तो गानों से लेकर नायकों की त्वचा तक को बेहतर बनाया जा सकता है। इस तरह से हम देखें तो भारतीय फिल्मकारों ने स्वाधीनता के पहले जो एक विश्वास अर्जित किया था, उसकी बुनियाद पर ही बाद के फिल्मकारों ने सफलता की बुलंद इमारत खड़ी की। 


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