EXCLUSIVE INTERVIEW: सुधीर मिश्रा का दास देव, दास के 'देव' बनने की ऐसी है अनोखी कहानी
फिल्म दास देव की रिलीज डेट आगे बढ़ाई गई थी और अब यह फिल्म 27 अप्रैल को रिलीज हो गई है।
राहुल सोनी, मुंबई। प्रसिद्ध बंगाली साहित्यकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के कालजयी उपन्यास 'देवदास' के जितने रूप फिल्मों पर आए हैं, उतने शायद ही किसी और साहित्यिक रचना के आए होंगे। हिंदी सिनेमा में देवदास को अलग-अलग वक्त और अंदाज में पर्दे पर उतारा जा चुका है। अब देवदास को नए कलेवर में पेश करने जा रहे हैं मशहूर निर्देशक सुधीर मिश्रा। फिल्म के टाइटल का जुड़ाव वैसे तो 'देवदास' से है लेकिन थोड़ा अलग है। फिल्म का टाइटल 'दासदेव' रखा गया है। इस फिल्म को लेकर जागरण डॉट कॉम से सुधीर मिश्रा ने एक्सक्लूसिव बातचीत की। पढ़िए सुधीर मिश्रा से खास बातचीत -
फिल्म की कहानी और टाइटल
सुधीर मिश्रा फिल्म के टाइटल और कहानी के बारे में बताते हुए कहते हैं कि, फिल्म की कहानी में उलटफेर किया गया है। शुरूआत शरत बाबू ने देवदास से की थी। उनकी देवदास में देव से दास के सफर को दिखाया गया था। लेकिन 'दासदेव' में दास से देव बनने के सफर को बड़े परदे पर दिखाया जाएगा। इसमें राजनीति को भी इंट्रोड्यूस किया गया है। वो एेसे कि देव और पारो में मतभेद है। इसलिए पारो देव से बदला लेने लगती है जिसके चलते पॉलिटिकल राइवल बन जाती है। इसके बाद सवाल उठता है कि चंद्रमुखी कौन है। तो यह वह है जिसे देव जानता है लेकिन पहचानने से इंकार करता है। इस बार देव की चंद्रमुखी दुखी चेहरा नहीं बनाएगी। चूंकि यहां पर सब कुछ रिवर्स है। देवदास में बड़े खानदान का लड़का अपनी आदतों के कारण और प्यार के कारण दास बन जाता है। लेकिन यहां पर दास से देव बनेगा। वहीं फिल्म में दिखाया जाएगा कि यहां पर सबसे बड़ा एडिक्शन पॉवर का है। कुलमिलाकर रोमांटिक फिल्म की पृष्ठभूमि में एक पॉलिटिकल थ्रिलर है। इसमें पॉवर का नशा है जो कि इश्क के बिल्कुल विपरित है। जैसा की ट्रेलर की शुरूआत में है कि अगर वाकई पॉवर की ख्वाइश है तो दिल के मामलो को दूर रखना चाहिए, आड़े आते हैं। तो थीम यही है कि इश्क मुमकिन ही नहीं है पॉलिटिकल दलगल में।
एेसे हुआ कलाकारों का चुनाव
फिल्म 'दासदेव' में देवदास के किरदार में राहुल भट्ट दिखायी देंगे। सुधीर का ये देवदास थोड़ा अलग होगा, क्योंकि फिल्म की पृष्ठभूमि राजनीतिक रखी गयी है। इस फिल्म में रिचा चड्ढा पारो और अदिति राव हैदरी चांदनी के किरदार में हैं। अनुराग कश्यप का छोटा सा किरदार है जो कि फिल्म की शुरूआत और आखिर में है। इस बारे में सुधीर मिश्रा बताते हैं कि, यह किरदार चैरेजमैटिक पॉलिटिकल लीडर का है। हमें एेसा अभिनेता चाहिए था जो हिंदी जानता हो, उत्तरप्रदेश का हो और थोड़ा चैरिजमैटिक हो। इसलिए आखिरकार इसके लिए अनुराग कश्यप को मना लिया गया। फिल्म के अंत में आज के हिसाब से देव अगर दरवाजे के बाहर मरेगा तो काफी नहीं है। इसको अलग तरह से दिखाया गया है। वहीं, आज की पारो थोड़ी देसी और थोड़ी मॉर्डन व इंट्रेस्टिंग होगी, इसलिए रिचा इस किरदार को निभा रही हैं। बात करें चांदनी की तो इसमें स्ट्रेंथ है साथ ही इमोशनल भी हैं जिसके लिए अदिति का चुनाव किया गया। सौरभ शुक्ला के बगैर फिल्म बना नहीं सकते थे। सौरभ पॉवर के एडिक्शन को रिप्रेजेंट करते है। 99 फीसदी फिल्म को उत्तप्रदेश में शूट किया गया है।
राजनीति को दिखाना इसलिए रहा आसान
सुधीर मिश्रा कहते हैं कि 1975-76 के समय जब कॉलेज में पहुंचा था तब महज 16 साल का था। वैसे तो परिवार से दादाजी राजनीति में थे लेकिन कभी मुझे आने नहीं दिया और मैंने हमेशा साधारण जीवन जिया है। राजनीति की विरासत से हूं इसलिए इस फिल्म को लेकर कल्पना करने में आसानी रही चूंकि राजनीति को करीब से जानता हूं। सत्ता के बारे में फिल्म बहुत कुछ आज की है और उस पुराने वक्त में फंसी नजर नहीं आएगी। थोड़ा पुराने जमाने का भी दिखाया गया है लेकिन फिल्म का पैटर्न पूरा पॉलिटिकल स्ट्रक्चर है।
सिनेमा की स्टाइल में बदलाव
सिनेमा कहने की स्टाइल में बदलाव के बारे में सुधीर ने कहा कि, यह खुद व खुद बदलता है। मैं मेरा अंदाज बदलता रहता हूं। चमेली में या फिर इंकार में देखें। अगर आप ध्यान से सोचो और समझो तो कहानी खुद व खुद बताती है कि एेसे कहो या फिर एेसे बतलाओ। अगर आप सुनो तो फिल्ममेकर तो सिर्फ एक माध्यम है। कई निर्देशक एक दो फिल्म करने के बाद उड़ने लगते हैं। लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि वे तो सिर्फ माध्यम हैं।
दोनों देशों के बीच कलात्मक आदान-प्रदान चलता रहे
पाकिस्तान कलाकारों के बॉलीवुड में काम करने को लेकर कई लोग विरोध करते आए हैं। हाल ही में फिल्म दासदेव के गाने को लेकर भी चर्चा हुई थी कि इसे आतिफ असलम ने गाया है और उन्हें इसका प्रमोशन करने से कुछ लोगों ने मना किया। इसको लेकर सुधीर मिश्रा कहते हैं कि, आतिफ जरूर इस फिल्म और गीत का प्रमोशन करेंगे। जहां तक बात पाकिस्तानी कलाकारों की है तो, पाकिस्तान के खिलाफ बोलो, कौन कह रहा है नहीं बोलो। हम सब बोलेंगे। लेकिन दोनों देशों के आर्टिस्ट के बीच में कोलैबोरेशन है वो बरकरार रहना चाहिए। यह फैक्ट है कि पाकिस्तान में हमारे आर्टिस्ट को अहमियत नहीं दी जाती है जो कि उन्हें देना चाहिए। शशि कपूर ने तो पाकिस्तानी फिल्मों में भी काम किया। तो यह कोलैबोरेशन चालू रहना चाहिए और अगर जरूरत पड़ती है तो आर्मी की तरफ से झगड़े भी चालू रहना चाहिए अगर पाक कुछ नापाक हरकत करता है तो। अगर कोई मुल्क ललकारेगा तो विरोध तो जरूर होगा। चूंकि ग्लोबलाइजेशन का दौर है इसलिए आदान-प्रदान को रोका नहीं जा सकता। अमेरिका में इतने सारे भारतीय लोग जा रहे हैं। इसे रोक नहीं सकते। अब तो अमेरिकन कंपनी हिंदुस्तान में आ गई हैं। इंटरनेट के माध्यम से आदान-प्रदान हो रहा है। तो इसे रोक नहीं सकते। क्या गुलाम अली, नुसरत फतह अली खान और मेहंदी हसन को सुनना बंद कर देंगे? केैसे इन्हें नकार सकते हैं। इनका प्रभाव हमारे संगीत में है इसलिए नकार नहीं सकते। एेसा ही स्थान और सम्मान स्वर कोकिला लता मंगेशकर का पाकिस्तान में है। लता जी मतलब संगीत में वहां सबकुछ हैं।
पॉपुलर सिनेमा सोचे कि उनका मनमोहन देसाई कहा है
आज जो कहानियां फिल्मों में दर्शाई जा रही हैं वो अच्छी हैं। कहानी लिखते समय या फिल्म बनाते समय यह समझना जरूरी है कि, फिल्ममेकर का काम समाज को सुधारना नहीं है बल्कि समाज में जो हो रहा है उसको दर्शाना है। अगर कहीं दिवार गिर गई है तो फिल्ममेकर का काम उसको लेकर झंडा उठाना नहीं है। बल्कि यह दिखाना है कि दिवार गिर गई है। अनुराग कश्यप, विशाल भारद्वाज, मयंक तिवारी, अमित मसूरकर, अलंकृता श्रीवास्तव और नवदीप सिंह की कहानियां अच्छी हैं। सूजीत सरकार मजेदार विषयों पर फिल्म बना रहे हैं। विजय कृष्ण आचार्य, कबीर खान और राज कुमार हिरानी इंडस्ट्री में हैं जो कि बहुत अच्छी बात है। जरूरी है कि पॉपुलर सिनेमा थोड़ा सोचे उनका मनमोहन देसाई कहा है।