फिल्मों की सांस को पहचानता है कॉन फिल्म फेस्टिवल
कांस फिल्म फेस्टिवल विश्व का सबसे बड़ा फिल्म फेस्टिवल माना जाता है। भले ही इस फेस्टिवल में अच्छी फिल्में प्रदर्शित हों या बुरी फिल्में लेकिन इसका इंतजार हर निर्माता और फिल्मों से जुड़ी हस्तियों को होता है। हॉलीवुड से लेकर बॉलीवुड तक तमाम फिल्मी हस्तियां इस दिन के इंतजार में रहती हैं। फिल्मों का जो अनुभव यहां मिलता है वह कही
नई दिल्ली। कॉन फिल्म फेस्टिवल विश्व का सबसे बड़ा फिल्म फेस्टिवल माना जाता है। इसमें रिलीज होने वाली फिल्मों का इंतजार हर निर्माता और फिल्मों से जुड़ी हस्तियों को होता है। हॉलीवुड से लेकर बॉलीवुड तक के तमाम अदाकार, निर्माता और निर्देशक इसमें शिरकत करने के लिए बेताब रहते हैं।
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बात जूरी मेंबर्स की
इस फेस्टिवल के जूरी मेंबर्स का डंका पूरी दुनिया में बोलता है। जूरी के फिल्मों के चयन का तरीका काबिले तारीफ है। जूरी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फिल्म जगत को प्रभावित करती है। कॉन फिल्म फेस्टिवल को फिल्मों का आईना कहा जाता है। यहां फिल्मों की सांसे पहचानी जाती हैं।
तो ऐसे शुरू हुआ कॉन
कॉन फिल्म फेस्टिवल की शुरुआत 1930 के अंत में हुई थी। जब फ्रांस के केंद्रीय शिक्षा मंत्री जीन जे फिलिप अरलेंगर ने ब्रिटिश व अमेरिका वासियों की मदद से अंतरराष्ट्रीय सिनेमाटोग्र्राफी फेस्टिवल का आयोजन किया था। वर्ष 1947 में यह फेस्टिवल 'फेस्टिवल डु फिल्म दी केंस' के नाम से जाना जाता था। इस फिल्म फेस्टिवल में 16 प्रदेशों की फिल्में भाग लेती थीं। यह इसलिए किया जाता था ताकि प्रत्येक प्रदेश से एक प्रतिनिधि इस फेस्टिवल में हिस्सा ले सके।
जब नहीं हो पाया ये फेस्टिवल
वर्ष 1948 में भी कुछ कारणों की वजह से इस फेस्टिवल का आयोजन नहीं किया जा सका। वर्ष 1950 के बाद भी कई वर्ष तक कभी बजट की वजह से कभी तैयारियां पूरी ना होने के कारण फेस्टिवल का आयोजन किया जा सका। वर्ष 1955 में गोल्डन प्रिक्स डु फेस्टिवल के बदले गोल्डन पाम अवार्ड देने की घोषणा की गई। 1957 में फेस्टिवल जूरी की पहली महिला सदस्य को चुना गया। 1959 में मार्च डु फिल्म ने सिनेमा जगत को एक व्यापारिक चेहरा देने और उपभोक्ता व विक्रेता के बीच एक संपर्क बनाने के लिए एक अच्छा प्लेफॉर्म बनाया गया था। आज के समय में कॉन फिल्म फेस्टिवल पूरे विश्व का सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल बन गया है। व्यापारिक दृष्टिकोण से यह पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल है।
क्रिटिक्स वीक की हुई शुरुआत
1962 में अंतरराष्ट्रीय फिल्म क्रिटिक्स वीक शुरू हुआ। इनका काम था कॉन फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित होने वाली पहली व दूसरी फिल्मों की आलोचना करना। जीन कोकटेऊ इस फेस्टिवल के पहले अध्यक्ष बने। इसके बाद ओलिवा दी हेवीलैंड फेस्टिवल की पहली महिला अध्यक्षा बनीं।
..हुए विरोध भी
वर्ष 1968 में आयोजित होने वाले इस फेस्टिवल में निर्माता कर्लोस सौरा व मिल्स फॉरमोन ने अपनी फिल्मों को बाहर निकाल लिया था। निर्माता लुईस मल्ले ने कुछ और फिल्म निर्माताओं के साथ मिलकर तत्कालीन अध्यक्ष के विरुद्ध हल्ला बोल दिया। इसके साथ ही उन लोगों ने फिल्म डायरेक्टर्स सोसाइटी गठन करने की मांग भी कर डाली। इस सोसाइटी का काम था पूरे विश्व से बेहतरीन फिल्मों का चयन करना।
फोटोग्राफर्स भी बने फेस्टिवल के हिस्सा
वर्ष 1970 व 1972 के दौरान इस फेस्टिवल में एक विराट बदलाव देखने को मिला। फिल्मों के साथ-साथ फोटोग्राफरों को भी इसका हिस्सा बना लिया गया। रॉवर्ट फेवर ले ब्रेट फेस्टिवल के नए अध्यक्ष व मॉरिस बेसी नए प्रबंध निदेशक चुन लिए गए। बेसी ने फ्रेंच फिल्म व अन्य विदेशी फिल्मों के चयन के लिए एक कमिटी गठित कर दी। वर्ष 1978 में गिल्लस जैकॉब को नया अध्यक्ष चुन लिया गया।
और बढ़ी फेस्टिवल की अवधि
इसके साथ ही फेस्टिवल की अवधि भी 13 दिन कर दी गई। वहीं चयनित फिल्मों की संख्या में भी कमी लाई गई। लेकिन एक अच्छी बात इस फेस्टिवल से जुड़ गई वह यह है कि फोटोग्राफरों को भी फेस्टिवल का हिस्सा बना लिया गया। जैकॉब ने ला सिनीफोडेंशन नामक एक सेक्सन बनाया जिसके तहत विश्व भर के नए लेखक व फिल्म निर्माताओं को प्रसिद्ध निर्माताओं के साथ इस फेस्टिवल में हिस्सा लेने का मौका मिल सकता है। वर्ष 2002 में इस फेस्टिवल को औपचारिक रुप से कॉन फिल्म फेस्टिवल का नाम दिया गया।
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