बिना डरे भूमिका निभाकर इन हीरोइनों ने पाई सफलता
मुंबई। हमारी पुरुष प्रधान फिल्म इंडस्ट्री में आज भी अमूमन दमदार रोल हीरो के लिए ही लिखे जाते हैं। फिल्म की सफलता का क्रेडिट भी
मुंबई। हमारी पुरुष प्रधान फिल्म इंडस्ट्री में आज भी अमूमन दमदार रोल हीरो के लिए ही लिखे जाते हैं। फिल्म की सफलता का क्रेडिट भी हीरो ही बटोर ले जाते हैं। इसके बावजूद पॉपुलर सिनेमा की स्ट्रीम में चंद ऐसी अभिनेत्रियां हैं, जो अपने दम पर फिल्मों को हिट करा ले जा रही हैं। उन्हें ध्यान में रखकर दमदार रोल लिखे जाने लगे हैं। कुछ किरदारों को उन अभिनेत्रियों ने सदाबहार भी बना दिया। ऐसी हीरोइनों में विद्या बालन, प्रियंका चोपड़ा, दीपिका पादुकोण, कंगना रनौत और निम्रत कौर आदि प्रमुख हैं।
लीक से हटकर और अलग तरह की भूमिकाएं क्या डर, दर्द और असुरक्षा के भाव के बाद निभती हैं? विद्या बताती हैं, 'मैंने कई लोगों को यह कहते हुए सुना है कि कलाकार को भूखा होना चाहिए। उसे लालची होना चाहिए। मुझे नहीं लगता कि यादगार और कमाल की भूमिकाओं को निभाने के लिए मन में डर या असुरक्षा का बोध होना चाहिए। हां, अगर आप उस रोल विशेष को निभाने से पहले घबराहट महसूस करें, तो वह लाजिमी है।'
कंगना रनौत भी यही जवाब देती हैं। उनके मुताबिक, 'फिल्म 'शोले' का डायलॉग है न, जो डर गया, समझो मर गया...। मैं 'कृष 3' का उदाहरण देना चाहूंगी। मैं मानवर का रोल कर रही थी। मुझसे कहा गया कि आपको चेहरे पर बिना भाव प्रकट किए अदाकारी करनी है। मैं आश्चर्य में थी कि ऐसा कैसे मुमकिन है? मुझ पर बहुत ज्यादा दवाब था, लेकिन मुझे रत्ती भर भी डर नहीं लग रहा था। मैं असुरक्षित भी महसूस नहीं कर रही थी कि मानवर बन गई, तो पता नहीं आगे मुझे हीरोइन वाली भूमिकाएं मिलेंगी कि नहीं। कहने का मतलब यह है कि आप में सेंस ऑफ सिक्योरिटी होनी चाहिए तभी किसी भूमिका को जीवंत और यादगार बनाया जा सकता है।'
प्रियंका चोपड़ा इस बारे में कहती हैं, 'अगर मुझे डर लगता, तो मैं 'फै शन', 'ऐतराज', 'बर्फी' जैसी फिल्में नहीं करती। मेरे ज्यादातर शुभचिंतकों ने इन फिल्मों को करने से मना किया था। 'ऐतराज' के बाद तो मुझसे यहां तक कहा गया था कि अब तुम्हें सिर्फ वैम्प के रोल ही मिला करेंगे, मगर वैसी कोई बात नहीं हुई। 'बर्फी' में मैं ऑटिस्टिक लड़की की भूमिका में थी। सबने डी-ग्लैम रोल निभाने से मना किया था, लेकिन मैं गेमचेंजर बनना चाहती थी। टाइपकास्ट जैसे शब्द को अपने शब्दकोश से मैं निकाल कर फेंकती हूं और मैंने उसे साबित किया है।'
दीपिका पादुकोण बताती हैं, 'इसे मैं डर नहीं, अपनी जिम्मेदारी कह सकती हूं। वह विशेष किरदार मुझे कैसे निभाना है? अपना बेस्ट कैसे दिया जाए कि वह रोल लंबे समय तक लोगों के जेहन में बस जाए इसके लिए हमें सोचना होता है और करना भी...। यही मेरा काम है।'
निम्रत कौर इस बारे में कहती हैं, 'मेरा फिल्मों में काम करने का अनुभव कम है, तो इस सवाल का जवाब मैं नहीं दे सकती। ज्यादा फिल्में भी मैंने नहीं की हैं, लेकिन मैं इतना जरूर कहना चाहूंगी कि जब आपकी कोई इच्छा न हो, तो किसी भी किरदार से डर नहीं लगता। आप उसे जीने लग जाते हैं। आपको एक अलग किस्म की दुनिया जीने को मिलती है। अपनी दुनिया भूलनी पड़ती है। मेरे लिए इला का गेटअप, डीग्लैम अवतार कंसर्न का विषय नहीं रहा। दिलचस्प बात तो यह है कि मुझे टाइपकास्ट भी नहीं किया जा रहा है। मुझे आगे आने वाली फिल्मों में विंटेज ऐक्ट्रेस, आईपीएस ऑफिसर, वेश्या और यहां तक कि सिडक्ट्रेस तक के रोल ऑफर हो रहे हैं।'
कंगना इस सवाल को अलग लेवल पर ले जाती हैं, 'संयोग से वैसे रोल उन अभिनेत्रियों ने निभाए हैं, जो गैर-फिल्मी बैकग्राउंड से आती हैं। उन्होंने जब ग्लैमर जगत में करियर बनाने का मन बनाया था, तो उनके परिजन उनके खिलाफ थे, पर जब उन्हें मनवाने में डर नहीं लगा, तो फिर किसी भी किस्म का किरदार निभाने में डर कैसा? मैंने अपने परिजनों से एक साल का वक्त मांगा था। उन्होंने बड़ी मुश्किल से दिया, मगर मैंने मिले समय में खुद को प्रूव किया।'
विद्या बालन कहती हैं, 'मैं टिपिकल पारंपरिक सोच वाली साउथ इंडियन फैमिली से बिलॉन्ग करती हूं। मेरे दादाजी जिंदा होते, तो वे मुझे शायद कभी इधर आने भी नहीं देते। बाद में जब स्ट्रगल का पीरियड लंबा हुआ, तो असफलता के डर का भूत उन्होंने ही भगाया।'
बकौल दीपिका, 'मैं बचपन से श्योर थी कि मुझे ऐकेडमिक्स में नहीं जाना है। मैंने मॉडलिंग में खुद को प्रूव किया, फिर मेरे परिजनों ने ज्यादा अड़चनें खड़ी नहीं की।' निम्रत के मुताबिक, 'मेरे परिजनों को डर बस मुंबई को लेकर था। शहर और पेशे को लेकर हर माता-पिता को अंदेशा रहता है, वह दूर करने पर मुझे यहां का गेटपास मिल गया। वह मशक्कत जब कर सकती हूं, तो भई कोई भी रोल दे दो, हम निभा लेंगे।'
(अमित कर्ण)