Mharashtra Polls 2019: जानें, उद्धव ठाकरे के 'बैकफुट' और आदित्य के 'फ्रंटफुट' का राज
Mharashtra Polls 2019. परिस्थितियों की नजाकत समझते हुए ही उसके अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने समय रहते नरम रुख अपनाकर कम सीटों पर लड़ना स्वीकार किया है।
मुंबई, ओमप्रकाश तिवारी। लोकसभा चुनाव से पहले शिवसेना के एक नेता ने बयान दिया था कि शिवसेना हमेशा 'बिग ब्रदर' की भूमिका में रही है, और आगे भी रहेगी। उनका इशारा भारतीय जनता पार्टी के साथ राज्य में गठबंधन को लेकर था। लेकिन आज महाराष्ट्र की सियासत का यह गणित पलट चुका है। बड़ा भाई छोटा, और छोटा भाई बड़ा बन चुका है। यानी शिवसेना 124 सीटों पर लड़ रही है, तो भाजपा 148 पर। जबकि 1990 में इस गठबंधन की शुरुआत के समय शिवसेना ने 183 और भाजपा ने 104 सीटों से लड़ने की शुरुआत की थी। वर्ष 2014 में शिवसेना बराबरी की सीटों पर भी समझौता करने को तैयार नहीं थी। ज्यादा सीटों पर लड़ने की जिद करते हुए उसने 25 साल पुराना गठबंधन तक तोड़ दिया था।
क्या कारण रहा शिवसेना में आए इतने पड़े परिवर्तन का? दरअसल परिस्थितियां बहुत कुछ सिखा देती हैं। शिवसेना ने भी परिस्थितियों से सीखा। परिस्थितियों की नजाकत समझते हुए ही उसके अध्यक्ष उद्धव ठाकरे ने समय रहते नरम रुख अपनाकर कम सीटों पर लड़ना स्वीकार किया है। वर्ष 2014 में अधिक सीटों पर लड़ने का परिणाम वह देख चुके हैं। गठबंधन टूटा और उसका नुकसान उनकी पार्टी को उठाना पड़ा। शिवसेना लड़ी तो 288 सीटों पर, लेकिन जीती सिर्फ 63 सीटें। जबकि भाजपा अपने चुनिंदा सहयोगियों के साथ मिलकर 122 के आंकड़े तक जा पहुंची। अडि़यलपन का नुकसान शिवसेना को सरकार बनने के बाद भी चुकाना पड़ा। सरकार में शामिल होने के लिए उसे कुछ महीने न सिर्फ इंतजार करना पड़ा, बल्कि उपमुख्यमंत्री पद से भी हाथ धोना पड़ा। इसकी खीझ शिवसेना पूरे पांच साल सरकार में रहकर भी सरकार, मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करके उतारती रही। लेकिन हासिल कुछ नहीं हुआ।
उसे उम्मीद थी कि पांच वर्ष की सत्ता के बाद लोगों के सिर से नरेंद्र मोदी का भूत उतरेगा, तो शिवसेना अपना जादू चलाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। केंद्र और राज्य सरकार का काम लोगों के सिर चढ़कर बोल रहा था। शिवसेना अपना रुख न बदलती तो बड़ी संख्या में उसके सांसद ही साथ छोड़कर भाजपा का दामन थाम लेते। लिहाजा लोकसभा चुनाव से ठीक पहले 16 फरवरी को जब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह गठबंधन की बातचीत करने ठाकरे निवास 'मातोश्री' पहुंचे, तो न जाने क्या मंत्र फूंका कि उद्धव और उनके अत्यंत मुखर रहने वाले सिपहसालारों का रुख बदला-बदला नजर आने लगा।
गठबंधन हुआ, और लोकसभा चुनाव में दोनों दलों ने मिलकर 48 में से 41 सीटें जीत लीं। लोकसभा चुनाव के दौरान ही विधानसभा की 288 में से 236 सीटों पर भाजपा-शिवसेना को मिली बढ़त से शिवसेना को लगने लगा था कि गठबंधन करके ही विधानसभा चुनाव लड़ने में भलाई है। यदि 2014 की तरह अलग हुए तो नुकसान सिर्फ शिवसेना का होगा। खतरा यह भी था कि इस बार जिस तरह बड़ी संख्या में कांग्रेस-राकांपा के विधायक अपनी पार्टी छोड़ भाजपा-शिवसेना में शामिल हुए, उसी तरह शिवसेना के भी कई विधायक अपनी पार्टी का साथ छोड़ भाजपा का रुख कर सकते थे। जबकि भाजपा अपने छोटे साथी दलों के साथ आराम से बहुमत पाती दिख रही थी।
लिहाजा उद्धव ठाकरे ने वक्त की नजाकत समझते हुए इस बार का शॉट 'बैकफुट' पर जाकर खेलना बेहतर समझा। इस मामले में उद्धव अपने चचेरे भाई राज ठाकरे से ज्यादा समझदारी हमेशा दिखाते रहे हैं। वर्ष 2006 में राज ठाकरे के अलग होने के बाद से ही यह कयास लगाए जाने लगे थे कि राज की प्रखरता उद्धव को खा जाएगी। लेकिन उद्धव अपनी सधी हुई सियासत के जरिये आज भी आगे बढ़ते जा रहे हैं, और राज महाराष्ट्र की राजनीति में कौड़ी के तीन भी नहीं रहे। इस बीच उद्धव जहां कम सीटों पर लड़ने की शर्त स्वीकार कर 'बैकफुट' पर खेलते नजर आए, वहीं उन्होंने अपने पुत्र आदित्य ठाकरे को सीधे चुनावी मैदान में उतारकर आने वाले समय में 'फ्रंटफुट' पर खेलने की रणनीति भी स्पष्ट कर दी है।
आदित्य ठाकरे की उम्र अभी सिर्फ 29 वर्ष है। उनके पास लंबी राजनीतिक पारी खेलने का वक्त शेष है। बालपन से अपने दादा बालासाहब ठाकरे की सियासत देखते हुए बड़े हुए आदित्य के पास पूरे महाराष्ट्र में अपनी टीम बनाने का समय है। उद्धव स्वयं स्पष्ट कर चुके हैं कि राजनीति में पहला कदम रखने का अर्थ मुख्यमंत्री बनना ही नहीं होता। वह यह भी जानते हैं कि राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता। आज भाजपा की लहर है, तो कल नहीं भी हो सकती। वह आदित्य ठाकरे को उसी दिन के लिए तैयार करना चाहते हैं। वह यह भी जानते हैं कि इसके लिए लगातार सत्ता में बने रहना जरूरी है।
वर्ष 1999 का धोखा वह देख चुके हैं। तब गोपीनाथ मुंडे के साथ मुख्यमंत्री- उपमुख्यमंत्री के झगड़े में सत्ता एक बार हाथ से फिसली तो 15 वर्ष बाद ही वापस मिली, वह भी भीख की तरह। इस बार उद्धव सम्मान के साथ सत्ता में लौटना चाहते हैं, और पुत्र आदित्य को मंत्रालय में बैठाकर सत्ता के संस्कार देना चाहते हैं। ताकि अवसर आने पर उसके चूकने की संभावनाएं कम से कम रहें।