Move to Jagran APP

MP Election 2018: खरगोन जिले में 25 साल से जीतते रहे प्रत्याशी, हारते रहे जंगल!

MP Election 2018: मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार भले ही विकास के मुद्दे पर लड़ा जा रहा हो लेकिन आदिवासी बहुल खरगोन जिले के मुद्दे जुदा हैं।

By Prashant PandeyEdited By: Published: Sun, 25 Nov 2018 03:34 PM (IST)Updated: Sun, 25 Nov 2018 03:34 PM (IST)
MP Election 2018: खरगोन जिले में 25 साल से जीतते रहे प्रत्याशी, हारते रहे जंगल!
MP Election 2018: खरगोन जिले में 25 साल से जीतते रहे प्रत्याशी, हारते रहे जंगल!

खरगोन, विवेक वर्धन श्रीवास्तव। पूरे मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार भले ही विकास के मुद्दे पर लड़ा जा रहा हो लेकिन आदिवासी बहुल खरगोन जिले के मुद्दे जुदा हैं। पिछले 25 सालों में राजनीतिक पार्टियों के प्रत्याशी तो जीतते रहे लेकिन इस क्षेत्र के जंगल हारते रहे। यहां हर चुनाव में नवाड की राजनीति हावी रही। कोई भी पार्टी ने पर्यावरण के साथ न्याय नहीं किया। वोटों की लालच में जंगल कटते रहे।

loksabha election banner

वन अधिकार पत्र की परिकल्पना आदिवासियों को आसरा देने के लिए कागजों पर जितनी खूबसूरत बनाई धरातल पर जंगलों को उतना ही उजाड़ कर दिया गया। इससे न तो आदिवासियों को पूरा हक मिला न ही उनके जीवन स्तर में उल्लेखनीय सुधार हुआ। सरकारों ने अपने-अपने हितों को साधने के लिए नवाड काटने की सीमा बढ़ा दी। नतीजा यह रहा कि वर्ष 2000 से लगाकर अब तक आदिवासियों की आड़ लेकर जंगल माफियाओं ने भी जमकर कुल्हाड़ियां चलाई।

जंगल में गुजर-बसर कर रहे आदिवासियों को उनकी जमीन का मालिकाना हक देने और झोपड़ी बनाने के लिए यह अधिकार पत्र थमाए गए। नवाड का अर्थ यह था कि जंगल के कुछ उजाड़ या समतल हिस्से को आदिवासी कृषि उपजाऊ जमीन बनाकर आजीविका चला सकें। पिछले दो दशकों में नवाड की आड़ में सतपुड़ा के घने जंगलों के बेशकीमती पेड़ काट दिए गए। जिले में भगवानपुरा व भीकनगांव विधानसभा क्षेत्र में सतपुड़ा का जंगल आता है।

जैव विविधता पर मंडराने लगा खतरा

जंगल माफियाओं ने सतपुड़ा को इस कदर नष्ट किया है कि वनस्पति शास्त्री और पर्यावरण प्रेमी भी चिंतित होने लगे हैं। जैव विविधता पर भी खतरा मंडराने लगा है। औषधीय पेड़-पौधों की कई प्रजातियां विलुप्त हो गईं। रिकॉर्ड के अनुसार, जनजातीय कार्य विभाग व वन विभाग के समन्वय से अब तक 18 हजार आदिवासी परिवारों को वन अधिकार पत्र वितरित किए जा चुके हैं। धरातल पर इससे कई अधिक गुना जंगल वीरान हो चुके हैं। 1995 से 2000 तक केंद्र व राज्य सरकार की आपसी खींचतान के बीच वन अधिकार पत्र समय पर वितरित नहीं हो सके। नवाड की सीमा बढ़ाते हुए 2005 तक कर दी गई। यानी आदिवासी परिवार जो 2005 तक जिस भूमि पर कृषि कर आजीविका चलाता है उन्हें भूमि का हक दिया गया। इस नियम की आड़ में ही जमकर जंगल कटे और राजनीतिक संरक्षण मिलता रहा।

राजनीति ने दिया बढ़ावा

इस क्षेत्र में हर राजनीतिक पार्टी व जनप्रतिनिधि ने वन अधिकार पत्र की आड़ में राजनीति की। जंगल माफियाओं को वेखौफ मौका मिला। राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण प्रशासनिक व्यवस्था भी बौनी साबित हुई। गौरतलब है कि जिले में बड़वाह व खरगोन वन मंडल क्षेत्र के रूप में दो मुख्यालय संचालित हैं। नेताओं ने जंगल कटने की रोकथाम के बजाए चुनावी मुद्दा बना लिया।

नतीजा यह रहा कि कई आदिवासी परिवार जंगल में छोटे-छोटे फलियों में बस गए। परंतु केंद्रीय पर्यावरणीय स्वीकृति के अभाव व वन का अधिकृत हिस्सा होने के कारण सड़क-बिजली सहित अन्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पाई। अभी भी कई गांवों में पहुंच मार्ग तक नहीं हैं। बिजली-पानी की समस्या भी बनी हुई है। विशेषज्ञों का कहना है कि राजनीति से परे जंगल बचाने के लिए सभी राजनीतिक दलों को पहल करना होगी। आदिवासी समुदाय के लिए और बेहतर योजनाएं बनाकर उन्हें मुख्य धारा से जोड़ना चाहिए।

फैक्ट फाइल

- 2 वन मंडल हैं जिले में

- 2 विधानसभा क्षेत्र में है सतपुड़ा का जंगल

- 18 हजार से अधिक वन अधिकार पत्र खरगोन जिले में

- 4509.79 वर्ग किमी जंगल खरगोन वन मंडल में

- 731 वर्ग किमी जंगल बड़वाह वन मंडल में 


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.