आपातकाल के बाद से ही कर्नाटक में मजबूत होता गया 'गैर कांग्रेसवाद'
कर्नाटक के राजनीतिक इतिहास की बुनियाद पर यह दावा असलियत से बहुत दूर भी नहीं दिखता। क्योंकि यहां 80 के दशक से ही 'गैरकांग्रेसवाद' की जड़ें मजबूत रही हैं।
ओमप्रकाश तिवारी, बेंगलुरु। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कर्नाटक में 130 सीटें जीतने का दावा किया है। कर्नाटक के राजनीतिक इतिहास की बुनियाद पर यह दावा असलियत से बहुत दूर भी नहीं दिखता। क्योंकि यहां 80 के दशक से ही 'गैरकांग्रेसवाद' की जड़ें मजबूत रही हैं।
कांग्रेस का राजनीतिक मूड मूलत: समाजवादी रहा है। यह बात और है कि रामकृष्ण हेगड़े जैसे समाजवादी नेता भी डॉ.राममनोहर लोहिया एवं आचार्य नरेंद्र देव की तरह कांग्रेस की ही उपज रहे हैं। आपातकाल के विरोध में 1977 में कांग्रेस से छिटके रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व में गैरकांग्रेसी नेता एकजुट हुए थे। इन सभी नेताओं की मानसिकता मूलत: समाजवादी थी। कांग्रेस से समाजवादियों के विघटन के फलस्वरूप ही 1983 में रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व में पहली गैरकांग्रेसी सरकार बनी। इस सरकार को तब सिर्फ तीन साल पुरानी भाजपा के 18 विधायकों ने बाहर से समर्थन दिया था। इससे भाजपा की उस समय की ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है। इसके बाद कर्नाटक में हेगड़े, देवेगौड़ा, जेएच पटेल, एसआर बोम्मई जैसे कई गैरकांग्रेसी नेताओं की सरकारें बन चुकी हैं। लेकिन यहां यदाकदा कांग्रेस की सरकारें बनती रही हैं।
देवेगौड़ा के मुकाबले कांग्रेस ने कृष्णा को उतारा था
1999 में कांग्रेस ने देवेगौड़ा के जनता दल को टक्कर देने के लिए एसएम कृष्णा को केंद्र से लाकर कर्नाटक की कमान सौंपी थी। उस समय 44 विधायकों के साथ भाजपा मजबूत विपक्ष की भूमिका निभा रही थी। 2004 में भाजपा पूरी मजबूती से चुनाव लड़ी और 79 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। तब कांग्रेस को 65 एवं जनता दल (सेक्युलर) को 58 सीटें मिली थीं। यानी इस चुनाव में भी गैर कांग्रेसी दलों को जनता ने सत्ता में आने का अवसर दिया।
सेक्युलरवाद के नाम पर कांग्रेस के साथ गई थी जदएस
लेकिन सेक्युलरवाद के नाम पर जदएस ने सबसे बड़े दल भाजपा को समर्थन देने के बजाय कांग्रेस का हाथ थामा, और ढाई-ढाई साल मुख्यमंत्री पद हथियाने का सौदा किया। लेकिन 20 माह बाद ही जब कांग्रेस ने जदएस को तोड़ने की साजिश रचनी शुरू की, तो तत्कालीन उपमुख्यमंत्री, देवेगौड़ा के पुत्र एचडी कुमारस्वामी ने मुख्यमंत्री बनने के लिए भाजपा के साथ गुपचुप समझौता कर लिया।
कुमारस्वामी ने भाजपा को दिया था धोखा
कुमारस्वामी और भाजपा नेता येद्दयूरप्पा में 20-20 माह मुख्यमंत्री पद रखने का समझौता हुआ था। जदएस को पहले मुख्यमंत्री पद मिलना था। लेकिन कांग्रेस से धोखे की विरासत लेकर आए कुमारस्वामी ने भी भाजपा को धोखा ही दिया। यानी 20 माह पूरे होने के बाद येद्दयूरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ तो दिलवा दी। लेकिन सदन में उनके बहुमत साबित करने के पहले ही समर्थन वापस ले लिया।
सहानुभूति लहर ने भाजपा को दिलाई थी जीत
कुमारस्वामी के धोखे के कारण सहानुभूति लहर में 2008 के मध्यावधि चुनाव में भाजपा को 110 सीटें मिलीं। सूबे की गैरकांग्रेसवादी राजनीति में भाजपा की पैठ शनै: शनै: मजबूत ही होती गई। 2013 में येद्दयूरप्पा के विवादों में फंसने के कारण एक झटका लगा। लेकिन उस समय भी येद्दयूरप्पा के अलग होने के बावजूद भाजपा जदएस से सीटों के मामले में पीछे नहीं रही।
अब भाजपा के सितारे बुलंद हैं
राजनीतिक विश्लेषक एवी आचारी का मानना है कि 2013 की तुलना में आज कावेरी में बहुत पानी बह चुका है। तब अकेले लड़कर 10 फीसद वोट एवं छह सीटें बटोरने वाले येद्दयूरप्पा आज प्रदेश भाजपा का नेतृत्व कर रहे हैं। तब लगभग तीन फीसद वोट एवं चार सीटें जीतनेवाले श्रीरामुलू जैसे अनुसूचित जनजाति के नेता भी आज भाजपा के साथ हैं और बादामी सीट पर मुख्यमंत्री सिद्दरमैया को चुनौती दे रहे हैं। कभी कांग्रेस के कद्दावर मुख्यमंत्री रहे वोक्कालिगा नेता एसएम कृष्णा भी अब भाजपा में हैं। इसके साथ ही भाजपा के पास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे स्टार प्रचारक भी हैं। उनकी 21 रैलियां हो चुकी हैं। और इनके साथ-साथ मतदाताओं को मतदान केंद्र तक ले जाने के लिए 'वन बूथ-25 यूथ' की रणनीति भी तैयार है। ऐसे में एक बार फिर कर्नाटक में गैरकांग्रेसवाद का डंका बज उठे तो हैरत नहीं।