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राजनेताओं के वादे और बंदरों के इरादे से हलकान हिमाचल का किसान

हिमाचल में चुनावी सरगर्मी तेज हो चुकी है। नेता एक बार फिर अपने वादों की पोटली लेकर मतदाताओं तक पहुंच रहे हैं, लेकिन किसानों की समस्या बंदर हैं...

By Digpal SinghEdited By: Published: Mon, 23 Oct 2017 01:21 PM (IST)Updated: Mon, 23 Oct 2017 03:34 PM (IST)
राजनेताओं के वादे और बंदरों के इरादे से हलकान हिमाचल का किसान

रमेश सिंगटा, शिमला। पहाड़ी राज्य हिमाचल में कृषि लोगों का मुख्य व्यवसाय है, लेकिन वानर सेना यहां किसानों की मेहनत पर पानी फेर रही है। चुनाव का समय है तो एक बार फिर वानरों की सेना से परेशान किसान चर्चा में हैं।

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पांच साल तक सियासी दलों ने इस मुद्दे को खूब भुनाया, लेकिन प्रदेश के करीब नौ लाख किसान परिवारों की समस्या का हल नहीं निकल पाया है। कई स्थानों पर तो लोगों ने फसल बीजना ही बंद कर दिया है। किसानों की पीड़ा को समझने की बात की जाए तो पांच साल में राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे के आसरे महज सियासी रोटियां ही सेंकी हैं।

सत्ता पक्ष ने तो अन्नदाताओं के हाथ में ही बंदूक थमा दी, बंदरों को उत्तर-पूर्व भेजने के दावे किए, लेकिन ये दावे हकीकत में नहीं बदल पाए। वन महकमे का जोर भी केवल नसबंदी पर ही केंद्रित रहा। यही नहीं, विपक्ष भी शिद्दत के साथ इस मसले को नहीं उठा पाया। किसान संगठनों की मानें तो बंदरों की तादाद पांच से छह लाख है। जबकि वन विभाग की नजर में इनकी संख्या बढ़ नहीं घट रही है। पीड़ित किसान विभाग के सर्वेक्षणों पर सवाल उठाते रहे हैं।

राज्य की 3223 पंचायतों में से अधिकांश में किसानों की फसलों को बंदर नुकसान पहुंचा रहे हैं। खेती बचाओ संघर्ष समिति के मुताबिक हर साल करीब पांच सौ करोड़ की फसल बर्बाद हो रही है। जबकि फसलों की रखवाली के लिए राखे के तौर करीब 1600 करोड़ सालाना खर्च होता है। इसकी एवज में किसानों को न तो मुआवजा मिलता है और न ही बंदरों की रखवाली के लिए मनरेगा के तहत राखे रखने की व्यवस्था हो पाई है। यहां किसानी लगातार घाटे का सौदा साबित हो रहा है। इससे पहले बंदरों को मारने पर हाईकोर्ट का स्टे था। यह कई वर्षों तक रहा।

किसान संगठन इसे हटाने की अपने स्तर पर पैरवी करते रहे। बाद में यह स्टे हट भी गया। हालांकि मामला देश की शीर्ष अदालत तक जा पहुंचा था। इसके बाद केंद्र ने हिमाचल के आग्रह पर सबसे पहले शिमला शहर को वर्मिन घोषित किया था। इसके बाद वर्मिन का दायरा राज्य की 38 तहसीलों तक बढ़ाया। इनमें बंदरों को मारा जा सकता था। राज्य सरकार ने किसानों के ही हाथों में बंदूक थमा दी। अन्नदाताओं ने मारने से मना किया। वन विभाग ने किसानों को प्रशिक्षण नहीं दिया और न टेंड कर्मियों को इस कार्य के लिए तैनात किया।

बंदरों की फैमिली प्लानिंग का फैसला

इसी साल 10 अप्रैल को शिमला में उच्च स्तरीय कमेटी की बैठक हुई थी। तय हुआ था कि इंसान की तर्ज पर बंदरों की भी फैमिली प्लानिंग होगी। मादा बंदरों को गर्भ निरोधक गोलियां खिलाई जाएंगी। बैठक में कई तरह के फैसले लिए गए थे, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।

कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता नरेश चौहान ने कहा, दावों को पूरा करने के लिए सरकार ने हरसंभव कोशिश की। फिर भी जो कमियां रह गईं, उन्हें अगली बार सरकार बनने पर पूरा किया जाएगा। कांग्रेस पूरी तरह से किसान हितैषी पार्टी है। सरकार ने कई अहम फैसले लिए, लेकिन निर्यात करने की इजाजत केंद्र ने नहीं दी।

भाजपा प्रदेश उपाध्यक्ष गणेश दत्त बोले, सूबे की सरकार को चाहिए था कि वह बंदरों की समस्या का स्थायी समाधान करती। राखे के तौर पर कम पढ़े-लिखे लोगों को रोजगार देती। विपक्ष के नाते भाजपा ने अपनी जिम्मेदारी निभाई है। सदन के भीतर और बाहर दोनों जगह मुद्दे को उठाया है।

केंद्र और राज्य सरकार ने बंदरों की समस्या के समाधान के लिए ठोस कदम नहीं उठाया। न ही अल्पकालिक और न ही दीर्घकालिक कदम उठाने के प्रयास हुए। केंद्र बंदरों को निर्यात करने की इजाजत नहीं दे रहा है। अब इस चुनाव में यह बड़ा बनेगा।

डॉ. कुलदीप सिंह तंवर, पूर्व आइएफएस एवं अध्यक्ष किसान सभा


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