मंदिर के जरिए सत्ता हासिल करने की जुगत, सोमनाथ में राहुल गांधी
कोई यह न समझे कि भगवान के निकट है तो वह जनता के भी नजदीक है। अतीत में भाजपा भी हारी है और अकाली पार्टी भी।
नई दिल्ली [राजकिशोर]। राहुल गांधी को सलाह दी गई है कि वे सिर्फ उन्हीं मंदिरों में जाया करें जो उनके नाना-परनाना ने बनवाए हैं। इशारा सोमनाथ मंदिर में राहुल गांधी की उपस्थिति की ओर था। सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के प्रति भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सहमति नहीं थी। उनका मानना था कि यह काम राजनेताओं का नहीं, धार्मिक लोगों का है। पुनर्निर्माण पूरा हो जाने के बाद आयोजित कार्यक्रम में नेहरू को भी आमंत्रित किया गया था, पर उसमें जाना उन्होंने उचित नहीं समझा बल्कि राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को भी सलाह दी कि वे इस कार्यक्रम में न जाएं, लेकिन राजेंद्र प्रसाद गए।
सोमनाथ मंदिर और जवाहरलाल नेहरू
क्या सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में हिस्सा नहीं लेकर जवाहरलाल नेहरू ने कुछ गलत किया था? नेहरू घोषित रूप से नास्तिक थे। ईश्वर और पूजा-पाठ से उन्हें कोई मतलब नहीं था। इसलिए उनका न जाना ही उचित था। उनका जाना पाखंड का एक उदाहरण होता, लेकिन राहुल गांधी के बारे में ऐसी मान्यता नहीं है कि वे नास्तिक नहीं हैं या परम आस्तिक हैं। नेहरू में बौद्धिक ईमानदारी थी, इसलिए उन्होंने अपनी आस्तिकता को छुपाने की कोशिश नहीं की। राहुल गांधी ने धर्म के प्रति अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट नहीं किया है। उनकी मां सोनिया गांधी अवश्य ईसाई हैं। पर उन्होंने कभी अपने को हिंदू दिखाने की कोशिश नहीं की, लेकिन नेहरू के बाद नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य लगातार धार्मिक स्थानों पर जाते रहे, पूजा-पाठ करते रहे। इंदिरा गांधी तो तांत्रिकों के पास भी जाती थीं। ज्योतिषियों के पास तो सभी राजनैतिक दलों के नेता जाते हैं। शायद एक-दो कम्युनिस्ट नेता भी जाते हों। इसी तरह राजीव गांधी भी मंदिरों की परिक्रमा करते रहे। अब राहुल कर रहे हैं।
मैं इसे पाखंड मानता हूं। चुनाव जीतने के लिए या मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए देवी-देवताओं के फेरे लगाना धर्म को मजाक बनाना है। यद्यपि मैं स्वयं नास्तिक हूं और धर्म मात्र को अज्ञान का प्रतीक मानता हूं, लेकिन मैं किसी धर्म का अपमान नहीं करना नहीं चाहता। धर्म बुद्धि से ज्यादा भावना का विषय है, बल्कि उससे भी ज्यादा पारिवारिक संस्कार का विषय है। हिंदू माता-पिता अपनी संतानों को हिंदू की तरह और मुसलमान माता-पिता अपनी संतान को मुसलमान की तरह पालना चाहते हैं। दुनिया अगर बुद्धिवादी होती, तब शायद माता-पिता अपनी संतान को अपन धर्म देना अनिवार्य नहीं समझते। वे संतान के वयस्क होने पर उसे अपना धर्म चुनने का विकल्प देते, लेकिन यहां आकर यह तर्क झूठा पड़ जाता है कि धर्म व्यक्ति और परमात्मा के बीच का व्यक्तिगत मामला है। यह तो है ही, इसके अलावा धर्म व्यक्ति की सामुदायिक पहचान भी है। बुद्धिवादी लोग इस बात को नहीं समझना चाहते, इसीलिए धर्मनिरपेक्षता से संबंधित कई जटिल समस्याओं का हल नहीं निकल पाते हैं। सामुदायिकता से जुड़ कर ही धर्म राजनीति का मामला बन जाता है।
धर्म आधारित पार्टियों का भविष्य
भाजपा अपने को हिंदुओं की पार्टी मानती है। उसके सदस्यों में 99 प्रतिशत हिंदू हैं। धर्म आधारित पार्टियों का बनना राजनीति के लिए निश्चय ही न उचित है और न अच्छा। राजनीति इस लोक की वस्तु है, परलोक की नहीं। कोई यह दावा नहीं कर सकता कि अमुक राजनैतिक पार्टी का सदस्य बन जाने पर व्यक्ति सीधे स्वर्ग जाएगा और अमुक राजनैतिक पार्टी का सदस्य बनने पर आदमी को नरक भोगना होगा। इस काम के लिए धार्मिक संस्थाएं और संगठन ही ठीक हैं। राजनीति का काम इहलोक की समस्याओं को सुलझाना है। और ये समस्याएं सभी समुदायों की समान हैं। कुछ धार्मिक समुदायों की अपनी विशिष्ट समस्याएं हो सकती हैं, जैसे मुसलमानों में शिक्षा का औसत कम है। हिंदुओं में दलितों की स्थिति भी ऐसी ही है। मगर ये समस्याएं धार्मिक नहीं, लौकिक समस्याएं हैं और लौकिक स्तर पर ही इनका समाधान निकाला जा सकता है। जिस देश में जहां कई धर्म हों, वहां धर्म पर आधारित पार्टियों का गठन अस्वाभाविक नहीं है। जिन देशों में नागरिक चेतना का विकास हुआ है, धर्म वहां भी है, पर धर्म या संप्रदाय पर आधारित दल नहीं या नहीं के बराबर हैं, लेकिन एशिया में तो राष्ट्र भी धर्म पर आधारित हैं। हिंदू राष्ट्र तो कोई नहीं है, पर इस्लामी राज्य अवश्य हैं, जो अपने कानूनी ढांचे की प्रेरणा शरीयत से लेते हैं।
भारत में अकाली दल को सिखों का और भाजपा को हिंदुओं का दल माना जाता है। मुसलमानों और ईसाइयों के भी छोटे-छोटे राजनैतिक संगठन हैं, पर उनकी ताकत कुछ खास नहीं है। इसलिए अकाली दल के नेता अगर स्वर्ण मंदिर और अकाल तख्त के प्रति और भाजपा के लोग मंदिरों और धर्मपीठों के प्रति विशेष श्रद्धा भाव दिखलाते हैं तो यह स्वाभाविक ही है, लेकिन अगर अपने को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले राजनैतिक दलों के नेता मंदिरों में जा कर पूजा-पाठ करते हैं, तो यह कुछ अस्वाभाविक प्रतीत होता है। मै तो कहूंगा कि यह वोट खींचने के लिए पाखंड है। बेशक धर्मनिरपेक्ष होने के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि व्यक्ति किसी भी धर्म से नाता न रखे। वह स्वयं एक धार्मिक व्यक्ति हो सकता है, जैसे कांग्रेस के सब से बड़े नेता महात्मा गांधी थे, लेकिन वह दो संप्रदायों के बीच वैमनस्य फैलाने का काम नहीं करेगा, लेकिन अगर वह स्वभाव से धार्मिक या आस्तिक नहीं है और उसके व्यक्तिगत जीवन में धर्म की कोई भूमिका नहीं है, तो उसे मंदिरों और दरगाहों के फेरे लगा कर अपनी राजनीति को प्रदूषित नहीं करना चाहिए। ऐसे प्रपंचों से वोट नहीं मिलता। यह बात उन राजनैतिक दलों को भी समझनी चाहिए जो अपने को धर्म पर आधारित मानते या बताते हैं। राजनेताओं से धार्मिक होने की उम्मीद नहीं की जाती। न इससे कोई फर्क पड़ता है कि वे धार्मिक हैं या नहीं।
जवाहरलाल नेहरू नास्तिक थे, लेकिन वे जब तक जीवित रहे, देश में सब से लोकप्रिय नेता रहे। जब उनकी पार्टी लोगों की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी, तो उसका वोट प्रतिशत कम होने लगा। पश्चिम बंगाल में नास्तिक वामपंथी लगातार तीस सालों तक शासन करते रहे, पर जब उनकी राजनीति पूर्ण रूप से जन-विरोधी हो गई, तब जनता ने उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया। केरल और तमिलनाडु में आस्तिक और नास्तिक, दोनों प्रकार के राजनीतिज्ञ सत्ता में हिस्सेदारी करते रहे हैं। इसलिए कोई यह न समझे कि हम भगवान के निकट हैं, तो जनता के भी निकट हैं। अतीत में भाजपा भी हारी है और अकाली पार्टी भी। राजनीति में सब से महत्वपूर्ण चीज यह होती है कि आप जनता के बीच लोकप्रिय हैं या नहीं। अगर हैं, तब देवी-देवताओं के बीच लोकप्रिय नहीं होने से भी आप को राजनैतिक सफलता मिल सकती है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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