विस चुनाव को लेकर बस्तर में शुरू हुआ 'माटी किरिया' का दौर
यह करना सबके बस की बात भी नहीं है। आदिवासी पैसे या उपहार के जाल में नहीं फंसते। यहां संबंध काम आते हैं।
नईदुनिया, रायपुर। विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के लिए छत्तीसगढ़ के बस्तर में विभिन्न दलों के नेता आदिवासियों पर डोरे डाल रहे हैं। बस्तर में इन दिनों 'माटी किरिया' (मिट्टी की कसम) का दौर चल रहा है। समय बेहद कम बचा है जबकि गांव ज्यादा हैं। इसलिए नेता एक ही दिन में कई-कई गांवों तक पहुंचने में पूरी ताकत लगा रहे हैं।
आसान नहीं है 'किरिया' खिलाना
माटी किरिया यानी मिट्टी की शपथ अगर आदिवासी खा लें तो फिर उनका वोट पक्का हो जाता है। हालांकि, माटी किरिया खिलाना आसान भी नहीं है। इसके लिए पूरे गांव के लोगों को एक स्थान पर एकत्र करना पड़ता है। अंदरूनी इलाकों में सरपंच या ग्राम सचिव की भी नहीं चलती। गांवों में रियासतकाल से जो प्रशासनिक व्यवस्था चली आ रही है, वह आज भी काम करती है। इसमें मांझी मुखिया ग्राम प्रमुख होते हैं, पटेल रियासत कालीन कर संग्राहक, सिरहा, गायता, पुजारी आदि पूजा पाठ तंत्र मंत्र कराने वाले होते हैं। इनकी बात सभी सुनते हैं।
जाहिर है कि ऐसे में गांव के इन प्रमुखों की शरण में नेताओं के सिर झुक रहे हैं। ग्राम कोटवार मुनादी कर दे, मुखिया सबको एक जगह एकत्र होने को कह दे, सिरहा देवता का आदेश सुना दे तो वोट मिलना तय है। ऐसे माहौल में माटी किरिया खिलाना भी आसान हो जाता है। यह करना सबके बस की बात भी नहीं है। आदिवासी पैसे या उपहार के जाल में नहीं फंसते। यहां संबंध काम आते हैं।
देवगुड़ी वंदन और बकरा भात
आदिवासी परंपरा में ग्राम देवी की पूजा साल में एक बार ही होती है लेकिन चुनावी राजनीति में इनकी पूजा का आयोजन अलग से कराया जाता है। नेता ग्राम देवी-देवता के भक्त बन जाते हैं। इनकी पूजा में बकरा कटता है। महुए की देसी शराब से तर्पण होता है। फिर सामूहिक रूप से बकरा-भात का भोज किया जाता है। तेंदूपत्ते से बनी चिपटी (पत्ते को मोड़कर बनाई गई कटोरी) में महुला उड़ेल एक बार में गटक जाते हैं आदिवासी। साथ में बकरे का गोश्त। फिर शुरू हो पाता है माटी किरिया खिलाने का दौर।