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बस्तर में तेजी से गायब हो रहे मुद्दे, लोक लुभावन वादों का खुला पिटारा

छत्तीसगढ़ के प्रथम चरण की 18 सीटों पर चुनाव की तिथि जैसे-जैसे नजदीक आती जा रही है प्रचार से मुद्दे गायब होते जा रहे हैं। यह पहली बार है कि बस्तर का चुनाव मुद्दाविहीन हो चला है।

By Prateek KumarEdited By: Published: Tue, 23 Oct 2018 08:50 PM (IST)Updated: Tue, 23 Oct 2018 08:50 PM (IST)
बस्तर में तेजी से गायब हो रहे मुद्दे, लोक लुभावन वादों का खुला पिटारा
बस्तर में तेजी से गायब हो रहे मुद्दे, लोक लुभावन वादों का खुला पिटारा

रायपुर। छत्तीसगढ़ के प्रथम चरण की 18 सीटों पर चुनाव की तिथि जैसे-जैसे नजदीक आती जा रही है प्रचार से मुद्दे गायब होते जा रहे हैं। यह पहली बार है कि बस्तर का चुनाव मुद्दाविहीन हो चला है। यहां दंतेवाड़ा, सुकमा समेत कुछ सीटों पर त्रिकोणीय रोचक संघर्ष की पटकथा तैयार हो रही है। भाजपा के पास विकास गिनाने के सिवा कोई चारा नहीं है, जबकि बस्तर संभाग की 12 में आठ सीटों पर कांग्रेस के विधायक हैं। कांग्रेस ने अपने वर्तमान विधायकों पर ही दांव खेला है। अब अगर भाजपा के प्रत्याशी कहते हैं कि विकास नहीं हुआ तो इसका दोष तो सरकार पर भी जाएगा और कहें कि विकास हुआ है तो इसका मतलब है कि स्थानीय विधायक का उसमें योगदान रहा। इस तरह से आखिरकार विकास का मुद्दा तो छूट ही गया है।

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विकास में उलझे नेता

बस्तर में मेडिकल कालेज, रेललाइन, सड़कें, पुल आदि भौतिक विकास की बहार दिखती है। पिछले 15 साल में जो भी काम हुए हैं सब भाजपा सरकार ने किए। अब इतना कुछ हो चुका है कि नया वादा क्या किया जाए उसके लिए नेताओं को सिर धुनना पड़ रहा है। दक्षिण बस्तर की राजनीति के जानकार कहते हैं कि यहां पांच साल नक्सलवाद की चर्चा होती रही, चुनाव में यह कोई मुद्दा नहीं है।

अंतरकलह से जूझ रही पार्टी

भाजपा और कांग्रेस दोनों ही अंतरकलह से जूझ रहे हैं। भाजपा की दिक्कतें एंटीइंकम्बेंसी भी बढ़ा रही है। हालांकि मुकाबला कांटे का है और आखिरी वक्त में कांटा किसी के भी तरफ घूम सकता है। चुनाव आने से पहले भाजपा ने विकास यात्रा निकाली तो कांग्रेस विकास खोजो यात्रा पर निकल पड़ी थी। अब न विकास दिखाया जा रहा है न खोजा जा रहा है।

चल रहा मान-मनौव्‍वल

कार्यकर्ताओं की मान-मनौव्वल का दौर चल रहा है। दरअसल चुनाव नजदीक आया तो विकास समेत दूसरे मुद्दे पीछे छूटने लगे। बस्तर में नक्सलवाद, पांचवीं अनुसूची और पेसा कानून, विस्थापन, पलायन, बेरोजगारी, जल-जंगल-जमीन की लड़ाई जैसे मुद्दों की चर्चा पीछे छूट चुकी है। दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हो चुका है। मुख्य मुद्दों की बजाय संविदा प्रथा खत्म कर पक्की नौकरी देने, वनवासियों को वनोपज का दोगुना-तिगुना दाम देने, नक्सल मामलों में बंद आदिवासियों को निशर्त रिहा करने जैसे वादे विपक्षी दल कर रहे हैं। दोनों ओर से लोक लुभावन वादों की बहार आनी शुरू हो चुकी है। हर गांव को चमन बनाने के वादे किए जा रहे हैं। जनता जो मांगे सब में हामी है।

उसके और इसके कार्यकर्ता

चुनाव के दौरान कौन किसका कार्यकर्ता है यह तय करना मुश्किल हो रहा है। जगदलपुर के एक व्यवसायी का कहना है कि कल तक जो कांग्रेस में काम कर रहे थे वे आज भाजपा में दिख रहे हैं। वे मुस्कुराते हैं-पैसा बोलता है। ज्यादा दिक्कत बागियों ने खड़ी की है। बागी अपने दलों के महत्वपूर्ण कार्यकर्ताओं को लेकर अलग हो गए हैं। बागियों को मनाने का संकट तो है लेकिन उससे बड़ा संकट बागियों के साथ गए कार्यकर्ताओं को वापस लाने में है।


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