कभी कांग्रेस का मजबूत गढ़ था छत्तीसगढ़, प्रदेश बना तो बिखर गया कुनबा
अविभाजित मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनाने में छत्तीसगढ़ अहम भूमिका निभाता रहा। जैसे ही मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ अलग हुआ, कांग्रेस पार्टी कमजोर हो गई।
रायपुर। अविभाजित मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनाने में छत्तीसगढ़ अहम भूमिका निभाता रहा। आपातकाल के बाद के अविभाजित मध्यप्रदेश में छह विधानसभा चुनाव हुए थे, जिसमें से चार में कांग्रेस का परचम लहराया था। जैसे ही मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ अलग हुआ, कांग्रेस पार्टी कमजोर हो गई। राज्य बनने के बाद हुए तीन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को लगातार हार का सामना करना पड़ा है। हालांकि, हार का अंतर बहुत ही मामूली है, लेकिन कांग्रेस उस गड्ढे को भी पाटने में नाकाम साबित होती रही है।
1980 में अस्तित्व में आई 90 सीट
अविभाजित मध्यप्रदेश में आपातकाल के बाद कांग्रेस को छह में से चार वर्ष 1980, 1985, 1993 और 1998 चुनावों में जीत मिली थी। चारों चुनाव में छत्तीसगढ़ की जनता ने कांग्रेस को बढ़त दिलाने में मदद की थी। 1980 से ही छत्तीसगढ़ में 90 सीटों पर चुनाव होने लगा था। 1980 में 77, 1985 में 74, 1993 में 54 और 1998 में 48 सीटों पर कांग्रेस का कब्जा हुआ था।
अपनो ने ही डुबोई नैया
एक नवंबर 2000 को मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ राज्य को अलग कर दिया गया। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को एक तरह से विरासत में सत्ता मिली। इसके बाद तीन विधानसभा चुनाव हुए, तीनों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा है। हार का अंतर एक से 0.75 फीसद ही रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की पहली पंक्ति के नेताओं को हाशिये पर डाल दिया। यही कांग्रेस के कमजोर होने का सबसे बड़ा कारण बना। पं. श्यामाचरण शुक्ल, पं. विद्याचरण शुक्ल, आदिवासी नेता अरविंद नेताम और महेंद्र कर्मा जैसे स्थानीय क्षत्रप साइडलाइन कर दिए गए। नाराज होकर विद्याचरण शुक्ल ने कांग्रेस छोड़ अलग पार्टी मैदान में उतार दी। इसका नतीजा यह हुआ कि 2003 के चुनाव में कांग्रेस हार गई। इसके बाद तो भाजपा और संघ ने अपनी जमीन मजबूत करने में जी जान से जुट गए।
बंट गया वोट बैंक
कांग्रेस का वोट बैंक एसटी और एससी मतदाता हुआ करते थे। संघ ने आदिवासी इलाकों को फोकस किया। वनवासी आश्रम चलाकर आदिवासी वोटों को साधने का काम किया। भाजपा सरकार ने गरीबों के लिए चावल और स्मार्ट कार्ड योजना जैसी कई योजनाएं चलाईं। इससे कांग्रेस के एसटी-एससी वोट बैंक में भाजपा सेंध लगाने में सफल रही। दूसरी तरफ, बसपा वोट कटवा पार्टी बनकर उभरी। इसने कांग्रेस के अनुसूचित जाति वर्ग के वोटों को काटा। बसपा का वोट छह प्रतिशत तक पहुंच गया।
भितरघात भी बना बड़ा कारण
कांग्रेस के कमजोर होने एक और बड़ा कारण भितरघात रहा। जगजाहिर है कि जब तक अजीत जोगी कांग्रेस में रहे, तब तक बाकी दूसरे वरिष्ठ नेताओं से उनकी नहीं बनी। कांग्रेस नेताओं की यह गुटबाजी चुनाव में पार्टी की लुटिया डुबोने का काम करती रही।
ऐसा प्रभाव था पहली पंक्ति के नेताओं का
कांग्रेस में पहली पंक्ति के नेताओं का प्रभाव हुआ करता था। अविभाजित मध्यप्रदेश में 1990 के चुनाव में कांग्रेस हारी, तब विद्याचरण शुक्ल जनता दल में चले गए थे। हालांकि, उसके बाद राजीव गांधी और शुक्ल के बीच फिर से प्रगाढ़ता बढ़ी, तब शुक्ल ने वादा किया था कि वे 1991 के लोकसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ की सभी 11 सीटों में कांग्रेस को जिताएंगे। उन्होंने अपना वादा पूरा किया और पूरी सीट कांग्रेस की झोली में आ गई।
कांग्रेस में नए मास लीडर नहीं बने
अविभाजित मध्यप्रदेश में पं. श्यामाचरण शुक्ल, पं. विद्याचरण शुक्ल, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह मास लीडर थे। छत्तीसगढ़ में अब तक इन नेताओं के बराबर कांग्रेस में कोई मास लीडर नहीं बन पाया है। अभी जो वरिष्ठ नेता हैं, वे अपने-अपने क्षेत्र में ही प्रभाव रखते हैं। यही वजह है कि कांग्रेस हाईकमान ने अब तक मुख्यमंत्री पद के लिए कोई चेहरा घोषित नहीं किया है, जनता के बीच भी किसी एक चेहरे पर चर्चा नहीं है।
अविभाजित मध्यप्रदेश से लेकर अब तक चुनावों के नतीजे
चुनाव-कांग्रेस-भारतीय जनसंघ/जनसंघ पार्टी/भाजपा
- 1972-64-10
- 1977-35-53
- 1980-77-06
- 1985-74-13
- 1990-23-51
- 1993-54-30
- 1998-48-36
- 2003-37-50
- 2008-49-50
- 2013-39-49