Bihar Chunav 2020: यहां जाति के ऑक्सीजन के बिना संभव नहीं हो पा रही दिग्गजों की राजनीति
Bihar Chunav 2020 चुनाव विश्लेषक कह रहे हैं कि हर चुनाव में जातीय समीकरण ही हावी रहता है। मतदान करीब आते ही चुनावी मुद्दे गौण हो जाते हैं। यहां उम्मीदवारों की किस्मत का फैसला विकास और मुद्दे नहीं जाति से तय होता रहा है।
पटना [दीनानाथ साहनी]। Bihar Chunav 2020 चुनाव में प्रत्यक्ष तौर पर बातें विकास की जरूर हो रही हैं। शिक्षा, रोजगार और भ्रष्टाचार मुद्दे ज्यादा उछाले जा रहे हैं, लेकिन हकीकत है कि विभिन्न राजनीतिक पार्टियों द्वारा जातीय आधार पर गोलबंदी की कोशिश भी जारी है। महागठबंधन 'माय समीकरण' को मजबूत करने के साथ-साथ युवाओं को रोजगार और विकास का मुद्दा भी मजबूती से थामे है। वहीं राजग भी महागठबंधन के काउंटर करने के लिए विकास के अलावा 'जंगलराज' जैसे मुद्दों पर चर्चा कर सुर्खियां बटोरने में पीछे नहीं है। इन सब से जनता का खूब मन बहल रहा है। हालांकि पहले चरण में जिन-जिन मुद्दों पर चर्चा शुरू हुई थी,वो अब अपने-आप गौण होते जा रहे हैं।
चुनावी विश्लेषकों का कहना है कि शुरुआती दौर में लग रहा था कि इस बार का चुनाव पहले से बिल्कुल अलग होगा, क्योंकि चुनाव प्रचार में तमाम पार्टियों द्वारा जातिगत समीकरणों से ऊपर उठकर विकास, रोजगार, भ्रष्टाचार और स्थानीय मुद्दे पर चर्चा की जा रही थीं, लेकिन अब चुनाव पूरी तरह से जातीय ध्रुवीकरण की ओर जाता दिख रहा है। चुनाव प्रचार में भी दिग्गजों का मन-मिजाज 'कास्ट पॉलिटिक्स' पर आकर टिक गया है। यूं कह लें कि जातीय समीकरणों को अपनाने में तमाम पाॢटयां जुट गई हैं।
अत्यंत पिछड़ी जातियों पर सबकी नजर
चुनाव विश्लेषक कह रहे हैं कि हर चुनाव में जातीय समीकरण ही हावी रहता है। मतदान करीब आते ही चुनावी मुद्दे गौण हो जाते हैं। उम्मीदवारों की किस्मत का फैसला विकास और मुद्दे नहीं, जाति से तय होता रहा है। जाहिर है इस बार भी इनकी लामबंदी ही हार-जीत का निर्णय करेगी। पिछले कई चुनावों में अत्यंत पिछड़ी जातियां जदयू के करीब रही हैं। इन पर भाजपा भी नजर गड़ाए रही है और जदयू के साथ होने से भाजपा को भी फायदा मिलता रहा है। इस बार चुनाव में महागठबंधन भी अत्यंत पिछड़ी जातियों को अपने पाले में करने की पुरजोर प्रयास कर रही है। यही वजह है कि तमाम पार्टियों की ओर से 'कास्ट फैक्टर' फॉर्मूले को अपनाने की कोशिश तेज हो गई हैं, क्योंकि उम्मीदवारों को सिंबल देने से पहले जातीय समीकरणों को पूरा ख्याल रखा गया है।
विकास बनाम जाति अहम मुद्दा
एक दौर में बिहार ने जातीय सम्मेलनों को खूब देखा है क्योंकि 'जाति के ऑक्सीजन' के बिना दिग्गजों की राजनीति संभव नहीं है। देखा जाए तो पहले से ही बिहार में चुनाव जातीय आधार पर लड़े जाते रहे हैं। वर्ष 2005 और 2010 के विधानसभा चुनाव में 'कास्ट फैक्टर' के बजाय विकास को मुख्य मुद्दा बनते देखा गया था। तब माना जा रहा था कि बिहार के लोग जातिगत राजनीति से ऊपर उठ गए हैं, लेकिन वर्ष 2015 के चुनाव में एक-दूसरे के परस्पर विरोधी रहे लालू प्रसाद और नीतीश कुमार एकसाथ हो गए तब एकबार फिर जातीय समीकरणों पर चुनाव आकर टिक गईं। भले ही राजद और जदयू दो खेमे में हो, लेकिन जातीय ध्रुवीकरण की पटकथा इस बार के चुनाव में भी तैयार हो रही है।