Move to Jagran APP

Bihar Assembly Elections 2020: बहन मनोरमा को भी अच्छा लगा था फनीश्वरनाथ रेणु का चुनाव लडऩा

1972 में जब रेणु ने फारबिसगंज विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में उतरने का निर्णय लिया था तो उनके अन्य स्वजनों के साथ सबसे छोटी बहन मनोरमा देवी भी हतप्रभ रह गई थीं। हालांकि वे चुनाव हार गए थे।

By Dilip Kumar ShuklaEdited By: Published: Sun, 18 Oct 2020 10:36 PM (IST)Updated: Sun, 18 Oct 2020 10:36 PM (IST)
Bihar Assembly Elections 2020:  बहन मनोरमा को भी अच्छा लगा था फनीश्वरनाथ रेणु का चुनाव लडऩा
1972 में फनीश्‍वरनाथ रेणु ने फारबिसगंज विधानसभा क्षेत्र से भरा था पर्चा

कटिहार [संजीव राय]। चुनावी मौसम आते ही 81 वर्षीय मनोरमा देवी के जेहन में अपने भाई व अमर कथाशिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की बातें कौंध जाती है। 1972 में जब रेणु ने फारबिसगंज विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में उतरने का निर्णय लिया था तो उनके अन्य स्वजनों के साथ सबसे छोटी बहन मनोरमा देवी भी हतप्रभ रह गई थीं। किसी दल से टिकट नहीं मिलने के कारण स्वजन परिणाम देख रहे थे। हालांकि उन्हें अपने भाई का चुनाव लडऩा अच्छा ही लग रहा था।

loksabha election banner

जिले के हसनगंज प्रखंड के महमदिया गांव में रह रहीं रेणु की बहन मनोरमा देवी आज भी उस दौर को याद कर प्रफुल्लित हो जाती है। मनोरमा की शादी इसी गांव में हुई थी। आज उनका भरा-पूरा परिवार भी है। वे कहती हैं कि उस चुनाव के दौरान वे बीमार थीं। भाई रेणु उन्हें देखने भी आए थे। इसी दौरान जब उन्होंने भी चुनाव नहीं लडऩे की सलाह दी तो वे हंस पड़े थे। उन्होंने कहा था कि तुम यह बात नहीं समझोगी। हार-जीत से ज्यादा जरुरी मेरा चुनाव लडऩा है। यह एक धारा है, जिसे बस जीवित रखना है। बतौर मनोरमा उस वक्त रेणु ने अन्य बहुत बातें कही थी, जो उनकी समझ से परे था, परंतु यह एहसास हो गया था कि उनके भाई ने जो निर्णय लिया है वह कहीं से गलत नहीं है। दशकों बाद उनके भाई के पुत्र पद्यपराग रेणु जब फारबिसगंज से विधायक चुने गए तो उन्हें लगा कि उनका भाई सचमुच साधारण व्यक्ति नहीं थे...।

प्यारे भांजे कलुआ की हुई थी खास बुलाहट

मनोरमा देवी बताती हैं कि उनके पिता शिलानाथ मंडल भी समाज के प्रति हमेशा उदार रहे थे। भाई फणीश्वरनाथ रेणु ने साहित्य के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम, जेपी आंदोलन व नेपाल क्रांति में सशक्त भागीदारी निभाई थी। वे समाजवाद के प्रबल समर्थक थे। वे बताना चाहते थे कि लोकतंत्र की खासियत क्या है। इसमें जनता मालिक है। न दल, न धन या फिर और कुछ... कोई मायने नहीं रखता है। इस चुनाव में रेणु ने मनोरमा के बेटे व अपने भांजे सुरेंद्र को भी बुलाया था। रेणु जी बचपन से ही प्यार से उसे कलुआ कहा करते थे। कलुआ उर्फ सुरेन्द्र लगभग एक माह तक रेणु जी के साथ ही रहे थे।

जहां ढलती थी शाम वहीं कर लेते थे विश्राम

सुरेन्द्र उर्फ कलुआ ने बताया कि उनके मामा का चुनाव प्रचार भी अनूठा था। अक्सर जिस गांव में शाम ढल जाती थी, उसी गांव में उनका विश्राम हो जाता था। वोट मांगने का अंदाज भी निराला था। लोगों को बस इतना कहते थे कि वे चुनाव लड़ रहे हैं और उनका चुनाव चिन्ह नाव छाप है। इसी गांव में रेणु की दूसरी शादी पद्मा रेणु के साथ हुई थी। आज भी रेणु जी की कई चिठ्ठी को पद्मा रेणु के भतीजे अरुण विश्वास संजोकर रखे हुए हैं। उनकी जेहन में भी रेणु की कई अनूठी यादें अब भी कैद है...।

कश्ती को तब नहीं मिला था किनारा

मनोरमा कहती हैं कि अपने तय दर्शन में जीने वाले भैया रेणु को समझाना किसी के वश में नहीं था। आखिरकार रेणु मैदान में कूद पड़े। चुनाव चिन्ह के रूप में उन्हें कश्ती मिली, लेकिन उनकी कश्ती किनारा नहीं पा सकी। वे चुनाव हार गए।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.