स्वतंत्रता के 70 बरस पूरे होना गर्व और उल्लास के पर्व के साथ ही एक लंबे कालखंड की यात्र भी है। आजादी के सात दशकों की इस लंबी यात्र में भारत ने अपने विशिष्ट मूल्य सुरक्षित और संरक्षित रखते हुए बहुत कुछ अर्जित किया है, लेकिन अभी बहुत कुछ अर्जित करना शेष है। इस पर कोई दोराय नहीं हो सकती और न ही होनी चाहिए कि इस शेष प्राप्य को जितने कम समय में अर्जित किया जा सके उतनी ही तेजी से आगे बढ़ने के साथ देश और दुनिया की अपेक्षा पर खरा उतरने में भी मदद मिलेगी। एक राष्ट्र के रूप में हमें जो कुछ पाना है वह कैसे हासिल किया जा सकता है और उसके लिए हर किसी को क्या कुछ करने की जरूरत है, इसके बारे में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम अपने संदेश में काफी कुछ बताया भी है और समझाया भी। उनके संदेश को सुनने-समझने और उस पर अमल करने की जरूरत है। यदि यह जरूरत हमारी प्राथमिकता बन सके तो बहुत कुछ आसान हो सकता है। राष्ट्रपति ने यह सही कहा कि 15 अगस्त 1947 को हासिल आजादी केवल सत्ता का हस्तांतरण नहीं, बल्कि एक बड़े बदलाव की घड़ी थी। तब सुनहरे कल के तमाम सपने देखे गए थे। इनमें से कुछ सपने पूरे हुए, कुछ पूरे होने को हैं और कुछ के पूरे होने की प्रतीक्षा है। यह प्रतीक्षा लंबी न खिंचने पाए, इसके लिए आम नागरिकों और सरकार के बीच साङोदारी की अवधारणा पर नए सिरे से ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि कोई भी राष्ट्र हो वह मूलत: उसके लोगों के आचरण से ही महान बनता है। साङोदारी किस तरह राष्ट्र निर्माण में सहायक बनने के साथ राष्ट्रभाव जगाती है, इसे राष्ट्रपति ने बहुत आसान तरीके से रेखांकित किया। 1यह एक तथ्य है और हम सब इससे अवगत भी हैं कि अभी कल तक ऐसा होता था कि किसी गांव में किसी की भी बेटी का ब्याह पूरे गांव वालों के लिए एक ऐसे उत्सव की तरह होता था जिसमें सभी सामथ्र्य भर सहयोग देते थे और सब कुछ अच्छे से हो, इसे अपनी जिम्मेदारी समझते थे। राष्ट्रपति ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन के जरिये इस सहयोग भाव की चर्चा करके एक तरह से नागरिक के तौर पर हमें हमारे कर्तव्यों की याद दिलाई है। यदि हम सब सहयोग भाव से लैस हो सकें तो बड़े से बड़े काम कहीं अधिक आसानी से पूरे किए जा सकते हैं। नि:संदेह सरकार और उनकी एजेंसियों को भी बदलने-सुधरने की जरूरत है, लेकिन आखिर एक नागरिक के तौर पर हम सबकी भी तो समाज और राष्ट्र के प्रति कोई जिम्मेदारी बनती है। ध्यान रहे कि सामूहिकता की पहली सीढी है-सहयोग के साथ साङोदारी का भाव। यह भाव समाज में संवेदनशीलता के साथ अपनत्व को भी बढ़ावा देता है और यह कोई नई-अनोखी बात नहीं कि जिस समाज में अपनत्व हो वह किसी भी चुनौती का सामना कर सकता है। सामूहिकता समाज को कहीं अधिक आसानी से बदलती है और जब समाज बदलता है तो राष्ट्र अपने आप बदल जाता है। 1आज यदि साफ-सफाई, सबको शिक्षा, अथवा पर्यावरण रक्षा संबंधी या फिर बेटियों की सुरक्षा सरीखे बेहद जरूरी अभियान अपेक्षित गति नहीं पकड़ पा रहे हैं तो इसके लिए किसी न किसी स्तर पर सामूहिकता के भाव का अभाव है। इस अभाव को दूर करने की कोशिश एक बड़ा बदलाव ला सकती है, क्योंकि पहले से कुछ लोग चुपचाप इस तरह के अभियानों को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं। आखिर हम सब इन अभियानों के साथी-सहयोगी क्यों नहीं बन सकते? जब यह देश हम सबका है तो फिर उसे बनाने-संवारने का काम केवल कुछ लोगों का कैसे हो सकता है? यह सवाल नया नहीं है और शायद इसीलिए राष्ट्रपति ने कहा कि सब कुछ सरकारें नहीं कर सकतीं। यह भी नई बात नहीं कि केवल कानून बनाना ही पर्याप्त नहीं। बात तब बनती है जब कानूनों पर सही तरह से अमल होता है। नि:संदेह ऐसा तब होता है जब हर नागरिक कानून के पालन को अपना फर्ज समझता है। इस फर्ज की एक बानगी देश के साथ सारी दुनिया ने तब देखी थी जब नोटबंदी का फैसला हुआ था। इतने बड़े देश में आम लोगों ने इस फैसले का जैसा साथ दिया वह अपने आप में एक मिसाल है। इस मिसाल ने यह बताया कि देश के लोगों में संकल्प का भाव है। ऐसी ही एक और मिसाल जीएसटी पर अमल के दौरान देखने को मिली। यदि आजादी के बाद का सबसे बड़ा कर सुधार इतनी अधिक आसानी से अमल में लाया जा सका तो इसका मतलब है कि लोग बदलाव को स्वीकार करने के प्रति लचीला रवैया रखने लगे हैं। ऐसे रवैये के बाद बस अब जरूरत है बदलाव की गति तेज करने और उसमें भागीदार बनने की। यदि ऐसा हो सके तो नए भारत के निर्माण का जो स्वप्न देखा जा रहा है उसके साकार होने में अधिक समय नहीं लगेगा। भिन्न-भिन्न लोगों के लिए नए भारत का सपना अलग-अलग हो सकता है, लेकिन आखिर कौन ऐसा होगा जो भारत को समरसता और सद्भाव से भरे सशक्त एवं समृद्ध देश के तौर पर न देखता हो? इससे बेहतर और कुछ नहीं कि यह स्वतंत्रता दिवस हम सबमें वह भाव भरे जिससे नया भारत हमारे सपनों के देश के रूप में उभर सके।

[ स्थानीय संपादकीय : दिल्ली ]