आखिरकार अमेरिका तालिबान के साथ समझौता करने में सफल रहा, लेकिन यह उसकी मजबूरी का प्रमाण ही अधिक है और इसीलिए यह कहना कठिन है कि इस समझौते से अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता का रास्ता साफ होने जा रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप सत्ता में आने के बाद से ही इस कोशिश में थे कि वह अमेरिकी सेनाओं को अफगानिस्तान से निकालने के अपने वायदे को पूरा कर सकें। चूंकि वह फिर से राष्ट्रपति चुनाव का सामना करने जा रहे हैं इसलिए तालिबान से समझौते के लिए व्यग्र थे। कतर की राजधानी में अमेरिका और तालिबान के बीच जो समझौता हुआ उसके अनुसार अब तालिबान नेताओं और अफगानिस्तान सरकार के बीच इसे लेकर बातचीत होगी कि सत्ता का संचालन कैसे हो? वास्तव में इस बातचीत के बाद ही यह पता चलेगा कि अफगानिस्तान में तालिबान की क्या और कितनी भूमिका होगी?

यह सही है कि तालिबान भी अमेरिका के साथ समझौते के लिए बेकरार था, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि उसने अपनी उस विचारधारा का परित्याग कर दिया है जिसने अफगानिस्तान को विनाश की ओर धकेला। कतर समझौते के बाद अमेरिका ने जिस तरह यह कहा कि वह अपनी सेनाएं अगले 14 महीने में लौटाएगा और इस दौरान उसकी ओर से इस पर निगाह रखी जाएगी कि तालिबान समझौते की शर्तों को सही तरह पूरा कर रहा है या नहीं उससे यही रेखांकित होता है कि उसे तालिबान नेताओं पर भरोसा नहीं।

चूंकि तालिबान का रुख-रवैया बहुत भरोसा नहीं जगाता और इस संगठन के नेता काबुल में सत्तारूढ़ नेताओं को अहमियत देने से भी इन्कार करते रहे हैं इसलिए अफगानिस्तान की जनता भी उनसे संशकित है। एक अंदेशा यह भी है कि पाकिस्तान अपनी धरती पर फले-फूले और संरक्षण पाए तालिबान का इस्तेमाल अपने संकीर्ण इरादों को पूरा करने के लिए कर सकता है। इस अंदेशे का एक बड़ा कारण यह है कि पाकिस्तान अफगानिस्तान को अपने हिसाब से संचालित होते हुए देखना चाहता है।

यदि पाकिस्तान तालिबान के जरिये अफगानिस्तान में मनमानी करने में सक्षम होता है तो इससे पूरे क्षेत्र के लिए नए सिरे से खतरा पैदा हो सकता है। इससे भारतीय हितों को भी नुकसान पहुंच सकता है। यह अच्छी बात है कि कतर में अमेरिका-तालिबान समझौते के समय भारतीय राजदूत भी मौजूद रहे, लेकिन भारत को भावी घटनाक्रम पर न केवल गहन निगाह रखनी होगी, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना होगा कि अफगानिस्तान में भारतीय हितों के लिए खतरा न पैदा होने पाए। बदले हालात में भारत के लिए तालिबान से संपर्क-संवाद कायम करना कूटनीति का तकाजा है और इसे सावधानी के साथ पूरा करने में हर्ज नहीं।