सुप्रीम कोर्ट ने सक्रियता दिखाते हुए बाल दुष्कर्म की बढ़ती घटनाओं का संज्ञान लेकर बिल्कुल सही किया, लेकिन उसकी कोशिश यह होनी चाहिए कि देश को लज्जित करने वाली इन घटनाओं के प्रति शासन-प्रशासन के साथ समाज भी सचेत और सक्रिय हो। इसमें संदेह है कि केंद्र और राज्य सरकारों को कुछ आदेश-निर्देश देने मात्र से ऐसे किसी माहौल का निर्माण हो सकेगा जो बाल दुष्कर्म की घटनाओं को कम करने में प्रभावी सिद्ध हो सके।

आखिर यह एक तथ्य है कि दुष्कर्म रोधी कानूनों को कठोर बनाने से कोई लाभ नहीं हुआ है। उन कारणों की तह तक जाने की सख्त जरूरत है जिनके चलते निर्भया कांड के बाद दुष्कर्म रोधी कानूनों को कठोर बनाए जाने के वांछित नतीजे हासिल नहीं हो सके हैं। इन कारणों की तह तक जाने का काम खुद सुप्रीम कोर्ट को भी करना होगा, क्योंकि निर्भया कांड के दोषियों को सुनाई गई सजा पर अब तक अमल नहीं हो सका है। कोई नहीं जानता कि देश को दहलाने वाले इस जघन्य कांड के गुनहगारों को फांसी की सजा कब मिलेगी? आखिर जब सुप्रीम कोर्ट ने दो वर्ष पहले फांसी की इस सजा पर मुहर लगा दी थी तो फिर उसे यह देखना चाहिए कि देरी क्यों हो रही है? अगर इस मामले के दोषियों को समय रहते कठोर दंड दे दिया गया होता तो शायद दुष्कर्मियों के मन में भय का संचार होता और आज स्थिति कुछ दूसरी होती। कानूनों को कठोर करने का लाभ तभी है जब उन पर अमल भी किया जाए।

बीते कुछ सालों में विभिन्न राज्यों ने भी बच्चियों से दुष्कर्म के मामले में फांसी की सजा का प्रावधान बनाया है और कुछ मामलों में दोषियों को फांसी की सजा सुनाई भी गई है, लेकिन उस पर अमल का सवाल जस का तस है। आखिर ऐसे कानून किस काम के जिन पर अमल ही न हो? इस सवाल को प्राथमिकता के आधार पर हल किया जाना जरूरी है, क्योंकि अभी तो ऐसा लगता है कि बच्चियों से दुष्कर्म के दोषियों के लिए फांसी की सजा के प्रावधान पर आसानी से अमल होने वाला नहीं है।

आज यह कहना कठिन है कि दुष्कर्मी तत्वों के मन में कठोर सजा का कहीं कोई डर है। शायद इसी कारण दुष्कर्म के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। यह सही है कि इस बात को देखा जाना चाहिए कि कठोर कानूनों का दुरुपयोग न होने पाए, लेकिन इसका भी कोई मतलब नहीं कि उन पर अमल ही न हो। नि:संदेह इस पर भी ध्यान देना होगा कि कठोर कानून एक सीमा तक ही प्रभावी सिद्ध होते हैं। दुष्कर्म और खासकर बालक-बालिकाओं से दुष्कर्म के बढ़ते मामले स्वस्थ समाज की निशानी नहीं। ऐसे मामले यही बताते हैं कि विकृति बढ़ती चली जा रही है। इस विकृति को कठोर कानूनों के जरिये भी रोकने की जरूरत है और पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों के निर्वहन के जरिये भी। बेहतर समाज के निर्माण में घर-परिवार, शिक्षा संस्थानों के साथ ही समाज की भी अहम भूमिका होती है। इस पर विचार करने की जरूरत है कि क्या इस भूमिका का निर्वाह सही तरह किया जा रहा है?