कैमूर की पहाड़ी पर बसा छोटा सा गांव रेहल पूरे बिहार, खासकर नक्सल प्रभावित गांवों के लिए रोल मॉडल बन गया है। यह वही गांव है जहां 16 साल पहले नक्सलियों ने डीएफओ संजय सिंह की हत्या कर दी थी। इस कलंक की वजह से रेहल प्रशासनिक उपेक्षा का शिकार हो गया था। तीन महीने पहले तक यह बिहार के सर्वाधिक पिछड़े और साधनहीन गांवों में शुमार था, पर अब यह सूबे का एकमात्र ऐसा गांव बना गया, जहां तमाम अन्य सुविधाओं के अलावा हर घर में सोलर कुकर पर खाना पकाया जाता है। जाहिर है, यह सूबे का पहला कार्बन न्यूट्रल गांव बन गया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस गांव में चौपाल लगाने पहुंचे तो वहां का बदला हुलिया देखकर अभिभूत हो गए। महज तीन महीने में रेहल के कायाकल्प का श्रेय रोहतास के जिलाधिकारी को जाता है जिन्होंने इस गांव के उद्धार का सपना देखा और इसे साकार कर डाला। वास्तव में रेहल में जो चमत्कार हुआ, वह इस बात का प्रमाण है कि सरकार, प्रशासन और जनता ठान ले तो कुछ भी असंभव नहीं।

बिहार में रेहल जैसे गांवों की कमी नहीं, जहां नक्सलियों के आतंक की वजह से शिक्षा, चिकित्सा और अन्य बुनियादी सुविधाओं का अता-पता नहीं है। बहरहाल, हर जिले को रोहतास जैसा डीएम नहीं मिलता और हर गांव की किस्मत रेहल जैसी नहीं होती। यह पुरानी धारणा है कि नक्सलवाद आपराधिक नहीं, सामाजिक समस्या है। इसका समाधान सामाजिक उपायों से ही संभव है। रेहल ने इस धारणा को सही साबित किया है। अब इस गांव में स्कूल, अस्पताल, पक्की गलियां-नालियां और अन्य सभी सुविधाएं मौजूद हैं। सवाल यह है कि जो काम रोहतास के डीएम ने रेहल में किया, वह काम अन्य नक्सल प्रभावित जिलों के डीएम रेहल जैसे गांवों में क्यों नहीं कर सकते? उम्मीद की जानी चाहिए कि रेहल का उदाहरण सूबे के ऐसे अन्य गांवों के उद्धार की प्रेरणा साबित होगा। जनप्रतिनिधियों को आगे आकर ऐसे गांवों के कायाकल्प की पहल करनी चाहिए। कोई वजह नहीं कि डीएम इसमें रुचि न लें और अगले कुछ सालों में राज्य के तमाम नक्सल प्रभावित गांव रेहल जैसे बन जाएं।

[ स्थानीय संपादकीय: बिहार ]