मोहर्रम के दिन दुर्गा प्रतिमा विसर्जन पर रोक के आदेश को खारिज करते हुए कलकत्ता हाईकोर्ट ने पश्चिम बंगाल सरकार को जिस तरह कड़ी फटकार लगाई उसके बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को अपनी गलती का आभास हो जाए तो बेहतर। उनकी सरकार ने कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर दशहरे को शाम से लेकर अगले पूरे दिन यानी मोहर्रम और एकादशी के अवसर पर प्रतिमा विसर्जन पर रोक लगाकर तुष्टीकरण की राजनीति का परिचय देने का ही काम किया था। चूंकि राज्य सरकार के इस फैसले से एक पक्ष ही प्रभावित होता दिख रहा था इसलिए उसका न केवल विरोध हो रहा था, बल्कि यह सवाल भी उठ रहा था कि क्या ममता बनर्जी के शासन में बंगाल के हिंदू-मुस्लिम आपसी सद्भाव के साथ अपने-अपने त्योहार नहीं मना सकते? यह अच्छा हुआ कि हाईकोर्ट ने प्रतिमा विसर्जन पर लगाई गई रोक को हटाने का अंतरिम आदेश देने के साथ ही राज्य सरकार को यह जरूरी नसीहत भी दी कि वह नियमन और प्रतिबंध के बीच का अंतर समझे। यह समझना कठिन है कि जब पिछले वर्ष भी राज्य सरकार को अपने ऐसे ही फैसले के कारण हाईकोर्ट की फटकार सुननी पड़ी थी तब फिर उसने वैसा ही काम फिर क्यों किया? इससे तो यही लगता है कि ममता बनर्जी येन-केन-प्रकारेण अल्पसंख्यकों का हितैषी दिखने के लिए बेकरार हैैं। ऐसा इसलिए और भी लगता है, क्योंकि उन्होंने अतीत में भी तमाम ऐसे फैसले लिए जिनसे यह संदेश निकला कि उन्हें वर्ग विशेष की ज्यादा चिंता है। जहां उन्होंने अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ अभद्र बयान देने वाले धर्मगुरुओं को संरक्षण देने का काम किया वहीं उनके प्रशासन ने सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं के दौरान पक्षपात भरा रवैया अपनाया। आखिर कोई मालदा और धूलागढ़ की घटनाओं की अनदेखी कैसे कर सकता है?
यह समझना भी कठिन है कि ममता सरकार को यह क्यों लगा कि प्रतिमा विसर्जन से मोहर्रम संबंधी आयोजनों में खलल पड़ सकता है या फिर मोहर्रम के ताजिये प्रतिमा विसर्जन में बाधा बन सकते हैैं? आखिर पश्चिम बंगाल के पुलिस प्रशासन को देश के अन्य हिस्सों की तरह दुर्गा प्रतिमा की शोभा यात्राओं और ताजियाजुलूस के लिए अलग-अलग रूट निर्धारित करने में क्या कठिनाई थी? जहां भिन्न-भिन्न समुदायों की ओर से मिलजुलकर अपने त्योहार मनाने और एक-दूसरे की धार्मिक भावनाओं का आदर करने की एक लंबी परंपरा रही हो वहां उनके बीच विभाजन की लकीर खींचना उचित नहीं। शासकों को केवल निष्पक्ष होना ही नहीं चाहिए, बल्कि ऐसा दिखना भी चाहिए। इससे खराब बात और कोई नहीं कि ममता बनर्जी एक ओर धर्मनिरपेक्षता का झंडा उठाए हुए हैैं और दूसरी ओर उनकी सरकार के एक के बाद एक फैसले तुष्टीकरण की राजनीति को बल देने का काम कर रहे हैैं। उन्हें खुद को सही ठहराने और संविधान की दुहाई देने के बजाय हाईकोर्ट की इस टिप्पणी पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि सरकार हिंदू और मुसलमानों के बीच विभाजन करने से बाज आए। हाईकोर्ट के फैसले के बाद जहां यह जरूरी है कि ममता सरकार नीर-क्षीर ढंग से फैसला लेना सीखे वहीं यह भी आवश्यक है कि आम जनता दशहरा और मोहर्रम इस तरह मनाए कि सारे देश को सद्भाव का संदेश जाए।

[ मुख्य संपादकीय ]