गुजरात विधानसभा चुनाव को लेकर यही प्रश्न सतह पर था कि भाजपा लगातार सातवीं बार जीत हासिल कर रिकार्ड कायम करेगी या नहीं? नतीजों से सिद्ध हुआ कि उसने यह काम शानदार ढंग से कर दिखाया। उसकी सीटों की संख्या 155 के आंकड़े को भी पार कर गई। यह अप्रत्याशित होने के साथ इसका परिचायक भी है कि यदि उसके विरोधी दल एकजुट हो जाते तो भी वे उससे पार नहीं पा सकते थे।

भाजपा की सातवीं बार प्रचंड बहुमत से जीत उसके प्रति जनता के भरोसे को रेखांकित करने के साथ ही यह भी बताती है कि सुशासन के जरिये जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरकर सत्ता विरोधी रुझान को आसानी से मात दी जा सकती है। गुजरात के नतीजे आशा और अनुमान के अनुरूप तो हैं, लेकिन इसकी कल्पना नहीं की जाती थी कि पिछली बार 77 सीटें जीतने वाली कांग्रेस महज 17 सीटों पर सिमट जाएगी।

अपनी इस दुर्गति के लिए कांग्रेस स्वयं के अलावा किसी अन्य को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकती। यह एक पहेली ही है कि कांग्रेस ने पूरे दम-खम से गुजरात चुनाव क्यों नहीं लड़ा और उसके सबसे प्रभावी नेता राहुल गांधी ने वहां केवल दो रैलियां ही संबोधित क्यों कीं? गुजरात चुनाव से ज्यादा भारत जोड़ो यात्रा को प्राथमिकता देना कोई सुविचारित राजनीतिक रणनीति नहीं।

जैसे गुजरात को लेकर यह प्रश्न था कि भाजपा जीत का रिकार्ड बनाएगी या नहीं, वैसे ही हिमाचल को लेकर यह सवाल था कि बारी-बारी से सत्ता परिवर्तन का रिवाज बदलेगा या नहीं? भाजपा ने इस रिवाज को बदलने के लिए पूरा जोर लगाया, लेकिन वह नाकाम रही। हालांकि उसकी हार का अंतर एक प्रतिशत से भी कम है, लेकिन हार तो हार ही होती है। वह इसे टाल सकती थी, यदि उसने टिकट वितरण ढंग से किया होता और सत्ता विरोधी रुझान से निपटने के लिए समय रहते सक्रियता दिखाई होती। उसे इसका आभास होना चाहिए कि कांग्रेस ने सत्ता विरोधी रुझान को बेहतर तरीके से भुनाया।

हिमाचल की जीत कांग्रेस के लिए लिए एक बड़ी राहत है, क्योंकि बीते चार वर्ष में वह पहली बार विधानसभा का कोई चुनाव जीत सकी है। हिमाचल की जीत कांग्रेस को संजीवनी देने वाली है, लेकिन गुजरात की करारी हार राष्ट्रीय स्तर पर उसके उत्थान को लेकर प्रश्नचिह्न लगाती रहेगी। गुजरात और हिमाचल प्रदेश में तीसरे खिलाड़ी के तौर पर आम आदमी पार्टी भी मैदान में थी और अपनी जीत के बड़े-बड़े दावे कर रही थी, लेकिन वैसा कुछ नहीं होना था, जैसा उसकी ओर से कहा जा रहा था। आम आदमी पार्टी को गुजरात में पैर जमाने के साथ राष्ट्रीय दल के रूप में उभरने का अवसर अवश्य मिला, लेकिन उसे समझना होगा कि रेवड़ी राजनीति की अपनी सीमाएं हैं और बिना विचारधारा बहुत दूर तक नहीं जाया जा सकता।