सुप्रीम कोर्ट ने विचाराधीन कैदियों की भारी-भरकम संख्या को लेकर चिंता जताते हुए उनके मामलों का जल्द निपटारा करने के लिए जरूरी कदम उठाने पर बल तो दिया, लेकिन इसमें संदेह है कि केवल ऐसा कहने मात्र से बात बनेगी। जेलों में कैदियों की अमानवीय स्थितियों पर विचार कर रहे सुप्रीम कोर्ट ने यह पाया है कि देश की जेलों में क्षमता से अधिक कैदी होने का एक बड़ा कारण विचाराधीन कैदियों का होना है। एक आंकड़े के अनुसार करीब 67 प्रतिशत कैदी विचाराधीन हैं। विचाराधीन कैदियों का यह प्रतिशत न्याय प्रक्रिया पर भी एक गंभीर सवाल है।

यह वक्त की जरूरत है कि उन विचाराधीन कैदियों को रिहा करने के बारे में कोई ठोस फैसला लिया जाए जो मामूली अपराध में लिप्त होने के आरोप में सलाखों के पीछे हैं। कम से कम उन विचाराधीन कैदियों को तो प्राथमिकता के आधार पर राहत मिलनी ही चाहिए जो उस अवधि को पार कर चुके हैं जो उन्हें सजा मिलने पर जेल में गुजारनी पड़ती। ऐसी ही प्राथमिकता का परिचय उन विचाराधीन कैदियों को राहत देने के मामले में भी किया जाना चाहिए जो जमानत राशि न चुका पाने के कारण जेलों में सड़ रहे हैं। इस मामले में राज्य सरकारों को सक्रियता और संवेदनशीलता दिखाने की जरूरत है। उन राज्यों को तो तत्काल चेतना चाहिए जहां की जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या कुछ ज्यादा ही है। इनमें उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र भी हैं और छत्तीसगढ़ एवं उत्तराखंड भी।

सुप्रीम कोर्ट ने विचाराधीन कैदियों संबंधी समीक्षा समितियों को अगले साल की पहली छमाही तक हर माह बैठक करने को कहा है, लेकिन इन मासिक बैठक करने वालों से यह भी अपेक्षा की जानी चाहिए कि वे विचाराधीन कैदियों को राहत देने वाले उपायों तक पहुंचें। यह संभव है कि सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता के चलते कुछ समय बाद विचाराधीन कैदियों की संख्या में उल्लेखनीय कमी देखने को मिले, लेकिन अगर न्यायिक प्रक्रिया को गति देने के कारगर उपाय नहीं किए गए तो फिर विचाराधीन कैदियों की संख्या फिर से बढ़ सकती है।

यह न्यायिक प्रक्रिया की शिथिलता का ही दुष्परिणाम है कि मौजूदा अथवा पूर्व विधायकों और सांसदों के खिलाफ चार हजार से अधिक मामले चल रहे हैं। इनमें से कई तो दशकों से चल रहे हैं। करीब आधे मामले ऐसे हैं जिनमें आरोप पत्र ही दायर नहीं हो सके हैं। आखिर ऐसे कितने मौजूदा अथवा पूर्व जनप्रतिनिधि हैं जो विचाराधीन कैदी के रूप में जेलों में हैं? अगर उनकी संख्या न्यून है तो क्या इस कारण नहीं कि वे अपने प्रभाव का बेजा इस्तेमाल करने में समर्थ हैं? ध्यान रहे कि इन नेताओं के खिलाफ कई मामले ऐसे हैं जो बेहद संगीन हैं और जिनमें उन्हें आजीवन कारावास की भी सजा हो सकती है।

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने मौजूदा एवं पूर्व जनप्रतिनिधियों के आपराधिक मामले विशेष अदालतों के हवाले करने के जो आदेश दिए थे उस पर अमल शुरू हो गया है, लेकिन इसी के साथ ऐसी व्यवस्था बनाने की भी तो जरूरत है कि हर किसी के मामले का निस्तारण तेज गति से और एक निश्चित समय सीमा में हो-चाहे वह राजा हो या रंक।