राज्य में सरकारी चिकित्सा व्यवस्था की दयनीय हालत की बानगी दिखा रहा है जमशेदपुर का एमजीएम अस्पताल। कोल्हान का यह सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल है। यहां मरीज मुश्किल में हैं। अस्पताल में 33 दवाएं खत्म हो चुकी हैं। अधिकांश जीवनरक्षक श्रेणी की हैं। इमरजेंसी वार्ड में बैंडेज तक नहीं है। ऑपरेशन करने के लिए स्प्रिट तक का इंतजाम मरीजों के परिजनों को खुद करना पड़ रहा है। ऐसी हालत सिर्फ एक एमजीएम मेडिकल अस्पताल की नहीं है, कमोबेश पूरे झारखंड की सरकारी चिकित्सा व्यवस्था इसी र्ढे पर है। कहीं दवा नहीं है तो कहीं बेड की कमी है। कहीं डॉक्टर-नर्स का टोटा है तो कहीं दूसरी ढांचागत कमियां हैं। स्वाभाविक रूप से मार मरीजों पर पड़ रही है। खासकर उनपर जो सरकारी व्यवस्था पर निर्भर रहने को विवश हैं। सोचनेवाली बात यह है कि जब एमजीएम जैसे बड़े सरकारी अस्पताल का यह हाल है तो पंचायत या प्रखंड स्तर के स्वास्थ्य केंद्रों की क्या स्थिति होगी। अहम सवाल यह है कि सरकारी चिकित्सा व्यवस्था के साथ दिक्कत क्या है और उन दिक्कतों का समाधान कैसे होगा। क्या चिकित्सकों की किल्लत ङोल रहे झारखंड में इस बीमारी का इलाज नहीं है? कब तक अपने प्रांत की सरकारी चिकित्सा व्यवस्था दवाओं की कमी, कालाबाजारी, सही तरीके इस्तेमाल नहीं किए जाने से उपकरणों के बर्बाद हो जाने, प्रबंधकीय अकुशलता, डॉक्टरों समेत अन्य कर्मचारियों की बेरुखी जैसी खबरों से सुर्खियां बटोरती रहेगी।

बेशक, स्थिति भयावह है लेकिन उम्मीद अभी खत्म नहीं हुई है। व्यवस्था के शीर्ष पर सूबे को विकसित राज्य बनाने की गंभीर छटपटाहट है और इसके लिए हर जतन किए जाने की कवायद भी दिख रही है। आवश्यकता इस बात की है कि ऊपर से नीचे की ओर सरकारी तंत्र की संवेदनहीनता दूर की जाए। समस्या की जड़ में यह सरकारी संवेदनहीनता ही है। हर स्तर पर जिम्मेदारी व जवाबदेही तय हो। पूरे साल के लिए एक मुकम्मल अग्रिम प्लान बनाया जाए और उसके अनुपालन की ठोस व्यवस्था भी हो। बजट में हर चीज के लिए रकम का प्रावधान हो और दवाओं समेत अन्य सामान की खरीदारी की एक ऐसी पारदर्शी व्यवस्था बने जो समय से आपूर्ति सुनिश्चित करे। व्यवस्था के किसी भी तरह से बेपटरी होने की स्थिति में जिम्मेदार लोगों पर दंडात्मक कार्रवाई भी करनी होगी। तभी सरकारी चिकित्सा की घुप अंधेरी व्यवस्था में उजाले की आस की जा सकेगी और मरीज मुश्किल से उबर सकेंगे।

[ स्थानीय संपादकीय: झारखंड ]