जीवन बचाने वालों की वजह से ही अगर किसी की जान चली जाए तो इसे क्या कहें? लुधियाना में सोमवार को डाक्टरों की हड़ताल की वजह से एक मरीज को उपचार नहीं मिला और उसकी मौत हो गई, गर्भ में पल रहे बच्चे की मौत होने पर महिला तड़पती रही और एक बच्ची के गले में फंसे सिक्के को निकालने के लिए उसकी मां भटकती रही। यह तो कुछ मामले हैं जो एकदम सिहरन पैदा कर देते हैं। न जाने कितने मरीजों व उनके तीमारदारों को सिविल अस्पताल में बुरा वक्त काटना पड़ा। विवाद इमरजेंसी में भाजपा नेता और डाक्टर के बीच मेडिको लीगल रिपोर्ट (एमएलआर) काटने को लेकर हुआ जो कि इतना बढ़ गया कि डाक्टरों ने यह ठान ली कि जब तक भाजपा नेता माफी नहीं मांगते या उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की जाती तब तक वे काम नहीं करेंगे। मुद्दा यह नहीं है कि विवाद जिस बात को लेकर हुआ उसमें कौन सही था और कौन गलत लेकिन जो तरीका डाक्टरों ने अपनाया वह कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। डाक्टरों, शिक्षकों को समाज में बेहद सम्मानजनक दर्जा दिया जाता है। दिया जाना भी चाहिए। लेकिन जब इस तरह के कठोर निर्णय डाक्टर लेने लगें तो पूरे समाज के लिए चिंता का विषय है। इस घटना के दो पहलू हैं और दोनों पर गौर करना लाजिमी है। पहला तो यह कि डाक्टरों के कामकाज में क्या इस तरह सियासी हस्तक्षेप होना चाहिए? दूसरा यह कि अगर ऐसी स्थिति उत्पन्न होती भी है तो क्या डाक्टरों या मेडिकल पेशे से जुड़े अन्य कर्मचारियों को ऐसा कठोर निर्णय लेना चाहिए जिससे लोगों की जान पर बन आए? दोनों स्थितियां गलत हैं। जनप्रतिनिधि होने के नाते अगर कोई नेता लोकहित में कोई विसंगति या समस्या उठाता है, उसे दुरुस्त करने को कहता है तो उसे संयम से सुनना और अमल करना चाहिए। यह भी सच है कि सरकारी अस्पतालों में कई बार मामलों को बहुत सरकारी ही तरीके से लिया जाता है। कई बार सरकारी व व्यवस्थागत औपचारिकताओं में समय बर्बाद होने के कारण गंभीर मरीजों को समय पर उपचार नहीं मिल पाता। लोगों का गुस्सा तभी फूटता है। दूसरी ओर अस्पताल में आने वालों को भी डाक्टरों व अन्य कर्मियों की पेशेगत मजबूरियों व नियमों को समझना होगा, थोड़ा संयम रखना होगा। उन लोगों को भी सचेत होना चाहिए जो सियासी लाभ के लिए ऐसे संवेदनशील मामलों को तूल देते हैं। कुछ भी हो, अस्पतालों में हड़ताल की नौबत कदापि नहीं आनी चाहिए।

[ स्थानीय संपादकीय: पंजाब ]