कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के पहले नेतृत्व के सवाल पर खींचतान तेज होना यही बताता है कि पार्टी यह तय नहीं कर पा रही है कि उसे क्या करने की जरूरत है और उसकी पूर्ति कैसे होगी? एक ओर कांग्रेस के करीब दो दर्जन नेता पूर्णकालिक अध्यक्ष की जरूरत जता रहे हैं और दूसरी ओर अन्य नेता इस पर जोर दे रहे हैं कि अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी का विकल्प राहुल गांधी ही हो सकते हैं। इस खेमेबाजी के बीच यह प्रतीति भी कराई जा रही है कि सोनिया गांधी पार्टी को नया अध्यक्ष चुनने को कह रही हैं। इस पर यकीन करना इसलिए कठिन है, क्योंकि कम से कम उन्हें तो इससे अवगत होना चाहिए था कि बतौर अंतरिम अध्यक्ष उनका एक साल का कार्यकाल पूरा हो चुका है।

क्या यह बेहतर नहीं होता कि अंतरिम अध्यक्ष के रूप में अपना कार्यकाल पूरा होने के पहले ही वह नया अध्यक्ष चुनने की प्रक्रिया शुरू करतीं? यदि ऐसी कोई पहल नहीं हुई तो इसका यही मतलब निकलता है कि यथास्थिति बनाए रखने को बेहतर समझा जा रहा या फिर उस समय की प्रतीक्षा की जा रही है जब कांग्रेसी नेता एक स्वर से यह कहने लगें कि राहुल गांधी को फिर से कांग्रेस की कमान सौंपी जाए।

क्या यह संभव है कि सोनिया गांधी चाहें और फिर भी पार्टी नया अध्यक्ष चुनने में दिलचस्पी न दिखाए? आखिर इस नतीजे पर क्यों न पहुंचा जाए कि कांग्रेस का एक खेमा यथास्थिति बनाए रखने के पक्ष में है और दूसरा, राहुल गांधी को फिर से अध्यक्ष पद पर बैठाने में? कांग्रेस का एक समूह राहुल को अध्यक्ष बनाने की मांग कर भी रहा है, लेकिन समस्या यह है कि सभी नेता इस मांग के प्रति उत्साह नहीं दिखा रहे हैं। कोई नहीं जानता कि राहुल गांधी क्या चाहते हैं, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि वह पार्टी को संचालित भी कर रहे हैं और बड़े फैसले भी ले रहे हैं।

कांग्रेस में नेतृत्व का सवाल चाहे जैसे हल हो, लेकिन सच यही है कि होगा वही जो गांधी परिवार चाहेगा। शायद इसी कारण प्रियंका गांधी की इस बात को खारिज करने में देर नहीं की गई कि परिवार से बाहर का कोई अध्यक्ष बने। भले ही कांग्रेस यह साबित करना चाहे कि वह पार्टी नेताओं की इच्छा के अनुरूप नेतृत्व का फैसला करने को तैयार है, लेकिन वास्तविकता यही है कि गांधी परिवार अपनी इच्छा पार्टी पर थोपने की राह तलाश रहा है। कांग्रेस का मौजूदा संकट वस्तुत: गांधी परिवार का संकट है। परिवार के असमंजस से उपजे इस संकट ने ही पार्टी को दो खेमों में बांट दिया है।