[ शंकर शरण ]: अजीब बात है कि कोरोना वायरस के कम फैलाव के बावजूद पश्चिमी मीडिया में भारत के प्रति नकारात्मक टिप्पणियां ही आ रही हैं, जबकि यूरोप की तुलना में हमारे यहां विशाल आबादी है और चिकित्सा संसाधनों की कमी है। लगता है उनके द्वारा भारत के प्रति नकारात्मक विचार रखना एक आदत सी बन गई है, जबकि यहां से दुनिया में कोई रोग नहीं फैला। प्रसिद्ध अमेरिकी विद्वान और आयुर्वेदाचार्य पंडित वामदेव शास्त्री (डेविड फ्राउले) कहते हैं कि भारत ने विश्व को योग, वेदांत, आयुर्वेद और र्अंहसा जैसे विचार दिए हैं, न कि स्वार्थ, बाजारवाद, कट्टर रिलीजन या आतंकवाद। योग-वेदांत आधारित जीवन-पद्धति ही विश्व के लिए मूल्यवान है।

योग-आयुर्वेद रोग उपचार से अधिक निरोग बने रहने पर आधारित हैं

विविध रोगों, समस्याओं के निदान में हिंदू ज्ञान परंपरा आज भी अत्यधिक लाभकारी है। यह परंपरा जीवन मात्र और आध्यात्मिकता का भी सम्मान करती है। दूसरी परंपराएं केवल मानव या उससे भी संकीर्ण मात्र अपने मतवादियों तक केंद्रित और भौतिकवादी हैं। इसीलिए वन-पर्यावरण, अन्य जीव-जंतुओं के प्रति बर्बर रही हैं। उसी से विश्व में अनेक समस्याएं पैदा हुईं। उनके समाधान में भारतीय दर्शन और जीवन-पद्धति सर्वाधिक सहायक हैं। योग-आयुर्वेद रोग उपचार से अधिक निरोग बने रहने पर आधारित हैं। इसमें शरीर, मन और चेतना को समग्रता में देखा गया है। यह ज्ञान सार्वभौमिक मूल्यवान है। उदाहरण के रूप में आयुर्वेद ने तांबे के पात्र में, हो सके तो तुलसीदल के साथ, रात भर रखा पानी नित्य प्रात: पीने की अनुशंसा की है। यह रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का अच्छा उपाय है।

भारतीय गाय का दूध, गोबर, गोमूत्र गुणकारी है

भारतीय खान-पान भी भोगवादी नहीं, बल्कि यम-नियम के अधीन रहा है। पश्चिम जिन्हें भारतीय मसाले कहता है, उनमें अधिकांश जड़ी-बूटी हैं। उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण हल्दी है। इसमें ऑक्सीजन वर्धक, कैंसर-रोधक, वातरोग-रोधक गुण होते हैं। यह श्वसन एवं पाचन समस्याओं और रोग-रोधन क्षमता बढ़ाने में भी उपयोगी है। इसीलिए यह अब विश्व भर में प्राकृतिक खाद्य भंडारों में मिलता है। भारत के गोवंश की भी अनूठी विशेषता है। भारतीय गाय का दूध, गोबर, गोमूत्र तक गुणकारी हैं। इनका उपयोग चरक और सुश्रुत की प्राचीन वैज्ञानिक आयुर्वेद संहिताओं तक में मिलता है।

भारतीय नस्ल के गोवंश भूमध्य सागर तक पाए गए

पुरातत्ववेत्ताओं ने भारतीय नस्ल के गोवंश को भूमध्य सागर तक पाया है। यह प्राचीन भारतीय लोगों का पश्चिम की ओर सांस्कृतिक प्रभाव भी दर्शाता और आर्य आक्रमण सिद्धांत भी खंडित करता है। भारतीय अभिवादन ‘नमस्ते’ के प्रयोग को भी अब विश्वव्यापी स्वीकृति मिल रही है। यह चीन, जापान, कोरिया आदि एशियाई देशों में पहले से प्रचलित है। इस अभिवादन में प्रत्येक व्यक्ति में निहित परमात्मा का आदर है, जिसे आत्म से जोड़ने की भावना भी भारतीय ज्ञान परंपरा है।

हमें अपने योग और पारंपरिक चिकित्सा पर नए सिरे से ध्यान देना चाहिए

दूसरे देशों में बार-बार उभरते नए रोगों के मद्देनजर हमें अपने योग और पारंपरिक चिकित्सा पर नए सिरे से ध्यान देना चाहिए। योग-आयुर्वेद हमें प्रकृति एवं संपूर्ण जगत के साथ सामंजस्य से रहना सिखाते हैं। भौतिक उपलब्धियों के बदले सात्विक जीवन, यम, नियम, स्थिर चित्त, इंद्रियों के सदुपयोग एवं आत्मानुभूति पर अधिक बल देते हैं। इन सब व्यवहारों की संपूर्णता को ही यहां धर्म-पालन कहा गया है।

भारतीय धर्म की सही संज्ञा ज्ञान-पद्धति है, न कि पश्चिमी अर्थ में फेथ या रिलीजन

भारतीय धर्म की सही संज्ञा ज्ञान-पद्धति है, न कि पश्चिमी अर्थ में फेथ या रिलीजन। फेथ अच्छा, बुरा, सात्विक, राजसिक या तामसिक, कुछ भी हो सकता है। यह फेथ भारतीय अर्थ वाला धर्म नहीं है। हमारे पूर्वजों ने सत्य के सार्वभौमिक नियमों को धर्म कहा है। जिनका अनुभव ध्यान द्वारा सभी कर सकते हैं। जबकि फेथ प्राय: मतवादी और राजनीतिक रहे हैं। भारतीय परंपराओं की जड़ें न केवल मानव समाज, वरन पृथ्वी और ग्रहमंडल में भी हैं। इसीलिए हम जीवन मात्र को अखंड और सचेतन रूप में देखते हैं। कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धांत भी जीवन मात्र की एकता, अंतर्निर्भरता दर्शाते हैं।

हिंदू परंपरा सार्वभौमिक ‘माता’ की पूजा करती है

हिंदू परंपरा सार्वभौमिक ‘माता’ की पूजा करती है। जिससे सभी जन्म लेते, पोषण पाते और अंतत: उसी में मिल जाते हैं। मनुष्य का संपूर्ण ब्रह्मांड से जुड़ाव भारतीय दर्शन और जीवन-पद्धति का आधार रहा है। पश्चिमी विज्ञान अब जाकर इसे धीरे-धीरे समझ रहा है। भारतीय जीवन-पद्धति के ही प्रतीक हिंदू मंदिर भी हैं। हमें मंदिरों को मूल भावना में अपने अंदर और परिवेश में पुन: जीवंत बनाना चाहिए। यह विश्व के घाव भरने के लिए भी उपयोगी है। भारतीय सभ्यता ध्यान और अंतर्चिंतन द्वारा संपूर्ण ब्रह्मांड को पाने पर आधारित थी। वह योग संस्कृति आज और भी प्रासंगिक, आवश्यक है।

भारत ही विश्व में एकमात्र सतत सभ्यता है, यूरोप, अरब जैसी कई पुरानी सभ्यताएं नष्ट हो गईं

याद रहे तमाम बाहरी हमले झेलकर भी भारत ही विश्व में एकमात्र सतत सभ्यता है। यूरोप, अरब जैसी कई पुरानी सभ्यताएं नष्ट हो गईं। हमारे सातत्य का मुख्य कारण भारत का धर्म और ज्ञान-परंपरा है। वेद, रामायण, महाभारत, पुराण और योग की महान शिक्षाओं ने ही इस सभ्यता को चुनौतियों के बीच पांच हजार वर्षों से भी अधिक समय से जीवंत रखा है। ऋषियों और योगियों के दिए मंत्रों ने शाश्वत अनंत से हमारा संबंध बनाए रखा है। यह हमारी जीवंतता का मूल स्त्रोत है।

विश्व की सभी परंपराओं में सबसे प्राचीन होते हुए भी हिंदू धर्म को ही सबसे कम समझा गया

यह आश्चर्य की बात है कि विश्व की सभी परंपराओं में सबसे प्राचीन, सत्यनिष्ठ और विविधता-परक होते हुए भी हिंदू धर्म को ही सबसे कम समझा गया। यही नहीं, इसे ही सर्वाधिक लांछित किया गया। आज पश्चिमी मीडिया में भारत के प्रति उलटी भावनाओं का स्त्रोत मुख्यत: यहीं के प्रभावशाली बौद्धिक वर्ग का हिंदू-विरोधी रुख है। ये लोग ही प्राय: योग, ध्यान और आयुर्वेद के विरुद्ध छींटाकशी करते रहे हैं। यहां के लिबरल जड़मति हैं। उनमें विवेक, ऊंची दृष्टि या आंतरिक चेतना नहीं है। वे अपनी राजनीतिक झक में प्रत्येक हिंदू विशिष्टता को नकारने या नीचा दिखाने की प्रवृत्ति रखते हैं। इसीलिए वे डेविड फ्राउले जैसे विदेशी मनीषियों द्वारा विश्व में हिंदू धर्म, योग और आयुर्वेद के प्रसार से भी नाखुश रहते हैं। इस प्रकार हमारी अपनी आधुनिक कुशिक्षा ही हमें बाहर भी लज्जित करती है। हमारे प्रभावी बौद्धिक उसी के प्रतीक और माध्यम हैं। 

बच्चों, युवाओं को हिंदू धर्म-संस्कृति की समुचित शिक्षा देना आवश्यक

हमें अपनी ज्ञान-परंपरा और धर्म-संस्कृति से विमुख करने की कोशिशों का लंबा इतिहास है। औपनिवेशिक काल से आज के वामपंथी पत्रकारों और मीडिया तक। इसलिए हमारे बच्चों, युवाओं को हिंदू धर्म-संस्कृति की समुचित शिक्षा देना आवश्यक है। यही विश्व के हित में भी है।

( लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर हैं )