डॉ. मोनिका शर्मा। Work From Home हमारा सामाजिक-पारिवारिक ढांचा ही ऐसा है कि आपदा के दौर में आधी आबादी की मुश्किलें और बढ़ जाती हैं। हाल ही में आए ऑनलाइन प्रोफेशनल नेटवर्क लिंक्डइन के ‘श्रमबल विश्वास सूचकांक’ के मुताबिक हमारे यहां इस महामारी की वजह से करीब 50 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं अधिक दबाव महसूस कर रही हैं। लिंक्डइन के सर्वे के अनुसार घर से काम यानी वर्क फ्रॉम होम की वजह से कामकाजी माताओं की दिक्कतें बढ़ी हैं। दरअसल वर्क फ्रॉम होम और वर्क फॉर होम का मेल कामकाजी महिलाओं की व्यस्तता ही नहीं बढ़ा रहा, बल्कि मानसिक तनाव का कारण भी बन रहा है।

हमारे यहां आज भी कामकाजी महिलाओं को घरेलू दायित्वों में कोई छूट नहीं है। साथ ही कोरोना संक्रमण के कारण इन दिनों घरेलू सहायक-सहायिकाओं की मदद भी नहीं मिल पा रही है। हमारे पारिवारिक माहौल में बच्चों की देखभाल और घरेलू कामकाज के मामले में औरतों को परिवार के अन्य सदस्यों की मदद भी कम ही मिलती है। नई पीढ़ी की परवरिश के मोर्चे पर तो सबसे ज्यादा भागीदारी माताओं की ही रहती है। ऑनलाइन स्कूलिंग के चलते बच्चों की जिंदगी भी इन दिनों घर तक ही सिमट गई। ऐसे में उनकी देखभाल और शिक्षा से जुड़े कई पहलुओं पर पहले से ज्यादा ध्यान और समय देना जरूरी हो गया है। सर्वे में 42 प्रतिशत महिलाओं ने कहा भी है कि बच्चों के घर पर होने की वजह से ऑफिस का काम करते हुए उनका ध्यान भटकता है। पांच में से सिर्फ एक यानी 20 फीसद महिलाएं ही अपने बच्चों की देखभाल के लिए परिवार के सदस्यों या मित्रों पर निर्भर हैं।

चिंतनीय है कि घरेलू दायित्वों और और पेशेवर जिम्मेदारियों को साथ-साथ संभालते हुए घर की चाहरदीवारी तक सिमटी महिलाएं कई तरह की भावनात्मक उलझनों का भी शिकार हो रही हैं। पूरी तरह बदली उनकी दिनचर्या में शारीरिक- मानसिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर भी बदलाव देखने को मिल रहा है। सामान्य दिनों में कामकाजी महिलाओं का लंबा समय दफ्तर में गुजरता था। नौकरीपेशा महिलाओं को घर के काम के लिए मिली घरेलू सहायिकाओं की मदद ने उनकी जिंदगी को सहज बना रखा था, पर अब वर्क फ्रॉम होम करते हुए घर के कामकाज भी संभाल रहीं महिलाओं को स्वतंत्रता और सहायता नहीं मिल पा रही हैं। घर के कामों की कभी खत्म न होने वाली फेहरिस्त और दफ्तर की जिम्मेदारियों को तयशुदा समय में निपटाने का दबाव उनके लिए दोहरा बोझ साबित हो रहा है। दोहरी जिम्मेदारी के चलते कई काम एक साथ संभाल रहीं कामकाजी महिलाएं मानसिक और शारीरिक थकान का भी शिकार हो रही हैं।

विचारणीय है कि हमारे देश और परिवेश में सामाजिक- पारिवारिक जिम्मेदारियों से गहराई से जुड़ी महिलाओं को बच्चों-बुजुर्गों की देखभाल के मोर्चे पर कोई कमी रह जाने पर अपराधबोध का भाव भी घेर लेता है, जिसके चलते उपजे तनाव और अवसाद उनमें चिड़चिड़ापन, झुंझलाहट, बैचेनी, क्रोध और थकान जैसी समस्याएं पैदा करते हैं। गौरतलब है कि हमारे यहां पहले से ही कामकाजी महिलाओं में अवसाद के मामले ज्यादा थे। एक अध्ययन के मुताबिकदिन में नौ से अधिक घंटे काम करना महिलाओं को अवसाद के उच्च जोखिम में डाल सकता है। जो महिलाएं एक हफ्ते में 55 घंटे से ज्यादा काम करती हैं, उनमें अवसाद का खतरा ज्यादा बढ़ जाता है, जबकि एक हफ्ते में 35-40 घंटे काम करने वाली महिलाएं ज्यादा स्वस्थ और तनाव मुक्त रहती हैं। ऐसे में उन कामकाजी महिलाओं की स्थिति आसानी से समझी जा सकती है, जो इन दिनों दफ्तर का काम ही नहीं कर रहीं, बल्कि घर-गृहस्थी और मातृत्व की पूर्णकालिक जिम्मेदारी भी उठा रही हैं।

ऐसे में इस संकटकालीन दौर में परिवारजनों को ही एक-दूसरे की जद्दोजहद आसान करने की पहल करनी होगी। आमतौर पर देखने में आता है कि घर के दूसरे सदस्यों का जीवन सहज और सुविधाजनक बनाने वाली महिलाओं को अपनों की सहायता कम ही मिल पाती है, जबकि कोरोना काल में दोहरी जिम्मेदारियों से जूझ रही महिलाओं के लिए भी सहयोगी पारिवारिक माहौल कई मुश्किलें आसान कर सकता है। जरूरी है कि घरेलू कामकाज में मदद करने के साथ ही परिवार जन व्यावहारिक रूप से भी उनकी उलझनों को समझें। भावनात्मक मोर्चे पर भी उनका संबल बनें, क्योंकि समाज हो या परिवार आपदाओं से मिलकर ही निपटा जा सकता है।

[सामाजिक मामलों की जानकार]