[ अवधेश कुमार ]: महाराष्ट्र में अप्रत्याशित राजनीतिक घटनाक्रम की किसी ने कल्पना नहीं की थी। शनिवार सुबह भाजपा के देवेंद्र फड़नवीस ने आनन-फानन में मुख्यमंत्री और राकांपा के अजीत पवार ने उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। हालांकि इस सरकार के स्थायित्व को लेकर तमाम किंतु-परंतु हैं, लेकिन राज्य में एक गठबंधन को मिले स्पष्ट जनादेश के बावजूद ऐसे हालात बनाने की इकलौती जिम्मेदार शिवसेना है। भारतीय राजनीति में सरकार बनाने और गिराने की तमाम मिसालें हैं, लेकिन महाराष्ट्र का मामला कुछ अलग है। यहां संभवत: पहली बार ऐसा देखने को मिला कि बहुमत मिलने के बाद भी गठबंधन सरकार नहीं बनी। यदि शिवसेना ने मुख्यमंत्री पद को लेकर हठधर्मिता न दिखाई होती तो सब कुछ सहज तरीके से हो सकता था। शिवसेना के अड़ियल रवैये का भाजपा द्वारा जवाब देना स्वाभाविक ही था।

भाजपा ने सरकार बनाकर शिवसेना को दी सियासी पटखनी

उसने शब्दों के बजाय शिवसेना द्वारा सरकार बनाने का दावा करने की तैयारी से पहले ही अपनी सरकार बनाकर सियासी पटखनी के रूप में जवाब दे दिया। इसके बाद राकांपा मुखिया शरद पवार अपनी प्रेस कांफ्रेंस में कोई ठोस बात नहीं कर पाए। उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि यह सब मेरी जानकारी के बिना हुआ। उन्होंने यह भी कहा कि फड़नवीस सरकार विधानसभा में बहुमत नहीं हासिल कर पाएगी। फड़नवीस सरकार की नियति क्या होगी, यह प्रश्न तो भविष्य के गर्भ में छिपा है, लेकिन आम मतदाता के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि स्पष्ट जनादेश के बावजूद हालात इस स्थिति में कैसे पहुंचे? भाजपा-शिवसेना ने जब चुनाव साथ मिलकर लड़ा था तो उन्हें सरकार भी बनानी चाहिए थी, मगर चुनाव नतीजे आने के बाद शिवसेना के तेवर बदल गए। उसने ढाई-ढाई साल मुख्यमंत्री की मांग रख दी। उसने यहां तक दावा किया कि चुनाव से पहले भाजपा ने इसका वादा किया था, जबकि भाजपा नेतृत्व ने इसे खारिज किया।

शरद पवार ने बार-बार दोहराया- मुझे विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला

चुनाव नतीजों के बाद शरद पवार ने बार-बार यही दोहराया कि उन्हें विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला है। यहां तक कि शिवसेना के बदलते सुरों के बीच भी उन्होंने शुरुआत में उसे कोई स्पष्ट आश्वासन नहीं दिया। बाद में उन्होंने उसे राजग से रिश्ता तोड़ने के लिए उकसाया। परिणामस्वरूप राजग सरकार में शिवसेना के एकमात्र केंद्रीय मंत्री अरविंद सावंत ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।

राकांपा और कांग्रेस के साथ रहने को मजबूर थी शिवसेना

पवार की इस रणनीति के बाद शिवसेना के पास भाजपा की ओर लौटने का विकल्प नहीं बचा। वह राकांपा और कांग्रेस के साथ रहने को मजबूर थी। पवार ने इस पर कई दिनों तक पत्ते नहीं खोले। तीनों पार्टियों के बीच वार्ता चलती रही। उसमें से छन-छनकर ऐसी खबरें आती रहीं कि न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर सहमति बन गई है।

सरकार गठन में देरी की वजह कांग्रेस को शिवसेना के साथ जाने में हिचक थी

सवाल है कि इस सबके बावजूद सरकार गठन में देरी क्यों हुई? इसका जवाब यही है कि कांग्रेस को शिवसेना के साथ जाने में हिचक थी। कांग्रेस में इस पर आम सहमति नहीं थी कि उन्हें एक हिंदूवादी पार्टी के साथ गठबंधन करना चाहिए। बाद में पार्टी तैयार हुई तो उसके पीछे एक कारण यह था कि उसके कुछ विधायक सरकार बनाना चाहते थे और दूसरा यह कि राकांपा के साथ गठबंधन बनाए रखना था। इससे भाजपा को सत्ता से बाहर रखने का लक्ष्य भी हासिल होता दिख रहा था, लेकिन ताजा घटनाक्रम से साफ है कि पवार भले ही शिवसेना के साथ बातचीत कर रहे हों, लेकिन उनकी पार्टी में इसे लेकर असंतोष था। ऐसा नहीं होता तो अजीत पवार को विद्रोह करने का आधार नहीं मिलता।

लंबी खींचतान से अजीत पवार नाखुश थे

सामान्यत: कोई यह मानने को तैयार नहीं कि शरद पवार की सहमति के बिना अजीत पवार ने सीधे विद्रोह कर दिया। माना जाता है कि लंबी खींचतान से अजीत पवार नाखुश थे और उन्होंने शरद पवार से अपनी मंशा भी व्यक्त की थी। चूंकि राजनीति का उनका भी अपना अनुभव है इसलिए वह बिना आधार के इतना बड़ा जोखिम नहीं उठा सकते थे। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि सारा खेल कुछ घंटों में हो गया होगा। निश्चय ही एक समानांतर बातचीत भाजपा और राकांपा नेताओं के बीच चल रही थी। उसी की परिणति है शनिवार को हुआ शपथ ग्रहण।

इस प्रकरण से शिवसेना और शरद पवार को सबसे ज्यादा हुआ नुकसान

इस पूरे प्रकरण से किसे सबसे ज्यादा नुकसान हुआ? इस सवाल के जवाब में शिवसेना और शरद पवार के नाम उभरते हैं। शिवसेना के लिए अपने समर्थकों को यह समझा पाना हमेशा कठिन होगा कि वह कांग्रेस पार्टी के साथ जाने को क्यों तैयार हुई? शिवसेना के अंदर भाजपा का साथ छोड़ने को लेकर व्यापक मतभेद था, लेकिन उद्धव ठाकरे ऐसे लोगों से घिरे हैं जो उनको गलत सलाह देते रहे।

आदित्य ठाकरे को सीएम बनाने की मृगतृष्णा में उद्धव ठाकरे उलझ गए

आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने की मृगतृष्णा पेश की गई जिसमें उद्धव ठाकरे उलझ गए। अब अगर फड़नवीस सरकार बहुमत पा लेती है तो शिवसेना के पास क्या विकल्प रहेगा? उसके कुछ नेता यह प्रश्न तो उठाएंगे ही कि जब हमें बहुमत मिला था तो हम विपक्ष में क्यों है? संजय राउत सबके निशाने पर होंगे। संभव है शिवसेना आगे टूट जाए।

पवार के सामने साख, पार्टी और परिवार बचाने की चुनौती

इसी तरह पवार के सामने साख, पार्टी और अपना परिवार तीनों को बचाने की चुनौती पैदा हो गई है। उनको यह साबित करना है कि अजीत पवार के भाजपा के साथ जाने में उनकी कोई भूमिका नहीं है। अगर शरद पवार संजय राउत को प्रोत्साहित नहीं करते तो शायद वह विचित्र स्थिति पैदा नहीं होती जो पैदा हुई और जिसे देखकर सब हैरान हैैं। महाराष्ट्र में जो कुछ हो रहा है और आगे जो होगा उसके लिए उद्धव ठाकरे संग शरद पवार सबसे अधिक जिम्मेदार माने जाएंगे। राजनीतिक रूप से शिवसेना को बहुत बड़ी क्षति हो रही है।

शिवसेना ने किया जनादेश का अपमान

शिवसेना ने जनादेश का अपमान किया। आगे वह स्वयं को हिंदुत्व की पार्टी कैसे कह पाएगी, यह प्रश्न शिवसेना के नेताओं के साथ खड़ा होगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि उसकी विश्वसनीयता, साख और उसका नैतिक बल कमजोर हुआ है। इसी के साथ भाजपा और राकांपा के एक धड़े के गठबंधन को भी नैतिक नहीं माना जा सकता, लेकिन जो परिस्थितियां उत्पन्न हो गई थीं उनमें भाजपा को भी अपना राजनीतिक कौशल दिखाना था। उसने दिखा दिया। यह बात और है कि उसके लिए सरकार चलाना आसान नहीं होगा। सरकार चलाने से पहले उसे बहुमत साबित करने की चुनौती का सामना करना होगा।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैैं )