[शंकर शरण]। स्वतंत्रता मिलने पर भारतीय नेतागण दुविधा में थे कि देश की राष्ट्रभाषा किसे बनाएं। यह जानकर तबके अनेक विदेशी विद्वान और राजदूत चकित थे कि संस्कृत जिस देश की महान थाती है वहां राष्ट्रभाषा की खोज का क्या मतलब? आज देश में भाषा, संस्कृति और शिक्षा की जो स्थिति है वह देखते हुए लगता है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने सचमुच बड़ी भूल की। डॉ. आंबेडकर और कई नेताओं ने संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रयत्न किया था, क्योंकि संस्कृत को सदैव संपूर्ण भारतवर्ष की भाषा जाना जाता था। जवाहरलाल नेहरू जैसे पश्चिमप्रेमी भी मानते थे कि भारत की सबसे गौरवशाली विरासत संस्कृत भाषा और उसमें उपलब्ध महान साहित्य है परंतु दुर्योगवश केवल एक वोट से संस्कृत राष्ट्रभाषा बनने से रह गई।

स्वयं आंबेडकर के कुछ अनुयायियों ने संस्कृत का विरोध किया था। उन्हें अपनी भूल का अहसास तब हुआ जब हिंदी के विरुद्ध दूसरी भारतीय भाषाओं को उभारने की राजनीति सरलता से सफल हो गई। इससे अंग्रेजी को स्थाई रूप से पांव जमाने-पसारने का उपाय हो गया। उसी का दुष्परिणाम है कि आज सभी भारतीय भाषाएं, स्वदेशी ज्ञान और साहित्य हमारी नई पीढ़ियों से छूटता जा रहा है। आज भी देश के कोने-कोने में संस्कृत के प्रति प्रेम और श्रद्धा है। लोग जानते हैं कि भारत की प्रतिष्ठा संस्कृत से ही रही है। भाषा और संस्कृति के अभिन्न संबंध को न समझ पाने और क्षुद्र स्वार्थों की राजनीति प्रबल हो जाने से स्वतंत्र भारत में भारतीय भाषाओं की वह दुर्गति हो रही है जो विदेशी शासनों में भी नहीं हुई।

हम अपनी भाषाओं के ‘दिवस’ तो मनाते हैं, मगर वे औपचारिकता भर हैं। 1969 से सरकार ने देश में श्रावण पूर्णिमा को ‘संस्कृत दिवस’ भी मनाना आरंभ किया परंतु हमारे आम छात्र या युवा यह शायद ही जानते हैं। धीरे-धीरे पढ़ाई-लिखाई अंग्रेजी में हो जाने का अनिवार्य कुपरिणाम अपनी भाषाओं और साहित्य से बढ़ते अपरिचय से हुआ। इससे भी भाषा और संस्कृति के अभिन्न संबंध का पता चलता है। आगे स्थिति क्या होगी, कहना कठिन है। एक समय था जब जनसंघ- भाजपा अंग्रेजी को सत्ता से हटाकर भारतीय भाषा लाने की पक्षधर थी। अब इस विषय पर ही चुप्पी छा गई है।

हालांकि कई मंत्री संस्कृत में शपथ लेते हैं परंतु औपचारिक शिक्षा में भारतीय भाषा-साहित्य के अध्ययन की चिंता कभी नहीं सुनाई पड़ती। वह पूरी तरह राम-भरोसे है। अंग्रेजी के साथ पद-सत्ता-सुविधा के विशेषाधिकार जुड़े होने से हमारे बच्चों, युवाओं की सारी शक्ति उसी पर अधिकार करने की कोशिश में खर्च हो जाती है। उन्हें यह चेतना भी नहीं मिलती कि अपनी भाषा-साहित्य जानने की आवश्यकता भी क्या है? सचेत लोगों में इस विषय पर चिंता जरूर है। वे जानते हैं कि संस्कृत भाषा भारत के महान ज्ञान-भंडार ही नहीं, अनेक महान परंपराओं की संरक्षक है।

पूरी दुनिया में लोग अपनी परंपरा की रक्षा करते और उस पर गर्व करते हैं। तब भारतीय क्यों न करें? ध्यान रहे कि संस्कृत जानने वाला व्यक्ति किसी भी भारतीय भाषा को थोडा-बहुत समझ सकता है। वह हिंदी, बंगला, मराठी, जैसी कई भाषाएं तो पूरी तरह समझ सकता है। फिर भी यहां संस्कृत विरोध भी एक तथ्य है। यह मूलत: हिंदू-विरोध से जुड़ गया है। जैसा डीएमके नेत्री कनिमोझी ने कहा था, ‘‘संस्कृत का प्रयोग ईसाई या मुसलमान नहीं करते। तब आप क्यों इसे सब पर लादना चाहते हैं? हम एक समावेशी भारत चाहते हैं जो सब का हो।’’ हमें यह नोट करना चाहिए कि ब्रिटिश शासन तक भारत में अनेकानेक मुस्लिम कवि, विद्वान, कलाकार हुए जिन्होंने संस्कृत-पौराणिक हिंदू साहित्य के पात्रों को अपने लेखन, चिंतन, कला के केंद्र में रखा। कबीर, रहीम, रसखान, जायसी आदि नाम विख्यात हैं।

मुसलमानों के लिए संस्कृत साहित्य, ज्ञान या प्राचीन हिंदू देवी-देवताओं से दुराव रखना कोई अनिवार्य स्थिति नहीं रही। कुछ लोग मनगढ़ंत ‘आर्य-आक्रमण सिद्धांत’ को भी संस्कृत विरोध का आधार बनाते हैं। उनके अनुसार यह किसी युग में किन्हीं विदेशी आक्रमणकारियों की भाषा थी परंतु इसमें कोई सच्चाई नहीं है। विविध पुरात्तात्विक, साहित्यिक प्रमाणों से यह निश्चित हो चुका है कि संस्कृत और वैदिक साहित्य मूलत: इसी देश के हैं। संस्कृत के शब्द दुनिया की कई भाषाओं में पाए जाते हैं, लेकिन बाहरी किसी भाषा के शब्द प्राचीन संस्कृत में नहीं हैं। यही स्थिति भौगौलिक स्थानों, नामों, रीतियों आदि की भी है। प्राचीन संस्कृत साहित्य में किसी विदेशी स्थल, नाम या रीति का उल्लेख नहीं मिलता। संस्कृत से किसी भी भारतीय भाषा और उसके साहित्य के विकसित होने में अवरोध हुआ हो, इसका कोई उदाहरण नहीं मिलता।

कुछ लोग संस्कृत को ‘मृत’ भाषा करार देते हुए कहते हैं कि एक प्रतिशत भारतीय भी संस्कृत नहीं बोलते। वह तो अधिकांश पंडितों, पुरोहितों द्वारा प्रयोग की जाती है, परंतु दोनों ही बातें अतिरंजित हैं। संस्कृत की महत्ता दूसरी है। तुलना में देखें तो लैटिन भाषा भी मृत हो चुकी। वह किसी देश में मातृभाषा नहीं है, पर आज भी यूरोप में लैटिन पढ़ना न केवल सम्मानजनक, बल्कि सुशिक्षित होने की शर्त जैसी है। भारत में संस्कृत के लिए वही स्थिति बनाना और आसान है।

संस्कृत में उपलब्ध साहित्य और ज्ञान आज भी देश के कोने-कोने में किसी न किसी रूप में जाना जाता है। आवश्यकता केवल इसकी है कि शिक्षा के प्रति गलत अवधारणा को सुधार लिया जाए। शिक्षा केवल पैसे कमाने की योग्यता विकसित करने के लिए है, इस भ्रामक समझ ने सारी गड़बड़ी की है। उसी से यह मूर्खतापूर्ण विचार बना कि संस्कृत पढ़ना ‘उपयोगी’ नहीं है, लेकिन आज नहीं तो कल, हमें यह समझना होगा कि संस्कृत और अपनी भाषाओं के सहारे ही हम वास्तव में समर्थ होंगे और विश्व में सम्मान प्राप्त कर सकेंगे।

इतिहास और वर्तमान, देश और दुनिया को ध्यान से देख कर यह भ्रांति दूर हो सकती है। मनुष्य जीवन में आजीविका के अतिरिक्त अनेक विषय महत्वपूर्ण हैं। वस्तुत: सांस्कृतिक, सामाजिक, चारित्रिक दृष्टि के बिना जीविका संबंधी विषय भी ठीक से नहीं समझे जा सकते, लेकिन दुर्भाग्यवश अपने देश में एक पूरा राजनीतिक-वैचारिक उद्योग खड़ा हो गया है जो हमारी भाषा-संस्कृति को छिन्न-भिन्न करने में लगा हुआ है। इसी से बाधा खड़ी होती है। संस्कृत की चर्चा को सदैव भाजपा से जोड़कर एक वितृष्णा भी पैदा की जाती है। इसमें देसी-विदेशी मीडिया के प्रभावशाली हिस्से विशेष भूमिका निभाते हैं। वे हमारे भाषाई भेदों को उभार कर जानबूझकर भावनात्मक उत्तेजना पैदा करते हैं ताकि इसी बहाने विमर्श का हिंदू-विरोधी तेवर दिया जा सके। इस तरह एक तीर से दो शिकार करने की कोशिश होती है।

संस्कृत पर देश में कोई विवाद न होने पर भी कृत्रिम ‘विवाद’ खड़ा किया जाता है। साथ ही मामले का राजनीतिकरण कर लोगों को उकसाया जाता है ताकि लोग इसे भाजपा की चालबाजी समझ कर संस्कृत का विरोध करने खड़े हो जाएं। इस हिंदू-विरोधी पूर्वाग्रह का संबंध भाषा से नहीं है। इसलिए इसका समाधान करना भी आवश्यक है ताकि हम भारत के लोग मिल-जुल कर अपनी भाषा, संस्कृति और साहित्य की चिंता कर सकें।

(लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एवं

वरिष्ठ स्तंभकार हैं)