भारत डोगरा। हाल के वर्षों में जल-संकट के कारण बुंदेलखंड के अनेक क्षेत्र सुर्खियों में रहे हैं, पर इसके साथ यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि वहां चंबल, सिंध, बेतवा, केन, टोंस व यमुना जैसी प्रमुख नदियां हैं तो पहुज, पैसुनी, उर्मिल, जामनी जैसी अनेक छोटी नदियां भी हैं। पिछली शताब्दी के रिकॉर्ड का औसत देखें तो वर्ष में 95 सेमी की वर्षा भी कम नहीं है। वहां के बड़े क्षेत्र की काली मिट्टी, बालू-पत्थर व चुना-पत्थर भी जल ग्रहण क्षमता वाले हैं। यदि इसके बावजूद हाल के वर्षों में वहां बार-बार जल संकट सामने आ रहा है तो इसके दो कारण हैं।

पहला कारण यह है कि जलवायु बदलाव के इस दौर में मौसम व वर्षा की प्रवृत्ति पहले से बदल रही है। जिस समय वर्षा की जरूरत व उम्मीद है उस समय वर्षा नहीं होती है, पर जिस समय जरूरत नहीं होती है उस समय अधिक बरस जाती है। यह एक ऐसी नई समस्या है जिस पर हमारा बहुत नियंत्रण नहीं है। जल संकट उग्र होने का दूसरा बड़ा कारण अनुचित नीतियां हैं या उनका अनुचित क्रियान्वयन है। यह हमारे नियंत्रण में है। अत: जल संकट के इस कारण की ओर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।

यहां पानी टिकता नहीं, बह जाता है
बुंदेलखंड की विशेषता यह है कि इसका बड़ा क्षेत्र ढालदार और पथरीला होने के कारण वर्षां के जल की धरती में समाने की क्षमता की अपेक्षा तेजी से बह जाने की प्रवृत्ति अधिक है। वर्षा के जल के अपेक्षाकृत बड़े हिस्से को रोक कर रखने के लिए वनों की रक्षा व हरियाली बढ़ानी जरूरी है तथा विशेषकर पठारी-पहाड़ी क्षेत्र में तो यह बहुत ही जरूरी है। पहाड़ों पर घने वन जल संरक्षण करते हैं तो वर्षा की संभावना भी कुछ हद तक बढ़ाते हैं। पर वन संरक्षण के स्थान पर हाल के दशकों में तेजी से वन विनाश हुआ। अंधाधुंध खनन के कारण अनेक पहाड़ी क्षेत्रों में हरियाली लाने की संभावना को बहुत कम कर दिया गया। बहुत गहराई से पानी निकालकर बेकार बहा दिया गया या नदियों की गर्मियों में पानी बचा कर रखने की क्षमता कम कर दी गई। तेजी से बहते पानी की उपजाऊ मिट्टी काट कर उसे अपने साथ बहा ले जाने की क्षमता भी बढ़ गई। इन विविध कारणों से जल संरक्षण बढ़ने के स्थान पर तेजी से कम हुआ।

बुंदेलखंड में हैं जल संरक्षण की समृद्ध परंपराएं
जल संरक्षण की बहुत समृद्ध परंपराएं बुंदेलखंड में सैकड़ों वर्षों से रही हैं। बुंदेलखंड की विशेष स्थितियों की समझ बना कर पूर्वजों ने गांव-गांव में छोटे जल स्नोत तैयार किए तो महत्वपूर्ण तथा विशेष अनुकूल क्षेत्रों में बहुत पहले बने बड़े जल स्नोत अपनी समझ व कौशल का लोहा अनेक जाने-माने विशेषज्ञों से आज भी मनवाते हैं। अनेक जल स्नोतों में कम खर्च पर अधिक जल संग्रहण की क्षमता है, क्योंकि जल ग्रहण क्षेत्रों को पहचान कर इन्हें भली-भांति बनाया गया था और साथ में ऐसे अनेक तालाबों को एक-दूसरे से बड़ी कुशलता से जोड़ा भी गया था। परंपरागत समझ की इस समृद्धि को हमारी नीतियां आगे बढ़ा सकती थीं, पर ऐसा नहीं हुआ और यहां तक कि जो पहले के जल स्नोत तैयार थे उनकी उपेक्षा से उनकी क्षमता भी कम होती गई।

गांव-किसानों के हक का पानी छीना गया
सौंदर्यीकरण के नाम पर कुछ दिखावटी कार्य अवश्य हुए, पर इससे जल संरक्षण-संग्रहण क्षमता में कोई महत्वपूर्ण सुधार नहीं हुआ। इसके स्थान पर अधिक धन ऐसी बड़ी परियोजनाओं, बड़े और मध्यम बांध निर्माण आदि पर खर्च किया गया जिनकी उपयोगिता संदिग्ध थी। इनमें से कुछ परियोजनाओं के बारे में यह पाया गया कि इनके वास्तविक लाभ इनके घोषित लाभ से कहीं कम पाए गए, जबकि वास्तविक खर्च इनके पूर्व घोषित खर्च से कहीं अधिक हुआ। कुछ परियोजनाओं में यह भी देखा गया कि इनके द्वारा केंद्रीकृत जल आपूर्ति को बड़े उद्योगों की ओर मोड़ दिया गया, जबकि गांवों, किसानों, निर्धन वर्गों के लिए उपलब्ध जल का हिस्सा कम हो गया। इसका नदियों के प्राकृतिक बहाव और जल संकट के दिनों में जल की उपलब्धि पर भी प्रतिकूल असर पड़ा।

सही योजनाएं नहीं बनायी गईं...
यदि जल संसाधन विकास तथा संरक्षण के लिए किसी वर्ष में कुल 1000 करोड़ रुपये उपलब्ध हों, पर उसमें से 800 करोड़ रुपये ऐसी बड़ी परियोजनाओं पर ही खर्च हो जाएं तो छोटे स्तर के, गांवों को प्रत्यक्ष लाभ पहुंचाने वाले कार्यों के लिए बहुत कम धन व बजट बचेगा। इतना ही नहीं, इन कार्यों में हाल के वर्षों में इतना भ्रष्टाचार हुआ कि जितने थोड़ा-बहुत लाभ की उम्मीद थी, वह भी बहुत कम मिल सका। मनरेगा से एक नई उम्मीद मिली थी, पर उसके अंतर्गत होने वाले कार्यों का भी यही हाल रहा। दूसरी ओर जो किसानों, गांववासियों की ओर से उनकी जरूरतों से जुड़े समाधान सुझाए जा रहे थे, वे प्राय: उपेक्षित रहे। जैसे एक किसान वैज्ञानिक मंगल सिंह के आविष्कार मंगल टरबाइन को कई विशेषज्ञों, अधिकारियों ने सराहा, पर फिर भी इसे आगे नहीं बढ़ाया गया।

जल संकट के दुष्परिणाम आएंगे सामने
यह दौर जलवायु बदलाव का दौर है, जिसके कारण प्रतिकूल मौसम की स्थितियां वैसे ही विकट हो रही हैं। तिस पर यदि नीतियां और क्रियान्वयन भी इतनी समस्याओं से भरे रहें तो फिर जल संकट को संभालना कठिन हो जाएगा। अत: समय रहते हमें स्थिति को संभालना होगा, सही नीतियों की ओर बढ़ना होगा। बड़े बांधों व केन-बेतवा जैसी महंगी परियोजनाओं के बारे में कई विद्वान व विशेषज्ञ पहले ही सावधान कर चुके हैं कि इनके अनेक दुष्परिणाम आज नहीं तो कल सामने आएंगे जैसे विस्थापन, वन विनाश, जल बंटवारे को लेकर आपसी कलह, नदियों के प्राकृतिक बहाव पर प्रतिकूल असर व सीमित आर्थिक संसाधनों का अनुचित उपयोग।

अत: अब हमें सीमित आर्थिक संसाधनों का बेहतर से बेहतर उपयोग गांववासियों की जरूरत के अनुसार उनकी छोटी-छोटी परियोजनाओं पर करना चाहिए और उनका क्रियान्वयन गांववासियों की भरपूर भागीदारी से ही होना चाहिए। इसके साथ वनों की रक्षा व स्थानीय प्रजातियों के वृक्षों की हरियाली बढ़ाने के सभी संभव प्रयास आगे बढ़ाए जाने चाहिए तथा साथ में हरियाली उजाड़ने वाले सभी कार्यों व परियोजनाओं को बहुत नियंत्रित किया जाना चाहिए। जल संकट दूर करने, जल संरक्षण व संग्रहण के सभी प्रयासों को जन भागीदारी से इस बारे में परंपरागत ज्ञान का समावेश करते हुए तेजी से आगे बढ़ाना चाहिए।

लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं