कुशल कोठियाल। अनलॉक-4 में अगर कोई चीज खुल कर अनलॉक हुई है, तो वह है उत्तराखंड की सियासत। उत्तराखंडी समाज के बाकी हर क्षेत्र में कोरोना के मौजूदा दौर में कुछ हिचक, कुछ डर, कुछ परहेज देखा जा रहा है। फुलऑन तो बस सियासत ही है। न कोई शारीरिक दूरी और न ही कोई मजबूरी। जहां और जब मौका मिला वहीं पर सियासत। कांग्रेस विपक्ष में होने के बावजूद दोहरी राजनीति में मशगूल है। दोहरी इस मायने में कि कांग्रेस के दिग्गजों को एक तो सत्ताधारी भाजपा से भिड़ना होता है, साथ ही दल के भीतर भी पूरी शिद्दत से एक-दूसरे से तलवारें भांजनी होती हैं।

कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने हालिया फेरबदल में राष्ट्रीय महासचिव के रूप में हरीश रावत की कुर्सी तो बरकरार रखी, साथ ही उन्हें पंजाब जैसे राज्य का प्रभारी भी बना दिया। इस फैसले ने राज्य में उनके विरोधी धड़े को स्वाभाविक रूप से चौंकाया है। कुछ तो बात होगी जो उम्र के इस पड़ाव में दो-दो विधानसभा सीटों से चुनाव हार जाने के बावजूद वह केंद्र में भी वजन बनाए हुए हैं एवं प्रदेश में भी सुíखयां बटोर रहे हैं। प्रदेश की सरकार को कोसते भी हैं और सरकार से ही खासी इज्जत भी बटोर लेते हैं।

मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत भी उनके कौशल की तारीफ करने से गुरेज नहीं करते। राजनीति में किसी भी फैसले का महत्व होता है और उससे ज्यादा महत्व फैसले की व्याख्या का होता है। यही तो वजह है कि केंद्रीय नेतृत्व द्वारा दिए गए महत्व से जहां हरीश रावत खेमा उत्सव मना रहा है, वहीं दल के भीतर एवं बाहर उनके विरोधियों ने इसकी नायाब व्याख्या कर सभी को सोचने पर मजबूर कर दिया है। विरोधी धड़े का कहना है कि अगर रावत को आगे रखकर कांग्रेस को प्रदेश में चुनाव लड़ना होता, तो उन्हें पंजाब का प्रभारी क्यों बनाया जाता।

उत्तराखंड एवं पंजाब विधानसभा चुनाव का समय एक ही है। ऐसे में दूरदर्शी नेतृत्व ने रावत को पंजाब में ही व्यस्त रखकर उत्तराखंड में चुनाव लड़ने की योजना बनाई है। अब हकीकत में इस व्याख्या में कितना दम है, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन इससे उनकी तो चिंता बढ़ ही गई है, जो रावत को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में अभी से प्रचारित करने लगे हैं।

कभी थी तीसरी ताकत, अब हुई नदारद : किसी समय बहुजन समाज पार्टी राज्य में तीसरी ताकत के रूप में देखी जाती थी। हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर में जीतने की संभावना रखने वाली बसपा का पहाड़ी क्षेत्र में भी अपना थोड़ा बहुत वोट बैंक तो था ही। राज्य की राजनीति के पंडित तो बसपा के पास सत्ता की चाबी देखते थे। ये बातें भूतकाल में इसलिए हो रही हैं, क्योंकि बसपा राज्य की राजनीति में अपनी ताकत को कायम नहीं रख पाई। 20 वर्षो में इसका ग्राफ गिरा ही है। उत्तराखंड को वजूद में आए 20 साल हो रहे हैं। इस दौरान बसपा क्या से क्या हो गई और क्यों हो गई, यह शोध का विषय है।

इन 20 वर्षो में प्रदेश में 17 बार प्रदेश अध्यक्ष बदले जा चुके हैं। 17वें मुखिया की नियुक्ति बहन जी ने पिछले महीने ही की है। लगे हाथ अब प्रदेश प्रभारी को भी बदल दिया गया। 20 वर्षो में यह 13वें प्रभारी हैं। कुल मिलाकर हाथी को पहाड़ चढ़ाने की जुगत में उपयुक्त महावत की तलाश में संगठन के पत्ते बार-बार फेंटे जा रहे हैं, लेकिन बाजी हाथ लग नहीं रही। हालात ऐसे हैं कि अध्यक्ष की नियुक्त होते ही, बसपा के कुछ कार्यकर्ता उसके जाने की घड़ी गिनने लगते हैं, तो कुछ उसके टिकने की दुआ मांगते हैं।

देर आयद दुरुस्त आयद : कहते हैं जब जागो तभी सवेरा। उत्तराखंड में वन्यजीव महकमे के मामले में यह कहावत एकदम सटीक बैठती है। बात जुड़ी है राज्य में निरंतर गहराते मानव-वन्यजीव संघर्ष की और इसमें भी विशेषकर गुलदारों से बढ़ते टकराव की। 71.05 प्रतिशत वन भूभाग वाले इस सूबे में वन्यजीवों के हमलों में 70 से 80 फीसद घटनाएं गुलदारों की हैं। क्या घर-आंगन और क्या खेत-खलिहान, जान के खतरे का सबब बने गुलदार कब कहां आ धमकें कहा नहीं जा सकता।

वर्षो से गुलदार और मानव के बीच छिड़ी जंग को थामने के लिए बातें तो खूब हो रहीं, मगर कवायद ढाक के तीन पात वाली। लंबे इंतजार के बाद महकमे को यह अहसास हुआ है कि गुलदार आखिर आक्रामक क्यों हो रहे, इसका अध्ययन जरूरी है। खैर, देर से ही सही विभाग ने राजाजी टाइगर रिजर्व और उससे सटे देहरादून तथा हरिद्वार वन प्रभाग के क्षेत्र में गुलदारों के व्यवहार के अध्ययन का जिम्मा भारतीय वन्यजीव संस्थान को सौंपा है। अब 15 गुलदारों पर रेडियो कॉलर लगाकर उनके व्यवहार समेत अन्य बिंदुओं पर अध्ययन किया जाएगा, ताकि गुलदार से टकराव थामने को प्रभावी योजना तैयार कर इसे धरातल पर आकार दिया जा सके।

(लेखक उत्तराखंड के राज्य संपादक हैं)