ए. सूर्यप्रकाश : केंद्र सरकार ने लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए जाने की बात फिर से छेड़ी है। उसने कहा कि यदि सभी राजनीतिक दल इस पर सहमत हों तो यह संभव हो सकता है। कुछ दिन पहले लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री किरण रिजिजू ने इस प्रस्ताव पर विस्तार से बताया कि एक साथ चुनाव कराने से न केवल सरकारी खजाने को भारी बचत होगी, बल्कि राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों का व्यय भी घटेगा। इससे बार-बार होने वाले चुनावों के कारण लागू आदर्श आचार संहिता के चलते रुकने वाली विकास परियोजनाएं भी प्रभावित नहीं होंगी। हालांकि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सभी दलों और राज्य सरकारों को एक साझा मंच पर आकर कोई युक्ति निकालनी होगी। साथ ही संविधान एवं चुनावी कानूनों में भी कुछ संशोधन करने होंगे।

सरकार ने विधि आयोग से इस मुद्दे की मीमांसा करने का अनुरोध किया है। आयोग 1999 में पहले ही इसके पक्ष में सहमति व्यक्त कर चुका है। भले ही विधि आयोग की प्रतिक्रिया की नए सिर से प्रतीक्षा हो, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि राष्ट्रहित में एक साथ चुनाव का निर्णय विचारणीय अवश्य है। कम से कम इसके तीन प्रमुख कारण हैं। सबसे पहले तो हर साल देश में कहीं न कहीं होने वाली चुनावी चकल्लस से मुक्ति मिलेगी। दूसरा, चुनावों के चलते विकास कार्य बार-बार नहीं रुकेंगे। तीसरा, इससे चुनावी खर्च घटने के साथ ही चुनावों में काले धन का प्रभाव भी कम होगा।

स्वतंत्रता के उपरांत देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव प्रत्येक पांच वर्ष के अंतराल पर एक साथ होते रहे। वर्ष 1952 में शुरू हुआ यह सिलसिला 1957, 1962 और 1967 तक चलता रहा। कालांतर में केंद्र की कांग्रेस सरकार ने राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए मनमाने ढंग से अनुच्छेद 356 का उपयोग किया और अपनी सुविधा से ही हटाया। इससे कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों का चक्र बिगड़ गया। हालांकि, एक साथ चुनाव कराने के मामले में पूर्ण गतिरोध 1971 में आया, जब इंदिरा गांधी ने कांग्रेस में विभाजन के बाद नया जनादेश प्राप्त करने के लिए चुनाव का निर्णय किया। उस चुनाव में इंदिरा गांधी की भारी जीत हुई और विधानसभा चुनाव 1972 में हुए। उसके बाद से कभी दोनों चुनाव एक साथ नहीं हो सके।

एक साथ चुनाव का विचार फिर से चर्चा के केंद्र में है। गवर्नेंस का स्तर सुधारने और देश को बार-बार चुनावी चक्र से मुक्ति दिलाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने इसकी आवश्यकता को रेखांकित किया है। इस विचार ने 2017 में फिर से रफ्तार पकड़ी, जब चुनाव आयोग ने कहा कि उसके पास एक साथ चुनाव कराने के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचा एवं संसाधन उपलब्ध हैं। लोकसभा और विधानसभा चुनाव किस प्रकार गवर्नेंस को प्रभावित करते हैं, इसका एक उदाहरण देखा जा सकता है। कर्नाटक में 1983 के विधानसभा चुनाव में रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व में जनता पार्टी-कर्नाटक क्रांति रंगा गठबंधन ने कांग्रेस को परास्त कर सत्ता हासिल की। उसके अगले साल इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने राज्य में सत्तारूढ़ गठबंधन को हरा दिया। हेगड़े ने उस परिणाम को अपनी पार्टी के विरुद्ध जनादेश के रूप में लेकर राज्यपाल से नए चुनाव कराने को कहा। विधानसभा के लिए चुनाव सात महीने बाद हुए, लेकिन इस दौरान राजनीतिक अस्थिरता रही, जिससे शासन-संचालन प्रभावित हुआ। देश में ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जहां लोकसभा में जनादेश विपरीत आने पर राज्य में सत्तारूढ़ दल स्वयं को लेकर अनिश्चित एवं अस्थिर हुआ हो जाता है। इससे शासन में गतिरोध की स्थिति उत्पन्न होती है।

विधि आयोग ने 1999 में अपनी 170 पन्नों की रपट में इस मुद्दे की गहनता से पड़ताल की और पुरजोर तरीके से एक साथ चुनाव कराए जाने की पैरवी की। हालांकि उसने यह भी स्वीकार किया कि विभिन्न विधानसभाओं के कार्यकाल चक्र को देखते हुए इसे एकाएक अमल में नहीं लाया जा सकता। उसने उन सभी विधानसभा चुनावों को एक साथ जोड़ने का सुझाव दिया, जो अगले 12 महीनों में प्रस्तावित हों। आयोग ने कहा कि यदि सभी राजनीतिक दल सहयोग करें तो ऐसे आवश्यक कदम उठाए जा सकते हैं, जिसमें किसी पार्टी के हितों पर आघात न हो। आयोग ने यहां तक कहा कि यदि चुनावों को एक गुच्छे में कराने के लिहाज से आवश्यक पड़े तो कुछ राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल में करीब छह महीनों के समायोजन का संविधान संशोधन भी कराया जा सकता है। जब इस आशय का प्रस्ताव पहली बार चर्चा में आया तो कुछ हलकों में उस पर भारी हंगामा हुआ।

इस मुद्दे पर कार्मिक, लोक सेवा, विधि एवं न्याय जैसे विभागों से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने गहन पड़ताल की। इससे संबंधित रपट 2015 में संसद के पटल पर रखी गई। बार-बार चुनाव को लेकर समिति ने अपनी रिपोर्ट में यथार्थ ही कहा कि इससे ‘अक्सर नीतिगत जड़ता और शासन अवमूल्यन’ के अतिरिक्त ऊंची लागत का बोझ भी बढ़ता है। समिति की रपट में अन्य देशों के अनुभवों की ओर भी ध्यानाकर्षण कराया गया। जैसे दक्षिण अफ्रीका में राष्ट्रीय एवं प्रांतीय चुनाव प्रत्येक पांच वर्ष में एक साथ कराए जाते हैं, जबकि स्थानीय निकाय चुनाव उनके दो वर्ष बाद होते हैं। स्वीडन में राष्ट्रीय, प्रांतीय और स्थानीय निकायों के चुनाव प्रत्येक चार वर्ष के अंतराल पर सितंबर के द्वितीय रविवार के दिन कराए जाने का प्रविधान है। ब्रिटेन में संसद का कार्यकाल 2011 के एक कानून द्वारा नियत किया गया है।

एक साथ चुनाव की राह में सबसे बड़ी बाधा राजनीतिक सर्वसम्मति की होगी। भाजपा द्वारा पेश किया गया कोई भी विचार उसके विरोधी दलों द्वारा संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। चूंकि कई राज्यों में भाजपा विरोधी दलों की सरकारें हैं तो ऐसी परिस्थिति में एक साथ चुनाव कराने के लिए परिवेश बनाना बड़ी टेढ़ी खीर है। इसके बावजूद इस दिशा में प्रयास अवश्य होने चाहिए, क्योंकि यह एक ऐसा विचार है जो जनता को बार-बार चुनाव के बोझ से मुक्ति दिलाने में कारगर होगा। बेहतर शासन और अपेक्षाकृत कम राजनीतिक द्वंद्व की दृष्टि से भी यह विचार श्रेयस्कर है।

(लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)