नई दिल्ली [ मार्कंडेय राय ]। शहरीकरण एक अपरिहार्य प्रक्रिया है। इसे रोका नहीं जा सकता। वर्तमान में शहरी क्षेत्रों में भारत की 37 प्रतिशत आबादी रहती है। 2030 तक यह 40 प्रतिशत और 2050 तक 50 प्रतिशत हो जाएगी। आज दिल्ली सहित सात शहरों की जनसंख्या 50 लाख से अधिक है। वर्तमान में दिल्ली ढाई करोड़ आबादी के साथ दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला शहर है। 2030 तक दिल्ली की आबादी तीन करोड़ साठ लाख तक पहुंच सकती है। शहरीकरण विकास के लिए एक अवसर भी है और चुनौती भी। कहावत है कि स्वास्थ्य ही असली धन है।

शहराें में रहकर हम स्वास्थ्य गंवाकर धन कमाने में लगे हुए हैं

हम स्वास्थ्य गंवाकर धन कमाते हैैं और पुन: स्वास्थ्य पाने के लिए धन खर्च करते हैं। टिकाऊ शहरीकरण की कई चुनौतियों में शहरी आबादी का स्वास्थ्य एक गंभीर समस्या है। खराब स्वास्थ्य शहरी आबादी की उत्पादकता पर बहुत नकारात्मक प्रभाव डालता है। देश के सभी बड़े शहर जिनकी आबादी एक करोड़ से अधिक है वहां रहने के लिए लोगों को एक तरह से दंड देना पड़ रहा है। यह अक्सर सेहत में गिरावट के रूप में होता है। हमारे शहरों की स्थिति तब इतनी खराब है जब हम उद्योगीकरण के लिहाज से यूरोप से पीछे हैैं। शहरीकरण की चुनौतियों से निपटने के मामले में हमें यूरोप से सबक लेने की जरूरत है। यूरोप में औद्योगिक क्रांति के दौरान फैले हैजे ने शहरों के बुनियादी ढांचे में व्यापक बदलाव की जरूरत पैदा की। हैजे से दो-चार होने के बाद यूरोप में सुरक्षित पेयजल आपूर्ति प्रणाली को दुरुस्त करने के साथ सीवेज सिस्टम का समुचित विकास तो किया ही गया, सार्वजनिक स्वच्छता को लेकर भी कई कदम उठाए गए। अगर यूरोपीय देशों की तरह हम अपने शहरी ढांचे को सुधारते नहीं तो गंभीर संकट का सामना करेंगे।

शहरों की गंदगी बीमारियां को बढ़ावा दे रही हैैं

हमारे गंदे शहर तमाम समस्याओं के साथ रोगों को भी बढ़ा रहे हैैं। गंदगीजनित बीमारियां आर्थिक रूप से सक्रिय युवा आबादी की क्षमता को प्रभावित करती हैैं और उसकी उत्पादकता घटाती हैैं। वर्तमान में भारत में शहरी आबादी की लगभग एक तिहाई गरीब है। इनमें खुले आसमान के नीचे अथवा फुटपाथ पर जीवन बिताने वाले लोग भी शामिल हैैं। भारत में किस्म-किस्म की बीमारियों का प्रकोप कुछ ज्यादा ही दिखता है। अस्थमा, तपेदिक समेत अन्य संक्रामक रोग जैसे फ्लू और दस्त आम बीमारियां हैैं।

शहरों में खानपान की देन है मधुमेह जैसी बीमारी

कई बीमारियां आधुनिक जीवनशैली और खानपान की देन हैैं, जैसे कि मधुमेह। भारत मेंं हर पांचवां व्यक्ति मधुमेह का रोगी है। समस्या इसलिए बढ़ रही है, क्योंकि अपने देश में दस प्रतिशत से कम लोग ही स्वास्थ्य बीमा कराते हैं। असुरक्षित पेयजल आपूर्ति शहरी स्वास्थ्य पर कहीं बुरा असर डालती है। दिल्ली और मुंबई में एक बड़ी संख्या में आबादी झुग्गी बस्तियों में रहती है। इन बस्तियों में गंदगी अधिक देखने को मिलती है। पीने का दूषित पानी संक्रामक और गैर संक्रामक, दोनों तरह के रोगों का एक बड़ा वाहक है।

बीमारियों का एक कारण दूषित जल भी है

हमारे देश में एक तो वर्षा जल संचयन बहुत कम होता है और दूसरे भूमिगत जल को साफ रखने के पर्याप्त उपाय नहीं किए गए हैैं। उद्योगों और साथ ही घरों से निकलने वाला दूषित जल कई जगह जल स्रोतों को प्रदूषित करने का काम कर रहा है। आम तौर पर कल-कारखानों की ओर से दूषित जल नदियों और तालाबों में छोड़ा जाता है। हालांकि नदियों को साफ-सुथरा रखने की कोशिश हो रही है, लेकिन अभी तक नाकामी ही अधिक मिली है।

शहरों में वायु प्रदूषण एक गंभीर समस्या है

जल प्रदूषण की तरह से शहरों में वायु प्रदूषण भी एक गंभीर समस्या बन रहा है। बीते कुछ वर्षों से उत्तर भारत के ज्यादातर बड़े शहर सर्दियों में वायु प्रदूषण की चपेट में आ जाते हैैं। देश की राजधानी दिल्ली में तो स्कूल बंद करने की नौबत आ जाती है।

दिल्ली को अस्थमा रोगियों की राजधानी कहा जाने लगा

इस पर हैरानी नहीं कि दिल्ली को अस्थमा रोगियों की राजधानी कहा जाने लगा है। ऐसी स्थिति तब देखने को मिल रही है जब भारत संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास संबंधी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए संकल्पबद्ध है। सतत विकास के सभी 17 लक्ष्य 2030 तक हासिल किए जाने हैैं, लेकिन वर्तमान विकास दर और शहरीकरण की अनदेखी को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि तय समय पर इस लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। इस लक्ष्य को हासिल करने में कठिनाई का एक कारण यह भी है कि भारत स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का केवल डेढ़-दो प्रतिशत ही खर्च करता है। यही कारण है कि देश में 1800 लोगों पर एक डॉक्टर की उपलब्धता है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 1000 लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए।

शहरीकरण के मामले को दुरुस्त करना होगा, क्योंकि शहर विकास के इंजन हैैं

सेहत के मामले में एक समस्या सक्षम स्वास्थ्य सेवाओं की कमी की भी है। सभी सुविधाओं से लैस सरकारी अस्पतालों के अभाव में निजी क्षेत्र में बड़े-बड़े अस्पताल खुल रहे हैैं। निजी क्षेत्र के कई अस्पताल तो लक्जरी रिसार्ट जैसे हैैं। इनमें सुविधाएं तो खूब हैैं, लेकिन सेवा की कोई नैतिकता नहीं है। ऐसे अस्पताल गरीब और मध्यम वर्ग की पहुंच के बाहर हैं। इन अस्पतालों में आम लोगों के साथ धोखाधड़ी भी होती रहती है। स्पष्ट है कि सरकारों को शहरीकरण के मामले में चेतना होगा और उन्हें उनके ढांचे को प्राथमिकता के आधार पर दुरुस्त करना होगा, क्योंकि शहर विकास के इंजन हैैं।

[ लेखक ‘यूएन-हैबिटेट’ में वरिष्ठ सलाहकार हैैं ]