[ सी उदयभास्कर ]: नागरिकता संशोधन अधिनियम यानी सीएए के खिलाफ देशव्यापी विरोध-प्रदर्शन और उस पर पुलिस की सख्ती के चलते करीब 25 लोगों की मौत हो गई। सैकड़ों घायल भी हुए। कई अशांत इलाकों में इंटरनेट सेवाएं प्रतिबंधित हैं। इसमें उत्तर प्रदेश सबसे अधिक अशांत रहा। सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शन से निपटने के लिए पुलिस ने अनावश्यक सख्ती बरती। इससे आंतरिक सुरक्षा की स्थिति बहुत प्रभावित हुई है। यहां यह उल्लेख करना जरूरी होगा कि शांतिपूर्ण तरीके से विरोध-प्रदर्शन करना आम नागरिकों का बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार है।

सीएए और एनआरसी के विरोध प्रदर्शन ने देश का एक अलग चरित्र प्रदर्शित किया

इस दौरान दिल्ली, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों में पुलिस ने जो बलपूर्वक कार्रवाई की वह मीडिया और आम नागरिकों के कैमरे में भी दर्ज हुई। यह सरकार के बेहद सख्त रवैये को दर्शाने वाली है। बेंगलुरु में महात्मा गांधी के नामचीन जीवनीकार रामचंद्र गुहा की गिरफ्तारी वाली तस्वीर भी सवाल उठाने वाली है। सीएए और उससे जुड़ी कवायद नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस यानी एनआरसी को लेकर राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन ने देश का एक अलग चरित्र प्रदर्शित किया है। हालांकि एनआरसी को लेकर अभी कोई स्पष्टता नहीं है और प्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री बार-बार इसे लेकर आश्वस्त कर रहे हैं। फिर भी सीएए-एनआरसी के राजनीतिक निहितार्थ खासे जटिल हैं।

फिलहाल आठ राज्य सीएए और एनआरसी को लागू करने को तैयार नहीं

फिलहाल आठ राज्य सीएए और एनआरसी की जुगलबंदी को लेकर अपनी असहजता जाहिर कर चुके हैं। इनमें वह बिहार भी शामिल है जहां भाजपानीत राजग के सहयोगी जदयू के नेतृत्व में गठबंधन सरकार है। वहीं असम सहित पूर्वोत्तर के राज्यों में ‘बाहरियों’ को लेकर और भी ज्यादा जटिल चिंताएं हैं। इन चिंताओं की कड़ियां अगस्त 1947 में भारत विभाजन और फिर 1971 में बांग्लादेश के उदय के वक्त से जुड़ती प्रतीत होती हैं।

विरोध प्रदर्शन की लपटें सबसे पहले असम में सुलगीं

यहां यह भी याद दिला दें कि हालिया विरोध प्रदर्शन की लपटें सबसे पहले असम में 11 दिसंबर को तब सुलगीं जब नागरिकता संशोधन विधेयक यानी कैब राज्यसभा से पारित हळ्आ। तब कानून व्यवस्था बनाए रखने में स्थानीय प्रशासन की मदद के लिए सेना की तीन टुकड़ियां तैनात की गईं। इनमें दो असम और एक त्रिपुरा में लगाई गई। हालांकि सेना की यह तैनाती बहुत संक्षिप्त अवधि के लिए हुई और जल्द ही कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी स्थानीय पुलिस को सौंप दी गई।

भाजपा ने विरोध प्रदर्शनों के बारे में अनावश्यक टिप्पणियां कर आग में घी डालने का किया काम

भाजपा और सरकार से जुड़े कुछ लोगों ने भी विरोध प्रदर्शनों के बारे में अनावश्यक टिप्पणियां कर स्थिति बिगाड़ने का काम किया। इसी सिलसिले में मोदी सरकार के एक मंत्री ने कहा, ‘हमें जिहादियों, माओवादियों और अलगाववादियों को लेकर चौकस रहना होगा जो छात्रों के विरोध प्रदर्शनों में शामिल हो रहे हैं।’ ऐसी बातों के भारत की आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों के लिए गंभीर परिणाम हो सकते हैं। सुरक्षा पेशेवर अक्सर ऐसी चुनौती को कम तीव्रता संघर्ष वाली आंतरिक सुरक्षा चुनौती के रूप में देखते हैं। भारत जनवरी 1990 से ही इस चुनौती से जूझ रहा है जब पाकिस्तान की शह पर भारत के खिलाफ कट्टरपंथी इस्लामिक ताकतों का उभार हुआ था।

भारत की आंतरिक सुरक्षा के समक्ष गंभीर चुनौतियां

भारत की आंतरिक सुरक्षा के समक्ष गंभीर चुनौतियां दो श्रेणियों में देखी जाती रही हैं। एक तो पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद, जिसकी जड़ें पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर राज्य में बेहद गहरी थीं। या फिर मुंबई में हुए वीभत्स आतंकी हमले को इसमें गिना जा सकता है। दूसरी चुनौती माओवादी-नक्सलवाद यानी वामपंथी चरमपंथ से जुड़ी है जिसने एक लाल गलियारा चिन्हित किया था जो अब छत्तीसगढ़ के एक छोटे इलाके तक सीमित रह गया है।

अवसरवादी राजनीतिक गतिविधियों से पैदा हुई चुनौतियां

बीते कई दशकों में भारतीय सुरक्षा तंत्र को तमाम जटिल आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों से जूझना पड़ा। ये चुनौतियां अक्सर अवसरवादी राजनीतिक गतिविधियों या कुछ दुस्साहसिक कवायदों से उत्पन्न हुईं। इनमें सबसे कुख्यात खालिस्तान आंदोलन रहा। हालांकि मौजूदा विरोध प्रदर्शन अतीत के ऐसे अनुभवों से इतर हैं। उन्हें दबाने के लिए वैसी सरकारी कड़ी कार्रवाई की दरकार नहीं जैसी हम उत्तर प्रदेश में देख रहे हैं। ऐसे में सीएए विरोधी प्रदर्शनों को देखते हुए एक सवाल यही उठता है कि क्या मोदी सरकार के इस कानून से भारत का पहले से ही जटिल आंतरिक सुरक्षा परिदृश्य और पेचीदा हो जाएगा।

मोदी सरकार ने दो अहम पहलुओं को मूर्त रूप दिया, जम्मू-कश्मीर राज्य के विभाजन और सीएए

मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में भाजपा के राजनीतिक एजेंडे के दो अहम पहलुओं को मूर्त रूप दिया है। इसमें एक तो 5 अगस्त को जम्मू-कश्मीर राज्य के विभाजन के रूप में और दूसरा 11 दिसंबर को सीएए के तौर पर किया गया। ऐसी कवायदों में मुस्लिमों को ‘अलग नजरिये’ से देखने की मंशा को लगभग 20 करोड़ की आबादी वाले ‘अल्पसंख्यक’ समुदाय द्वारा ही नहीं, बल्कि संविधान में विश्वास रखने वाले सभी भारतीयों द्वारा महसूस किया जा रहा है।

कश्मीर में कड़वाहट के साथ ठहराव साफ महसूस होता, 140 दिनों से इंटरनेट बंद

कश्मीर में अब कड़वाहट और तल्खी के साथ ठहराव साफ महसूस होता है। वहां पिछले 140 से भी अधिक दिनों से इंटरनेट बंद है।

अगर मोदी ने नागरिकों की चिंताएं दूर नहीं की तो देश का सामाजिक तानाबाना अस्थिर हो जाएगा

अधिकांश सुरक्षा विशेषज्ञों का यही अनुमान है कि आने वाली गर्मियां में कश्मीर में काफी अशांत हो सकती है। ऐसी स्थितियों में अगर मोदी सरकार ने नागरिकों की चिंताएं दूर करने के लिए सहानुभूति के साथ राजनीतिक संपर्क नहीं साधा तो देश का सामाजिक तानाबाना अस्थिर हो जाएगा। वहीं सीएए समर्थक और्र ंहदुत्व की राजनीतिक विचारधारा से जुड़े लोग खतरनाक बयान देकर माहौल बिगाड़ने में लगे हैं।

दिल्ली में भाजपा नेता सीएए के खिलाफ प्रदर्शनकारियों के लिए ‘गोली मारो गद्दारों को’ नारा दे रहे थे

कुछ नेता गोधरा कांड की याद दिला रहे हैं तो दिल्ली में भाजपा के एक स्थानीय नेता सीएए के खिलाफ प्रदर्शनकारियों के लिए ‘गोली मारो गद्दारों को’ सरीखे आपत्तिजनक नारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस बीच उत्तर प्रदेश और दिल्ली पुलिस पर आरोप हैं कि उन्होंने प्रदर्शनकारियों पर जरूरत से ज्यादा ताकत इस्तेमाल की। ऐसे में विभिन्न धर्मों के आक्रोशित नागरिक सवाल पूछ रहे हैं कि क्या उत्तर प्रदेश सरकार राजनीतिक मंशा के साथ सोचे-समझे दमन पर आमादा हो गई है।

आंतरिक सुरक्षा बहुत नाजुक और अस्थिर मुद्दा है

आंतरिक सुरक्षा बहुत नाजुक और अस्थिर मुद्दा है। इसमें भारत के अनुभव भी बहुत दर्दनाक रहे हैं। इनकी शुरुआत भारत विभाजन के साथ ही हो गई थी जब हिंदू-मुस्लिम विभाजन की खाई भयावह मानवीय त्रासदी बनी। फिर 1984 में सिख विरोधी दंगे, बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुई सिलसिलेवार हिंसा और 2002 के गुजरात दंगे तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व और सुरक्षा एजेंसियों की कमान संभालने वालों के मुंह पर कालिख हैं।

नागरिकों द्वारा विरोध प्रदर्शन के लोकतांत्रिक अधिकार की सुरक्षा सुनिश्चित

इस प्रकार देखें तो कोई भी जिम्मेदार एवं नैतिक राजव्यवस्था ऐसे अनुभवों से सही सबक लेकर नागरिकों द्वारा विरोध प्रदर्शन के लोकतांत्रिक अधिकार की सुरक्षा सुनिश्चित करेगी, भले ही उनके विचार कितने भी विरोधी क्यों न हों। संविधान की यही भावना है। उम्मीद है कि आगामी 26 जनवरी को इन भावनाओं का उत्साहपूर्वक उत्सव मनाया जाएगा।

( लेखक सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज के निदेशक हैं )