[ बलबीर पुंज ]: इसी 24 नवंबर को इस आशय की खबरें छपीं कि ‘सेंटिनली आदिवासियों को जीसस का संदेश देना चाहता था चाउ’। यह समाचार भारत की बहुलतावादी संस्कृति को मिलने वाली चुनौती, बहुसंख्यकों की आस्था पर कुठाराघात और सांप्रदायिक हिंसा के मूल कारणों को रेखांकित करता है। सतह पर यह मामला एक सामान्य हिंसक घटनाक्रम जैसा प्रतीत होता है, किंतु गहराई से देखें तो यह उस षड्यंत्र का पर्दाफाश करता है जो औपनिवेशिक चिंतक और चर्च वर्षों से भारतीय पहचान और परंपराओं को नष्ट करने हेतु रच रहे हैं, लेकिन कुछ ही समाचार माध्यमों ने वास्तविक साक्ष्यों को पाठकों के साथ साझा करने में ईमानदारी दिखाई, जबकि अधिकांश मीडिया खानापूर्ति करता रहा। इसके पहले आई इस खबर से सभी परिचित ही हैैं कि उत्तरी सेंटिनल द्वीप के मूल निवासियों ने 27 वर्षीय अमेरिकी नागरिक जॉन एलन चाउ को मार दिया था। जांच में स्पष्ट हुआ कि चाउ ने हर एक भारतीय नियम, कानून और अधिनियम की अवहेलना की। ऐसा नहीं है कि चाउ पहली बार अंडमान निकोबार आया था। वह सितंबर 2016 से लेकर अपनी दुर्भाग्यपूर्ण मौत से पहले तीन बार पोर्ट ब्लेयर आ चुका था।

अंडमान-निकोबार के कई क्षेत्र वर्षों से आदिवासी जनजाति संरक्षण अधिनियम, 1956 और भारतीय वन अधिनियम, 1927 के अंतर्गत प्रतिबंधित है। विदेशी पर्यटकों को इन क्षेत्रों में जाने के लिए शीर्ष प्राधिकरण से ‘रिस्ट्रिक्टेड एरिया परमिट’ यानी आरएपी लेना होता है, किंतु इस वर्ष जून में गृह मंत्रालय द्वारा आरएपी को उत्तरी सेंटिनल सहित 28 अन्य द्वीपों से हटा लिया गया। इसके बाद विदेशी पर्यटक किसी आधिकारिक स्वीकृति के लिए बाध्य तो नहीं रहे, किंतु उन्हें क्षेत्रीय रजिस्ट्रार अधिकारी को अपने ठहरने के बारे में जानकारी देने का प्रावधान अनिवार्य रखा गया। चाउ ने इन सभी की अनदेखी करते हुए स्थानीय मछुआरों को 25 हजार रुपये की घूस दी और एक नाव की मदद से 14 नवंबर की रात प्रतिबंधित क्षेत्र की ओर निकल गया। हैरानी है कि भारत में एक वर्ग इस कृत्य के लिए चाउ को साहसी पर्यटक या उत्साही यात्री के रूप में प्रस्तुत कर रहा है।

आखिर चाउ कौन था? किस मानसिकता और किस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उसने अपनी जान दांव पर लगा दी? जहां एक तरफ भारत में चाउ के वास्तविक उद्देश्य पर पर्दा डालने का संगठित प्रयास हो रहा है वहीं ‘इंटरनेशनल क्रिश्चियन कन्सर्न’ नामक ईसाई संगठन और अधिकांश विदेशी मीडिया ने सच्चाई उजागर करते हुए चाउ का वर्णन ईसाई मिशनरी/प्रचारक के रूप में किया है। क्या यह सत्य नहीं कि ईसा के माध्यम से चाउ सेंटिनल वासियों को उनकी जड़ों से काटकर ईसाइयत में दीक्षित करना चाहता था? दर्दनाक मौत से पहले चाउ ने अपने माता-पिता के नाम छोड़े पत्र में लिखा, ‘आप लोगों को लगता होगा कि मैं सनक गया हूं, किंतु उन्हें (सेंटिनल द्वीपवासी) जीसस के बारे में बताना आवश्यक है। उन लोगों से मेरा मिलना व्यर्थ नहीं है। मैं चाहता हूं कि वे लोग भी अपनी भाषा में प्रभु की आराधना करें। यदि मेरी मौत हो जाए तो आप इन लोगों या प्रभु से नाराज मत होना। मैं आप सभी से प्यार करता हूं और मेरी प्रार्थना है कि आप दुनिया में ईसा मसीह से अधिक किसी और से प्यार न करें।’ 13 पन्नों की यह चिट्ठी चाउ ने अपनी मदद करने वाले मछुआरों को सौंपी थी।

इसी पत्र में सेंटिनलवासियों से पहली बार मिलने का उल्लेख करते हुए चाउ ने लिखा, ‘दो सेंटिनली मेरी ओर चिल्लाते हुए बाहर निकले। उनके पास तीर थे। जैसे ही वे मेरे निकट आए, मैंने चिल्लाते हुए उनसे कहा, ‘मेरा नाम जॉन है, मैं तुमसे प्यार करता हूं और यीशु भी आपको प्यार करते हैं।’ आगे चाउ ने लिखा, ‘उनके हाथों में धनुष-बाण देखकर मैं घबरा गया। इसके बाद मैंने उनकी तरफ मछलियां फेंक दीं, लेकिन वे मेरे निकट आते ही जा रहे थे।’ पत्र के अनुसार, एक छोटे कद के आदिवासी या फिर एक छोटे बच्चे ने चाउ पर तीर चलाया जो सीधा उसकी बाइबल पर आकर लगा। जब सेंटिनलवासियों ने उसका पीछा करना शुरू किया तब उसे अपनी जान बचाने के लिए समुद्र में कुछ समय के लिए तैरना भी पड़ा। मछुआरों के अनुसार, 16 नवंबर को आखिरी बार प्रतिबंधित द्वीप के पास छोड़ने के बाद उन्होंने देखा कि अगले दिन आदिवासी एक शव को समुद्र तट पर दफना रहे थे।

क्या इस विवरण से स्पष्ट नहीं कि चाउ भी उसी ‘द वाइट मैन बर्डन’ मानसिकता से ग्रसित था जिससे प्रेरणा लेकर नाविक क्रिस्टोफर कोलंबस ईसाइयत के प्रचार-प्रसार के लिए मूर्तिपूजक भारत की खोज में निकला था और अकस्मात उसने अमेरिका की खोज की थी? क्या यह सत्य नहीं कि उन्हीं श्वेत शासकों की विस्तारवादी नीति और मजहबी दमनचक्र ने आज अमेरिका के मूल निवासियों और उनकी संस्कृति को किसी संग्राहालय की शोभा बढ़ाने तक सीमित कर दिया है और कुछ ऐसा ही चिंतन चाउ का भी था?

भारत की बहुलतावादी और कालजयी सनातनी परंपरा सदियों से भय, लालच और धोखे का शिकार रही है। देश में अधिकांश चर्चों और ईसाई मिशनरियों की विकृत ‘सेवा’ उसी गुप्त एजेंडे का हिस्सा है जिसकी नींव 15वीं शताब्दी में गोवा में पुर्तगालियों के आगमन और 1647 में ब्रितानी चैपलेन ने मद्रास पहुंचने पर रखी थीं। 1813 में चर्च के दवाब में अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया चार्टर में विवादित धारा जोड़ी, जिसके बाद ब्रिटिश पादरियों और ईसाई मिशनरियों का भारत में ईसाइयत के प्रचार-प्रसार का मार्ग साफ हो गया। तभी से भारतीय समाज के भीतर मतांतरण का खेल जारी है। आज भी स्वतंत्र भारत के कई क्षेत्रों में खुलेआम कथित आत्मा का कुत्सित व्यापार-विदेशी वित्तपोषित स्वयंसेवी संगठनों के समर्थन और वामपंथियों सहित स्वयंभू सेक्युलरिस्टों की शह पर धड़ल्ले से चल रहा है।

स्वतंत्रता से पूर्व नगालैंड और मिजोरम-दोनों आदिवासी बहुल क्षेत्र थे। 1941 में नगालैंड की कुल आबादी में जहां गिनती के केवल नौ ईसाई (लगभग शून्य प्रतिशत) थे और मिजोरम में ईसाइयों की संख्या केवल .03 प्रतिशत थी, वह यकायक 1951 में बढ़कर क्रमश: 46 और 90 प्रतिशत हो गई। 2011 की जनगणना के अनुसार, दोनों प्रांतों की कुल जनसंख्या में ईसाई क्रमश: 88 और 87 प्रतिशत है। मेघालय की भी यही स्थिति है। अब इतनी वृहद मात्रा में मतांतरण के लिए क्या-क्या हथकंडे अपनाए गए होंगे, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। क्या यह सत्य नहीं कि इसी जनसांख्यिकीय स्थिति के कारण इन इलाकों में चर्च का अत्यधिक प्रभाव है और वहां का एक वर्ग भारत की मुख्यधारा से कटा हुआ है?

जो केवल अपने ईश्वर को सत्य और अन्य को असत्य मानता है, जिसमें ‘काफिरों’ और ‘बुतपरस्तों’ को किसी भी तरह (छल, बल और लालच) से अपनी तरफ लाने को मजहबी दायित्व बताया गया है वही विषाक्त दर्शन बीते कई वर्षों से भारत की सनातन संस्कृति, बहुलतावादी परंपरा और लोकतांत्रिक मूल्यों का सबसे बड़ा शत्रु बना हुआ है।

[ लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]