नई दिल्ली [डॉ. महेश भारद्वाज]। एक अर्से से देश में रोजगार को लेकर बहस छिड़ी हुई है। रोजगार को लेकर चिंता की जितनी लकीरें युवाओं के चेहरों पर है उतनी ही सरकार के चेहरे पर भी, क्योंकि रोजगार एक बड़ा सवाल बनता जा रहा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2017 में रोजगार के करीब 1.5 करोड़ अवसर सृजित हुए। बावजूद इसके तेजी से बढ़ती युवा आबादी को रोजगार देना सरकार के लिए चुनौती बनता जा रहा है। इस समय देश की 65 प्रतिशत आबादी 35 वर्ष से कम आयु वाली है। इस बड़ी आबादी में देश को आगे ले जाने की अपार संभावनाएं निहित हैं, लेकिन उसे रोजगार और सही दिशा देना भी एक चुनौती है।

बेरोजगारी का मौजूदा आंकड़ा तीन करोड़ के करीब बताया जा रहा है। एक अध्ययन के मुताबिक अभी हर साल करीबन 80 लाख नौकरियों की जरूरत है और इसे संभव बनाने के लिए देश की मौजूदा विकास दर को ढाई गुना तक बढ़ाना होगा। 2016 तक के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार देश भर में कार्यरत सरकारी कर्मचारियों की संख्या दो करोड़ 15 लाख थी। इनमें केंद्र सरकार और राज्य सरकार के कर्मचारी तो शामिल हैं, लेकिन सेना के लोग शामिल नहीं है। देश की लगभग 1.5 प्रतिशत आबादी सरकारी नौकरी में है और प्रति एक लाख आबादी की सेवा के लिए 1622 सरकारी सेवक हैं।

रोजगार का मसला इसलिए पेचीदा होता जा रहा है, क्योंकि एक ओर युवाओं में बढ़ते निजीकरण के दौर में भी सरकारी नौकरी के प्रति आकर्षण बना हुआ है वहीं दूसरी ओर सरकारी दफ्तरों मे कामकाज की सुस्त कार्य संस्कृति और कुछ अन्य कारणों के चलते नौकरियां घटती जा रही हैं। एक तथ्य यह भी है कि औसत आयु में बढ़ोतरी के कारण सेवानिवृत्ति की आयु सीमा बढ़ाने की मांग उठ रही है। स्वास्थ्य की बेहतर देखभाल के चलते औसत आयु सीमा में वृद्धि हो रही है। आज रिटायर होने के बाद भी लोगो के पास काफी लंबा जीवन होता है और उनका स्वास्थ्य भी काम करने लायक रहता है। ऐसे में वे चाहते हैं कि उन्हें कुछ और बरस काम करने दिया जाए।

तर्क दिया जाता है कि नए नियुक्त लोगों को काम करने योग्य बनाने से पहले प्रशिक्षित करने की जरूरत होती है जबकि सेवारत लोग पहले से प्रशिक्षित होते हैं और उन्हें लंबा अनुभव भी होता हैं। इन्हीं दलीलों के चलते चिकित्सा, शिक्षा, अनुसंधान आदि से संबंधित विभागों में सेवानिवृत्ति की आयु सीमा बढ़ा भी दी गई है, जबकि कुछ अन्य क्षेत्रों में विचार हो रहा है। इस विचार केरास्ते में यदि कोई रुकावट है तो वह है बेरोजगार युवाओं की बढ़ती संख्या जिसे ज्यादा लंबे समय तक नजरंदाज भी नहीं किया सकता। इस लिहाज से कुछ लोगों का मानना है कि बढ़ती औसत आयु और सेवारत लोगों की काम करते रहने की इच्छा के कारण भी रोजगार के नए अवसर सृजित नहीं हो रहे हैं।

यह एक नई तरह की चुनौती है जिससे निपटने के लिए तरह-तरह के उपाय सुझाए जा रहे हैं। पारंपरिक सोच कहती है कि लोग समय पर रिटायर हों और उनके स्थान पर बिना देरी के नए लोगों को नौकरी मिले, जबकि नई सोच रोजगार के नए अवसरों के सृजन की वकालत करती है। तर्कसंगत तो यही लगता है कि जहां-जहां सेवानिवृत्ति की आयु सीमा में बढ़ोतरी की जा रही है वहां-वहां रोजगार के अवसर बढ़ाने पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।

सरकारी क्षेत्र में रोजगार के अवसरों में कमी के लिए कुछ जिम्मेदार हमारे वे कर्मचारी भी हैं जिन्होंने सरकारी विभागों मे एक नई कार्य संस्कृति को जन्म दिया है। इसके तहत कुछ लोगों ने निष्ठा और लगन से काम करना छोड़ दिया है। ऐसे लोग जिस शिद्दत से अपने निजी काम करते हैं वैसी शिद्दत सरकारी काम में नहीं दिखाते। ऐसे लोग बड़ी जल्दी वेतन को पेंशन समझने लग जाते हैं। उदाहरण के रूप में कई शिक्षकों का ध्यान सरकारी शिक्षण संस्था में पढ़ाने में कम होता है जबकि ट्यूशन या कोचिंग में ज्यादा। इसका एक नतीजा यह है कि सरकारी स्कूलों में पठन-पाठन का स्तर गिरा है और लोगों ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजना कम कर दिया है। कई डॉक्टर भी ऐसे हैं जो सरकारी अस्पतालों के बजाय अपने क्लीनिक में ज्यादा समय देते हैं। इसका एक परिणाम सरकारी अस्पतालों की गिरती दशा के रूप में सामने आ रहा है और दूसरा निजी अस्पताल में बढ़ती भीड़ के रूप में। जब सरकारी स्कूलों में विद्यार्थी कम होंगे और अस्पतालों में रोगी कम होंगे तो वहां काम करने वाले कर्मचारियों की संख्या घटना स्वाभाविक है। स्कूलों और अस्पतालों जैसा हाल अन्य विभागों का है।

हालांकि सरकारों ने शिथिल और लापरवाह अथवा भ्रष्ट कर्मचारियों को अनुशासनात्मक कार्रवाई करके हटाना शुरू किया है, लेकिन न्यायपालिका की उदारता से उन्हें हटाना मुश्किल होता है। कई कर्मचारी मुकदमा लड़कर नौकरियों में पूरे लाभ सहित लौट आते हैं। इस समस्या का आर्थिक पक्ष भी है। एक सरकारी कर्मचारी पर किसी काम के लिए सरकार जितना खर्च करती है वही काम उससे काफी कम खर्च में और बेहतर तरीके से निजी क्षेत्र के लोग करके दे रहे हैं। चूंकि मौजूदा दौर में धन की बचत सरकार के लिए भी मायने रखती है इसलिए पिछले कुछ बरसों से किफायत और गुणवत्ता के मद्देनजर ज्यादा से ज्यादा सरकारी काम बाहर से कराने पर जोर बढ़ता जा रहा है। अब तो जहां-जहां संभव है, सरकारी विभाग अपना ज्यादा से ज्यादा काम बाहर से कराने लगे हैं। जाहिर है कि आउटसोर्सिंग भी सरकारी नौकरियों में कमी का एक कारण बन रही है और निजी क्षेत्र का तेजी से विकास हो रहा है। ऐसे में निजी क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की मांग बढ़ना स्वाभाविक है।

इसी कारण रोजगार के अवसर निजी क्षेत्र में तो बढ़ते जा रहे, लेकिन सरकारी क्षेत्र में घट रहे हैं। निजी क्षेत्र के अपेकक्षाकृत कम संगठित होने के कारण उसमें सृजित रोजगार के अवसरों की गिनती भी ठीक से नहीं हो पा रही है। इस कारण सरकारी क्षेत्र में नौकरियों की कमी की बात तो सब कर रहे हैं, लेकिन निजी क्षेत्र में बढ़ रहे रोजगार के अवसरों को गिना ही नहीं जा रहा और अगर गिना भी जा रहा तो कुछ लोग उस पर सवाल उठाने में देर नहीं कर रहे हैं।

यह सही है कि किसी जमाने में देश में गैर सरकारी और निजी क्षेत्र आज जितना विकसित नहीं था और सबकी नजर सरकारी नौकरियों पर ही लगी रहती थी, लेकिन अब जब निजीकरण के चलते देश में गैर सरकारी और निजी क्षेत्र फलफूल रहा है तो वहां उपलब्ध रोजगार के अवसरों को कम महत्वपूर्ण क्यों माना जाए? आज जरूरत इस बात की है कि हमारे युवा केवल सरकारी नौकरी को ही रोजगार मानने की मानसिकता से बाहर निकलें। इसके साथ ही निजी क्षेत्र को भी केवल लाभ कमाने के दृष्टिकोण से बाहर निकालकर अपने कर्मचारियों के बारे में एक उदारवादी और कल्याणकारी सोच अपनानी होगी। इसी के साथ सरकार को भी निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के हितों को सुनिश्चित बनाने के लिए कुछ उपाय करने होंगे।

(लेखक भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी हैं)