[ ए. सूर्यप्रकाश ]: सरदार वल्लभभाई पटेल की जयंती पर उनकी विरासत को लेकर फिर से खींचतान शुरू होती दिखी। एक लंबे अर्से तक पटेल की उपेक्षा करने वाली कांग्रेस को यकायक पटेल खास लगने लगे हैं। पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने कहा कि पटेल प्रतिबद्ध कांग्रेसी और नेहरू के निकट सहयोगी थे। उन्होंने भाजपा का यह कहते उपहास भी उड़ाया कि वह पटेल की विरासत पर कब्जा करने की जुगत में लगी है। वैसे प्रियंका कांग्रेस की पहली ऐसी नेता नहीं हैं जिन्होंने सरदार पटेल की स्तुतिगान करते हुए भाजपा पर सवाल उठाए कि वह कैसे उनकी विरासत पर दावा कर सकती है? बीते पांच वर्षों में पार्टी के कई और नेता भी ऐसा कर चुके हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि उन्होंने ऐसा करने में बहुत देर कर दी है, क्योंकि अब कोई उनके रुख से सहमत नहीं दिखता। इसकी वजह यह है कि सरदार को लेकर कांग्रेस पार्टी के मौजूदा दावे खोखले हैं। इस मुद्दे की पड़ताल से पहले हमें भारत को एकजुट करने वाले एकता के सूत्रधार यानी सरदार पटेल की असाधारण उपलब्धियों पर दृष्टि डालनी होगी।

सरदार वल्लभभाई पटेल को भारत का बिस्मार्क कहा जाता है

सरदार वल्लभभाई पटेल को भारत का बिस्मार्क कहा जाता है। उन्होंने भारत में करीब 560 रियासतों को मिलाने का असंभव सा काम संभव कर दिखाया था। इन रियासतों के पास विकल्प थे कि वे या तो भारत का हिस्सा बनें या पाकिस्तान का या फिर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखें। कुछ रियासतों ने भारत और पाकिस्तान के साथ जळ्ड़ने का मन बना लिया, फिर भी भारत के पूर्णत: एकीकरण पर संदेह के बादल मंडरा रहे थे। जैसे हैदराबाद के निजाम और जूनागढ़ के नवाब ने पाकिस्तान के साथ जाने का निर्णय किया तो भोपाल के शासक स्वतंत्र रहना चाहते थे। ऐसे में पटेल ने इन रियासतों को अपनी सूझबूझ से मनाया और जरूरत पड़ने पर दबाव भी डाला।

सरदार पटेल ने पिरोया राष्ट्र को एक कड़ी में

उनके दृढ़निश्चय के बिना एक भारत का विचार मूर्त रूप नहीं ले पाता। आजादी के समय जो भारत था, भविष्य में उसके बिखरने की और आशंका थी। ऐसे में अपने भौगोलिक एवं राजनीतिक एकीकरण के लिए हम सरदार पटेल के कृतज्ञ हैं। अपनी गिरती सेहत के बावजूद उन्होंने यह भागीरथ काम किया। राष्ट्र को एक कड़ी में पिरोने के दौरान ही 15 दिसंबर, 1950 को उनका निधन हो गया।

कश्मीर पर नेहरू की हीलाहवाली देखकर पटेल ने महाराजा से साइन करवा लिए

कश्मीर को लेकर जहां नेहरू हीलाहवाली में जुटे थे वहीं सरदार पटेल ने महाराजा से विलय की संधि पर हस्ताक्षर करा लिए। उन्होंने सुनिश्चित किया कि पाकिस्तानी हमलावरों ने निपटने के लिए सैनिकों की टुकड़ी समय से श्रीनगर पहुंचे। विलय की संधि पर दस्तखत के अगले दिन ही भारतीय सैनिक वहां पहुंच गए। तब ऐसे विकट हालात थे कि यह कहना कठिन था कि फौजियों को लेकर जा रहा जहाज श्रीनगर हवाईअड्डे पर उतर भी पाएगा या नहीं, क्योंकि पाकिस्तानी घुसपैठिये भीतर घुस आए थे। सौभाग्य से सैनिकों की पहली टुकड़ी सकुशल हवाईअड्डे पर उतर गई और उसने आसपास के इलाके को सुरक्षित कर लिया ताकि और सैनिकों का आगमन हो सके।

नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र में जाकर कर दिया कश्मीर मसले का अंतरराष्ट्रीयकरण 

भारतीय सेना ने अप्रतिम शौर्य दिखाते हुए कई इलाकों को पाकिस्तानी कब्जे से मुक्त करा लिया। जब सेना पूरी बहादुरी के साथ आगे बढ़ रही थी तब नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र की शरण में जाने का घातक फैसला कर लिया। इस तरह कश्मीर मसले का अंतरराष्ट्रीयकरण हो गया।

सरदार पटेल कांग्रेस के अनुशासित सिपाही थे

सरदार पटेल के व्यक्तित्व में लौहपुरुष की छवि से बढ़कर भी बहुत कुछ है। वह कांग्रेस के अनुशासित सिपाही थे। शायद नेहरू से भी ज्यादा अनुशासित, क्योंकि वर्ष 1946 में उन्होंने पार्टी के लिए असाधारण बलिदान दिया। उस वर्ष कांग्रेस पार्टी को अपना नया अध्यक्ष चुनना था। उसे ही आजाद भारत का पहला प्रधानमंत्री बनना था। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने सभी 15 प्रदेश समितियों से नामांकन मंगाए। उन 15 में से 12 समितियों ने सरदार पटेल के नाम पर मुहर लगाई जबकि अन्य समितियों ने किसी का नाम नहीं लिया। यानी नेहरू को एक भी प्रदेश कांग्रेस समिति का समर्थन नहीं मिला।

पटेल ने गांधी के हस्तक्षेप पर नेहरू के लिए किया था बलिदान

इसके बावजूद नेहरू ने महात्मा गांधी के सामने स्पष्ट कर दिया कि वह किसी के मातहत या नायब बनकर काम नहीं कर सकते। तब गांधी ने हस्तक्षेप किया और पटेल को कदम पीछे खींचने पड़े। यह कांग्रेस पार्टी की एकजुटता के लिए किया गया बलिदान था। आजादी के बाद से ही कांग्रेस पार्टी एक परिवार के स्वामित्व वाली प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के माफिक संचालित होती आई है। उसने नेहरू-गांधी परिवार से जुड़े लोगों के योगदान का तो खूब महिमामंडन किया, लेकिन देश की तमाम अन्य विभूतियों की निरंतर उपेक्षा की। कांग्र्रेस में यह सिलसिला नेहरू के दौर में ही शुरू हो गया था। सरदार पटेल के अलावा डॉ. भीमराव आंबेडकर, सुभाष चंद्र बोस और लाल बहादुर शास्त्री जैसे नायक गांधी-नेहरू परिवार के इस दुराग्र्रह के शिकार हुए। भारत के सबसे बेहतरीन प्रधानमंत्रियों में से एक रहे पीवी नरसिम्हा राव को भी पार्टी की बेरुखी झेलनी पड़ी।

सरदार पटेल और आंबेडकर को नहीं मिल पाया भारत रत्न

सरदार पटेल ने हमें एकजुट भारत दिया, फिर भी नेहरू ने उन्हें भारत रत्न से नहीं नवाजा। इसके बजाय 1955 में नेहरू ने स्वयं को इस सम्मान से अलंकृत किया। इसी तरह 1971 में इंदिरा गांधी ने अपनी ही सरकार में भारत रत्न ले लिया और राजीव गांधी को भी मरणोपरांत 1991 में भारत रत्न दिया गया। इनमें से किसी भी नेता ने पटेल या आंबेडकर को इस सम्मान के लायक नहीं समझा। आखिरकार गैर-कांग्रेसी सरकारों ने ही इन दोनों महान नेताओं को देश का सर्वोच्च सम्मान दिया।

शास्त्री और राव की उपलब्धियों को नकार दिया गया

नेहरू-गांधी परिवार देश के दो प्रधानमंत्रियों लाल बहादुर शास्त्री और पीवी नरसिम्हा राव की लोकप्रियता और उपलब्धियों को लेकर भी ईर्ष्यालु रहा। शास्त्री ने पाकिस्तान के खिलाफ जंग जिताई तो राव ने 1991-96 के दौरान पंजाब में अलगाववाद को जड़ से खत्म किया और भारत को आर्थिक संकट से भी उबारा जब देश को दो सौ टन सोना तक गिरवी रखना पड़ा था। उनके कार्यकाल के अंत तक भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 50 अरब डॉलर तक हो गया था। वह पांच वर्ष कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे, मगर जब 2004 में उनका निधन हुआ तो गांधी परिवार ने आदेश दिया कि उनके शव को पार्टी मुख्यालय में न आने दिया जाए।

मोदी ने पटेल की विशाल प्रतिमा बनवाकर उनके योगदान को दी सच्ची श्रद्धांजलि

सौभाग्यवश प्रधानमंत्री मोदी ने गुजरात में सरदार पटेल की विशाल प्रतिमा का निर्माण कराकर उनके योगदान को सच्ची श्रद्धांजलि दी है। यह दुनिया में सबसे ऊंची प्रतिमा है। पटेल के स्मरण से उस राजनीतिक परिवार का चेहरा भी बेनकाब होगा जो अपने दुराग्रह के कारण बीते सात दशकों तक लौहपुरुष की उपलब्धियों की अनदेखी करता रहा। अब वे कितनी भी कोशिशें कर लें, लेकिन उनकी विरासत कभी हासिल नहीं कर पाएंगे। सरदार अब एक अरब से ज्यादा कृतज्ञ लोगों के दिलों में बस गए हैं।

( लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )