तरुण गुप्त। इस महीने पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे आए। अगले दौर के चुनावों के बीच कुछ अंतराल है। ऐसे में यह सबसे अनुकूल समय है कि गुड गवर्नेंस यानी सुशासन के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया जाए। शासन प्रणाली में भारत एक परिसंघ का आभास कराता है, परंतु वास्तव में वह राज्यों का एक अविनाशी संघ है। राज्यों के इस संघ में केंद्र सरकार राज्यों की सरकारों से कहीं अधिक शक्तिशाली है।

संवैधानिक-प्रशासनिक बिंदुओं से भले ही यह पुष्ट होता हो, परंतु जब हम जीवन की गुणवत्ता से जुड़े कई मानकों पर दृष्टि डालते हैं, तो उनमें राज्य सरकारों का अधिक प्रभाव दिखता है। अभी जिन पांच राज्यों में चुनाव हुए, वहां जनता ने सरकारों को स्पष्ट जनादेश के साथ चुना है। उनके पास एक ऐसा मंच है, जहां से वे विलंबित समस्याओं का समाधान करें। ऐसी तमाम समस्याएं समाधान की बाट जोह रही हैं। इनमें से एक समस्या लंबे समय से प्रतीक्षारत है, जिसने हमारी शहरी व्यवस्था, उसके समग्र ढांचे और नागरिकों को त्रस्त किया हुआ है। यह परेशानी स्थानीय निकाय प्रशासन से जुड़ी हुई है। इस मोर्चे पर अत्यंत खराब स्थितियां हमारी आर्थिक प्रगति को झुठलाती दिखती हैं।

हमारे शहर स्वस्थ जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं के लिए संघर्षरत हैं। यहां-वहां गंदगी और कचरे का ढेर दिखना आम है। कचरा उठाना, उसे वर्गीकृत कर अलग करना और उसके निस्तारण का स्तर बहुत लचर है। सीवेज और ड्रेनेज सिस्टम बाबा आदम के जमाने के हैं। खुले नाले निर्ममता से अमूल्य जीवन को लील रहे हैं। अतिक्रमण बेलगाम है। फुटपाथ गायब हो रहे हैं। सड़कें अक्सर दूसरे मानसून का मुंह नहीं देख पातीं। पहले से कायम छुट्टा पशुओं की समस्या पर यदि लगाम नहीं लगाई गई तो यह एक बड़ा खतरा बन जाएगी। पालतू जानवरों के पालकों को न तो नियमों की जानकारी है और न ही उनके अनुपालन के प्रति उनकी कोई दिलचस्पी। गंदगी, थूकना और क्षुद्रता भरा आचरण बदस्तूर कायम हैं। इनसे निपटने के लिए कानून और दंड प्रविधान तो किए गए हैं, लेकिन उन्हें कभी गंभीरता से अमल में नहीं लाया जाता और वे कागजी बनकर रह गए हैं। ऐसी अराजकता के बीच प्रशासनिक तंत्र बेपरवाह और नागरिक कभी असहाय, कभी निराश और दुर्भाग्यवश कई बार उसमें सक्रिय रूप से भागीदार होते हैं। ऐसे में कोई हैरानी नहीं कि हमारे शहर गंदे और प्रदूषित शहरों की श्रेणी में अव्वल आते हैं।

शिक्षा और स्वास्थ्य का हमारे जीवन की गुणवत्ता से सीधा सरोकार है। ये विषय समवर्ती सूची में शामिल हैं, जहां केंद्र और राज्यों, दोनों को अपनी भूमिका निभानी है। अधिकांश टीयर-2 और टीयर-3 शहर उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधाओं से बड़े पैमाने पर वंचित हैं। रोजगार के अवसरों की कमी के अलावा गुणवत्तापरक शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव लोगों के अपने गृहनगरों को छोडऩे की एक बड़ी वजह है। परिणामस्वरूप छोटे शहरों से कुछ बड़े शहरों में पलायन की बाढ़ आ जाती है। इससे उन बड़े शहरों के बुनियादी ढांचे पर दबाव बढ़ता है। इस रुझान को केवल छोटे एवं मझोले शहरों में सुविधाएं बढ़ाकर ही पलटा जा सकता है।

अक्सर कहा जाता है कि भारत गांवों में वास करता है और किसान एवं कामगार देश के सच्चे प्रतिनिधि हैं। मेरी दृष्टि में ऐसी बातें कालातीत हो चुकी हैं। आज ऐसे वर्गों के साथ-साथ भारत का शिक्षित मध्य वर्ग देश का वास्तविक प्रतिनिधि बनकर उभरा है, जो छोटे-बड़े शहरों में निवास करता है। वह अर्थव्यवस्था को गति देने वाला पहिया और विमर्श को गढऩे वाला जनमत निर्माता है। सरकार इस वर्ग के लिए भी सेवाओं की गुणवत्ता सुधारने के दायित्व से बंधी है। वित्तीय एवं बौद्धिक संसाधनों तक बेहतर पहुंच वाली केंद्र सरकार इसके लिए योजना तो बना सकती है, लेकिन उसके क्रियान्वयन में बड़ी भूमिका तो राज्य सरकारों की ही होती है। हमें यह विस्मृत नहीं करना चाहिए कि सुशासन में जितना महत्व किसी योजना की संकल्पना का है, उतना ही उसे मूर्त रूप देने का भी। ऐसे में यह सोचना स्वाभाविक प्रतीत हो सकता है कि हमारे यहां जिस प्रकार की त्रिस्तरीय शासन प्रणाली है, उसमें क्या हम राज्य सरकारों को उसके लिए दोषी नहीं ठहरा रहे हैं, जो वास्तव में स्थानीय निकायों की विफलता है? वास्तविकता तो यह है कि छोटे शहरों में नगरपालिकाएं इतनी निस्तेज हैं कि वे चर्चा करने योग्य भी नहीं हैं। उनकी क्षमताओं में सुधार एवं सशक्तीकरण भी राज्यों का ही विषय है। राज्य सरकारें संघीय ढांचे की दुहाई देकर विकेंद्रीकरण की मांग तो करती रहती हैं। जबकि वे खुद शक्ति संकेंद्रण की दोषी हैं और इस प्रक्रिया में शासन के तीसरे स्तर को कमजोर कर रही हैं।

कानून एवं व्यवस्था, जो कि मूल रूप से राज्यों का विषय है, के साथ ही यदि राज्य सरकारें स्वच्छता, स्थानीय निकाय सुशासन, शिक्षा और स्वास्थ्य की दिशा में सक्रियता दिखाएं तो जबरदस्त कायाकल्प सुनिश्चित होगा। इससे पूंजी निवेश और रोजगार सृजन में स्वाभाविक रूप से सहवर्ती तेजी देखने को मिलेगी। असल में किसी शहर का वास्तविक आकार उसके भूगोल और जनसांख्यिकी से कहीं अधिक उसकी अंतर्निहित संभावनाओं से निर्धारित होता है। मसलन क्या उसमें अपनी जनता की आकांक्षाओं की पूर्ति करने की क्षमताएं हैं?

कोई शहर वास्तव में तब छोटा हो जाता है, जब उसमें रहने वालों के सपने उससे बड़े हो जाते हैं। जब आपको अवसरों की कमी के कारण अपने गृहनगर और अनुकूल परिवेश से मजबूरन बाहर निकलना पड़े तो यह बहुत कचोटता है। बाहरी निवेश की बात तो भूल ही जाइए, पहली सफलता तो स्थानीय निवेश और प्रतिभाओं को सहेजने से ही जुड़ी है। हमारे महानगरों पर बोझ घटाने का भी यह एक तार्किक उपाय है। यह संदेश केवल नई चुनी हुई सरकारों के लिए ही नहीं, बल्कि सभी राज्य सरकारों के लिए है।