[ जगदीप एस छोकर ]: सूचना अधिकार कानून यानी आरटीआइ में संशोधन का एक और प्रयास शुरू हो गया है। यह प्रयास पहले किए गए प्रयासों से कुछ हटकर है। अब तक किए गए प्रयासों में संशोधन प्रस्ताव का मसौदा बनाकर विभिन्न वर्गों और जनता के बीच चर्चा के लिए रखा जाता था। वर्तमान संशोधन प्रस्ताव को बिना किसी चर्चा के सीधे ही संसद में पेश कर दिया गया। यह शायद इस बात का संकेत है कि सरकार यह निर्णय ले चुकी है कि इसे तो पारित करवाना ही है। इस निर्णय में सत्तारूढ़ दल के लोकसभा में भारी बहुमत का भी कुछ असर लगता है।

सूचना अधिकार कानून  2005 में लागू

सूचना अधिकार कानून 2005 में लागू हुआ था। संसद ने इसे सर्वसम्मति से पारित किया था। इसके लागू होने के एक साल बाद ही इसे संशोधित करने का प्रस्ताव किया गया था। थोड़ा गहराई में जाने से पता चला कि संशोधन का असली उदेश्य तो कानून को कमजोर करना था। यह पता लगते ही सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं ने इसका पुरजोर विरोध किया, जिसके कारण सरकार ने इस प्रस्ताव को वापस ले लिया। ऐसे ही प्रस्ताव तीन बार आगे बढ़ाने के प्रयास किए गए, लेकिन विरोध के चलते उन्हें वापस लेना पड़ा।

RTI में बदलाव

मौजूदा सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में भी इस कानून में बदलाव लाने का प्रयत्न किया, लेकिन उसे वापस ले लिया गया था। अब जिन संशोधनों को मूर्त रूप देने का प्रस्ताव है उनके अंतर्गत सूचना आयुक्तों की हैसियत और कार्य तथा सेवा की स्थिति में महत्वपूर्ण बदलाव किए जाएंगे। वर्तमान में सूचना आयुक्तों की हैसियत और कार्य तथा सेवा की स्थिति संसद के नियंत्रण में है।

सूचना आयुक्त केंद्र सरकार के अधीन हो जाएंगे

अगर प्रस्तावित संशोधन पारित हो जाते हैं तो ये सभी अधिकार पूर्णतया केंद्र सरकार को मिल जाएंगे और सरकार जो चाहे, बिना संसद की स्वीकृति लिए, कर सकेगी। इसका परिणाम होगा कि सूचना आयुक्त पूर्णत: केंद्र सरकार के अधीन हो जाएंगे। उनकी स्वतंत्रता बिल्कुल खत्म हो जाएगी। ऐसी स्थिति में सूचना आयोग कोई भी फैसला सरकार की मर्जी के खिलाफ लेने में बहुत घबराएगा। वास्तव में तो सरकार की मर्जी के खिलाफ कोई भी फैसला नहीं ले पाएगा।

RTI का बुनियादी उदेश्य नागरिकों को सूचना दिलवाना

सूचना कानून का बुनियादी उदेश्य नागरिकों को सरकार से सूचना दिलवाना ही है। खासतौर पर ऐसी सूचना जिसे सरकार छिपाना चाहती है। यदि सूचना आयोग सरकार की इच्छा के खिलाफ कोई भी फैसला नहीं लेगा, या नहीं ले सकेगा तो सूचना आयोग सूचना अधिकार कानून के बुनियादी उदेश्य को पूरा कर ही नहीं पाएगा। ऐसे में सूचना अधिकार कानून और सूचना आयोग के होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। पिछले लगभग 14 वर्षों में, जबसे सूचना अधिकार कानून लागू हुआ है, तबसे लगभग 40 से 60 लाख नागरिकों ने इसका प्रयोग करके अपने मूल अधिकारों की रक्षा की है या सरकारी प्रतिष्ठानों से अपने लिए विधिसम्मत सेवाएं प्राप्त की हैं।

नागरिकों का सशक्तीकरण

स्वतंत्रता के बाद यह पहला कानून है जिसने साधारण नागरिकों का सशक्तीकरण किया है। इसे कमजोर करने से देश में आम नागरिकों की साझेदारी और भी कम हो जाएगी। ऐसा क्यों है कि हर सरकार इस कानून को बदलना चाहती है? इस प्रश्न के कई उत्तर हो सकते हैं। सबसे पहले तो यही दिमाग में आता है कि सभी सरकारें अपने कामकाज को गुप्त रखना चाहती हैं। गुप्त रखने का कारण मुख्य रूप से यही होता है कि कुछ गलत काम किए जाते हैं जिन्हें या जिनके कारणों को सार्वजनिक करने से सरकार की छवि पर आंच आ सकती है।

RTI संशोधन बिल लोक सभा से पारित

इस परिप्रेक्ष्य में इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले यह बताना आवश्यक है कि जब यह विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया गया तो पहले तो कुछ राजनीतिक दलों ने इसका काफी विरोध किया, लेकिन जब लोकसभा में मत विभाजन के समय मतदान हुआ तो इसके पक्ष में 224 सांसदों ने मत दिया और इसके विरोध में मात्र नौ सांसदों ने मतदान किया। इस दौरान कुछ विपक्षी दलों के सांसद सदन से बाहर चले गए।

6 राष्ट्रीय दल RTI के दायरे में

केवल नौ सांसदों का विरोध इस बात का संकेत लगता है कि विपक्षी दलों में भी इस संशोधन प्रस्ताव से कुछ न कुछ सहानूभुति तो है। ऐसा आखिर क्यों है? इस प्रश्न का उत्तर केंद्रीय सूचना आयोग के 3 जून, 2013 के फैसले में मिलता है। इस फैसले में केंद्रीय सूचना आयोग की पूर्ण खंडपीठ ने कहा कि छह राष्ट्रीय राजनीतिक दल सूचना अधिकार कानून के अंतर्गत पब्लिक अथॉरिटी हैं। इनमें भारतीय जनता पार्टी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्र्रेस, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्र्रेस पार्टी, माकपा और भाकपा शामिल हैं।

केंद्रीय सूचना आयोग के फैसले की अवहेलना

इनके आरटीआइ के दायरे में आने का अर्थ यह था कि इन सभी दलों को अपने सार्वजनिक सूचना अधिकारी नियुक्त करने होंगे और सूचना अधिकार कानून के अंतर्गत मांगी हुई सूचनाएं देनी होंगी। इन सभी छह दलों ने केंद्रीय सूचना आयोग के इस फैसले की खुलेआम अवहेलना की। इस आदेश का पालन न करने के लिए इन राजनीतिक दलों ने केंद्रीय सूचना आयोग के नोटिसों को भी नजरअंदाज किया।

RTI राजनीतिक दलों पर लागू नहीं होना चाहिए

इस कारणवश केंद्रीय सूचना आयोग ने 16 मार्च 2015 को कहा कि वह कानूनी तौर पर अपने सही फैसले को लागू करवाने में असमर्थ है। अब यह मामला उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है जहां केंद्र सरकार ने अपने शपथपत्र में कहा है कि सूचना अधिकार कानून राजनीतिक दलों पर लागू नहीं होना चाहिए। समझना कठिन है कि यह क्यों नहीं लागू होना चाहिए?

सूचना अधिकार कानून सरकारों के निशाने पर

असलियत तो यह है कि चाहे कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में हो, सूचना अधिकार कानून सदैव सरकारों के निशाने पर रहेगा, लेकिन इसको बचाना और कमजोर न होने देना, नागरिकों का सर्वोपरि कर्तव्य है। सूचना अधिकार संबंधी संशोधन विधेयक के लोकसभा से पारित होने के बाद राज्यसभा में पेश किया गया। वहां यह मांग उठ रही है कि इसे सेलेक्ट कमेटी को भेजा जाए। देखना है कि ऐसा हो पाता है या नहीं?

संशोधन विधेयक को सेलेक्ट कमेटी के पास भेजा जाए

देखना यह भी है कि अगर विपक्ष की मांग के चलते इस संशोधन विधेयक को सेलेक्ट कमेटी के पास भेजा जाता है तो वह उसके मूल स्वरूप को बचाने का काम करती है या नहीं? जो भी हो, उम्मीद की जाती है कि सूचना अधिकार कार्यकर्ता समुदाय इस अत्यंत महत्वपूर्ण कानून की रक्षा करने में जरूर सफल होगा। अगर नहीं हुआ तो देश के लोकतंत्र को बहुत बड़ी क्षति होगी।

( लेखक एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स के संस्थापक सदस्य हैं )