सीबीपी श्रीवास्तव । हम भारत के लोगों ने जब अपना संविधान बनाया था और उसे अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित किया था तब ही हमने अपने देश को पंथनिरपेक्ष बनाने का संकल्प लिया था। यह पंथनिरपेक्षता धार्मिक सहिष्णुता के रूप में संविधान में शामिल की गई। इसी आधार पर संविधान में सभी व्यक्तियों को समान रूप से धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार दिए गए। यह भी प्रविधान किया गया कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा और सर्व धर्म समभाव प्रचलित होगा। इसके बावजूद कई अवसरों पर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाले कार्यों और वक्तव्यों के कारण सांप्रदायिकता भड़कती रही। फिर एक गंभीर प्रश्न उभर गया कि क्या भारत के एक पंथनिरपेक्ष राज्य होने के बावजूद हमारा समाज अब तक पंथनिरपेक्ष नहीं बन पाया है? ध्यातव्य हो कि 1851 में जार्ज होल्योक ने 'सेक्युलरिज्म' शब्द का प्रयोग किया था। इसके तहत उन्होंने किसी भी प्रचलित धार्मिक विश्वास की आलोचना किए बिना राज्य और धर्म को अलग करने वाली एक सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था बनाने की बात कही थी। यह संकल्पना पश्चिमी राष्ट्रों में राज्य पर धर्म के बढ़ते प्रभाव की पृष्ठभूमि में विकसित हुई थी। बाद में एक अमेरिकी संस्था इंस्टीट्यूट फार द स्टडी आफ सेक्युलरिज्म इन सोसायटी एंड कल्चर के प्रमुख बैरी कोस्मिन ने पंथनिरपेक्षता के दो स्वरूपों की पहचान की। कठोर अर्थात राज्य और धर्म का पूर्ण पृथक्कीकरण और नरम अर्थात धार्मिक सहिष्णुता। भारत में नरम पंथनिरपेक्षता अपनाई गई है, जिसका कारण निश्चित रूप से भारत का बहु-धार्मिक और बहु-सांस्कृतिक राष्ट्र होना है। जब संविधान की उद्देशिका में 1976 में 42वें संशोधन अधिनियम से पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया तब यह संकल्पना और भी सुदृढ़ हो गई।

भारत की बहु-सांस्कृतिक व्यवस्था का आधार है सहिष्णुता

इस पृष्ठभूमि में घृणा दर्शाने वाले व्यवहारों और घृणा की अभिव्यक्ति करने वाले विचारों यानी हेट स्पीच की स्वाभाविक रूप से कड़ी निंदा की जानी चाहिए। हाल में हरिद्वार में धार्मिक विश्वासों को ठेस पहुंचाने वाले जो विचार व्यक्त किए गए उन्हें भारत के पंथनिरपेक्ष चरित्र पर गहरा आघात कहा जाना चाहिए। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि भारत की बहु-सांस्कृतिक व्यवस्था सहिष्णुता के मूल सिद्धांत पर अखंड बनी हुई है। ऐसी स्थिति में ऐसा कोई भी व्यवहार राष्ट्र की अखंडता के लिए भी हानिकारक होगा और यह राष्ट्र को कमजोर करेगा। आज के विश्व में जहां पहले से ही असुरक्षा का माहौल बना हुआ है वहां राष्ट्र की अंदरूनी कमजोरी उसके समक्ष हिंसा और अस्थिरता का गंभीर जोखिम उत्पन्न करेगी।

उच्चतम न्यायालय ने कमिश्नर एचआरई बनाम एलटी स्वामीयार, 1954 मामले में धर्म को आस्था का प्रतीक कहा है। यह भी विदित है कि आस्था और विश्वास एक-दूसरे से भिन्न हैं और कोई व्यक्ति एक धर्म में आस्था रखते हुए अन्य धर्मों में विश्वास रख सकता है। साथ ही धर्म और दर्शन भी एक-दूसरे से भिन्न हैं, लेकिन सभी धर्मों का दर्शन एक है, जो विश्व शांति है। न्यायालय के ऐसे विचारों से न केवल धार्मिक सहिष्णुता की पुष्टि होती है, बल्कि इससे हमें दिशा भी मिलती है कि जब हम आधुनिकता का दावा करते हैं तो हमें रूढि़वादिता से अलग होना ही चाहिए। यहां यह कहना पूरी तरह समीचीन है कि सभी धर्म सैद्धांतिक स्तर पर लगभग एक समान हैं, क्योंकि सभी का विकास सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था से ही हुआ है। सभी का उद्देश्य नैतिक मार्गदर्शन देना और स्थिरता बनाए रखना है। आचरणों में एक-दूसरे से अलग होने के कारण हमें ऐसा लगता है कि ये सभी भिन्न हैं। आचरणों के प्रति अति-संवेदनशीलता हमें घृणा फैलाने वाले वक्तव्य देने या धार्मिक रूप से असहिष्णु होने के लिए विवश करती है। ऐसी भावनाओं पर अंकुश लगाना हमारा दायित्व भी है और राष्ट्र के प्रति हमारी निष्ठा की अभिव्यक्ति भी। हमारा ऐसा व्यवहार संविधान के बुनियादी ढांचे को सुरक्षित रखेगा, जो एक नागरिक के रूप में हमें कर्तव्यनिष्ठ बनाए रखेगा। उल्लेखनीय है कि शीर्ष न्यायालय ने एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ, 1994 में पंथनिरपेक्षता को बुनियादी ढांचे में शामिल किया है।

हेट स्पीच के लिए है दंड का प्रविधान

घृणा दर्शाने या अभिव्यक्त करने के कारण देश में अस्थिरता का माहौल बनाने का प्रयास विधि और संविधान दोनों से ही असंगत होगा। यह लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध होगा। हमारा ऐसा व्यवहार लोकतंत्र को भीड़तंत्र में परिवर्तित कर देगा। तहसीन पूनावाला बनाम भारत संघ, 2018 मामले में न्यायालय ने कहा था कि भीड़तंत्र के भयानक कृत्यों को भूमि के कानून को जलमग्न करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। नागरिकों को बार-बार होने वाली हिंसा से बचाने के लिए ठोस कदम उठाए जाने चाहिए। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार प्रतिज्ञा पत्र, 1966 के अनुच्छेद 20(2) में सदस्य राष्ट्रों के लिए निर्देश है कि राष्ट्रीयता, मूलवंश या धर्म के आधार पर घृणा के प्रचार का प्रतिषेध किया जाना चाहिए। 'एशिया में अभिव्यक्ति, विचार और धार्मिक स्वतंत्रता' पर जकार्ता अनुशंसाओं, 2015 में राष्ट्रों को निर्देश दिया गया है कि घृणा, वैमनस्य और विभेद फैलाने वाले कार्यों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। जहां तक भारत का प्रश्न है तो संविधान के अनुच्छेद 15(1) में धर्म और मूलवंश के आधार पर विभेद रोका गया है। इसी प्रकार अनुच्छेद 19(2) में लोक व्यवस्था/सदाचार आदि आधारों पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर निर्बंधन लगाने का प्रविधान है। भारत जैसे बहुवचनीय लोकतंत्र में वैचारिक भिन्नता स्वाभाविक है। यह अनिवार्य है कि हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुरक्षित रहनी चाहिए। यह लोकतंत्र को ज्वलंत भी बनाए रखती है। स्वतंत्रता निरपेक्ष या नकारात्मक नहीं होनी चाहिए, क्योंकि ऐसे अधिकार सभी को प्राप्त हैं। हमारे द्वारा इसका दुरुपयोग दूसरों के ऐसे अधिकारों का विरोध करेगा जिससे कट्टरता बढ़ेगी और सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्षों को बल मिलेगा। इसी कारण भारत में विधि के तहत कई ऐसे प्रविधान किए गए हैं, जो नफरत फैलाने वाले बयानों का प्रतिषेध करते हैं और राज्य को इस पर अंकुश लगाने की शक्ति देते हैं।

हेट स्पीच और ईश निंदा में अंतर

घृणा फैलाने वाले वक्तव्य और ईश निंदा के अंतर को समझकर ही हम इस पर चर्चा कर सकते हैं। ईश निंदा देवी देवताओं या धर्म की अलौकिकता से संबंधित तथ्यों और भावनाओं की आलोचना और उनके प्रति अभद्र व्यवहार से संबंधित है, जिसका नियमन बहुत सरल नहीं होता। जबकि हेट स्पीच को विनियमित किया जा सकता है, क्योंकि कानून वास्तविक जीवित लोगों के समूह पर मौखिक हमलों आदि को प्रतिबंधित कर सकता है। भारत में ईश निंदा से संबंधित कोई विधि नहीं है। इसके विपरीत भारतीय दंड संहिता की धारा-153 ए में धर्म, भाषा, नस्ल आदि के आधार पर लोगों में घृणा फैलाने की कोशिश करने पर तीन वर्ष तक के कारावास या जुर्माना या दोनों का प्रविधान है। यदि यह अपराध किसी धार्मिक स्थल पर किया जाए तो पांच वर्ष तक का कारावास और जुर्माना भी हो सकता है। घृणा फैलाने वाले वक्तव्य पर रोक लगाने के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण दंड संहिता की धारा-295 ए है। इसमें किसी वर्ग के धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करके उसकी धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आशय से किए गए कार्यों के लिए दंड का प्रविधान है। जो कोई भारत के नागरिकों के किसी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आशय से उस वर्ग के धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान, उच्चारित या लिखित शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्यरूपणों द्वारा या अन्यथा करेगा या करने का प्रयत्न करेगा, वह तीन वर्ष तक कारावास या जुर्माना या दोनों का भागी होगा। उच्चतम न्यायालय ने रामजी लाल मोदी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1957 मामले में धारा-295 ए को वैध कहा है। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा-123 (3 ए) तथा 125 में धर्म, मूलवंश, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर शत्रुता, वैमनस्य या घृणा फैलाने के लिए दंड का प्रविधान है। ऐसे ही दांडिक प्रविधान धार्मिक संस्थाएं (दुरुपयोग निरोध) अधिनियम, 1988 की धारा-तीन(छ) में भी हैं।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा

विधिक और संवैधानिक प्रविधानों के बावजूद हाल के वर्षों में घृणा फैलाने वाले वक्तव्य का प्रचार किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। खासकर इंटरनेट मीडिया की भूमिका इस संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हम कोई भी विचार अभिव्यक्त नहीं कर सकते। राम मनोहर लोहिया बनाम बिहार राज्य, 1965 मामले में उच्चतम न्यायालय ने कानून-व्यवस्था, लोक व्यवस्था और राज्य की सुरक्षा की उत्कृष्ट व्याख्या की है। न्यायालय के अनुसार ये तीनों संकल्पनाएं तीन वृत्तों का निर्माण करती हैं। सबसे बड़ा वृत्त कानून-व्यवस्था का है जिसमें लोक व्यवस्था का दूसरा और उसके भीतर राज्य की सुरक्षा का तीसरा वृत्त है। यदि घृणा और वैमनस्य का प्रचार हो तो लगभग तीनों ही प्रभावित होंगे। किसी वक्तव्य को घृणा फैलाने वाला वक्तव्य कहे जाने के पूर्व उसकी पहचान के कुछ आधारों को समझना आवश्यक है। भारत के विधि आयोग ने 2017 में अपनी 267वीं रिपोर्ट में ऐसे कुछ आधारों का उल्लेख किया है। आयोग के अनुसार कोई वक्तव्य यदि आक्रामक और चरम भावना से प्रेरित है तभी उसे घृणा फैलाने वाले वक्तव्य की श्रेणी में रखा जाएगा। इसी प्रकार यदि ऐसे किसी वक्तव्य से हिंसा अभिप्रेरित हो तो उसे घृणा फैलाने वाला वक्तव्य कहा जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण है कि ऐसा वक्तव्य देने वाले की मंशा और उसके संदर्भ को समझना अनिवार्य है।

सामाजिक पूंजी का क्षरण करते बिगड़े बोल

अत: यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि हमारा समाज बहुवचनीय है और इसमें सभी की भावनाओं का सम्मान किया जाना चाहिए। बहु-सांस्कृतिक राष्ट्रों में संस्कृतियों की विविधता कई अवसरों पर संघर्ष का कारण बनती है, जो राष्ट्र की अखंडता के लिए हानिकारक होती है। हम जिस दौर से गुजर रहे हैं उसमें लोक-लुभावनी राजनीति, बाजार अर्थव्यवस्था के कारण पश्चिमी उपभोक्तावाद, व्यक्तिवादिता और स्वार्थ सिद्धि की भावनाओं का प्रचलन है। इसने सामाजिक, मानवीय और नैतिक मूल्यों का पतन भी कराया है। यदि हम इसे विकास के संदर्भ में देखें तो ऐसी सभी भावनाएं सामाजिक पूंजी का क्षरण कराती हैं। अर्थात संघर्षों की संभावनाएं बढ़ती हैं। स्वाभाविक रूप से यह विकास की गति को धीमा करने के लिए उत्तरदायी है।

जैसा कि ऊपर उल्लेख है हम भारत के लोग ही भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाए रखने के लिए जिम्मेदार हैं। जब-जब हमारा ध्यान सामाजिक मानकों के संरक्षण से हटेगा, तब-तब विरोध, वैमनस्य, शत्रुता और घृणा का प्रचार-प्रसार होगा और हम संविधान में उल्लिखित प्रतिबद्धताओं के विपरीत कार्य करेंगे।

(लेेेेखक सेंटर फार अप्लायड रिसर्च इन गवर्नेंस, दिल्ली के अध्यक्ष हैं)