नई दिल्ली [बलबीर पुंज]। कांग्रेस समेत सात राजनीतिक दलों की ओर से मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध लाए गए उस महाभियोग प्रस्ताव के मूल निहितार्थ को समझना आवश्यक है जिसे राज्यसभा सभापति की ओर से खारिज किए जाने के बाद भी आगे बढ़ाने की बात की जा रही है? क्या सच में न्यायिक तंत्र के साथ कुछ ऐसा हुआ है जिससे लोकतंत्र खतरे में आ गया है या फिर कुछ विपक्षी दल सत्ता से बाहर होने के बाद और अपने ‘विशेषाधिकार’ से वंचित होने की स्थिति में वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में स्वयं को असुरक्षित मान रहे हैं?

दरअसल आठवीं लोकसभा के बाद सोलहवीं लोकसभा में जो राजनीतिक तस्वीर उभरी उसमें दो घटनाएं ऐतिहासिक रहीं। पहली- 30 वर्षों के अंतराल में पहली बार किसी भी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत मिला। दूसरी और सबसे महत्वपूर्ण यह कि आजाद भारत में पहली बार किसी विशुद्ध गैर-कांग्रेसी राजनीतिक दल की सरकार पूर्ण बहुमत के साथ बनी। देश में सर्वाधिक शासन कांग्रेस का ही रहा है जिसमें उसने छह बार पूर्ण बहुमत तो चार बार गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया है। इस दौरान कई प्रदेशों में भी उसकी ही सरकारें रही हैं। लगभग पचास वर्ष के शासनकाल में कांग्रेस और उसके बौद्धिक समर्थकों में यह मानस घर कर गया कि हम ही देश में सर्वोपरि हैं और हमें संवैधानिक- लोकतांत्रिक मूल्यों से निर्मित शासकीय प्रणाली का अनुसरण नहीं करना या फिर उसे अपनी सुविधानुसार ढालना हमारा ‘जन्मसिद्ध विशेषाधिकार’ है।

स्वतंत्रता से पूर्व एक-दो अपवादों को छोड़कर कांग्रेस समितियों ने भावी प्रधानमंत्री के रूप में सरदार बल्लभभाई पटेल का चयन किया था, किंतु अपने इसी ‘जन्मसिद्ध विशेषाधिकार’ के चलते या यूं कहें कि गांधीजी के आशीर्वाद से पंडित जवाहरलाल नेहरू आजादी के बाद प्रधानमंत्री पद पर आसीन हो गए। फिर पं.नेहरू ने वर्ष 1959 में कई वरिष्ठ और अनुभवी पार्टी नेताओं की अनदेखी करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष पद पर अपनी सुपुत्री इंदिरा गांधी को नियुक्त कर दिया जिसने कांग्रेस में वंशवाद का बीजारोपण कर दिया। जब 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने भ्रष्ट आचरण मामले में इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता को रद कर दिया तब बदले की भावना से 13 दिन पश्चात 25 जून, 1975 को इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित करते हुए संविधान को ही स्थगित कर दिया। इस दौरान कांग्रेस, इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाए रखने के लिए संविधान का 39वां संशोधन लेकर आई जिसमें अदालत से प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त व्यक्ति के चुनाव की जांच करने का अधिकार छीन लिया।

इसी प्रकार जब 1985 में शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को शौहर द्वारा गुजारा भत्ते देने संबंधी ऐतिहासिक निर्णय दिया तब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने बहुमत और अपने ‘विशेषाधिकार’ के बल पर ही 1986 में संसद के भीतर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय ही पलट दिया। पूर्व प्रधानमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पीवी नरसिंह राव का जब 23 दिसंबर, 2004 को निधन हुआ तब सत्तारूढ़ कांग्रेस ने गांधी परिवार से विवाद होने के कारण न केवल राव का अंतिम संस्कार दिल्ली में नहीं होने दिया, बल्कि अपने मुख्यालय में उनके लिए कोई श्रद्धांजलि सभा आयोजित करने से भी इन्कार कर दिया। वहीं जब 24 वर्ष पहले इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी, जो देश के किसी संवैधानिक पद पर नहीं रहे, की मौत विमान दुर्घटना में हुई तो दिल्ली में राजघाट और शांति वन के निकट सत्तारूढ़ कांग्रेस ने उनका स्मारक बनवा दिया। यह नेहरू-गांधी परिवार के मानस में उपजे ‘विशेषाधिकार’ का ही परिणाम था।

सत्ता के केंद्र पर भी कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार अपना ‘जन्मसिद्ध अधिकार’ समझता है। जब 2004 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी संवैधानिक कारणों से प्रधानमंत्री नहीं बन पाईं तो सत्ता पर अपना ‘विशेषाधिकार’ अक्षत रखने हेतु उस ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद’ के रूप में समांतर संविधानेत्तर केंद्र की स्थापना कर दी जिसका उल्लेख संविधान तक में नहीं था। इसके अतिरिक्त सार्वजनिक संपत्ति से लेकर सरकारी परियोजनाओं, सड़कों और नगरों के नाम पर भी इनका ही ‘विशेषाधिकार’ रहा है। वर्ष 2012 में एक आरटीआई के अनुसार, संप्रगकाल में 27 परियोजनाएं नेहरू-गांधी परिवार के नाम पर चल रही थीं। इसी ‘विशेषाधिकार’ को बीते कुछ वर्षों में इतनी ठेस पहुंची है कि अब कांग्रेस सहित उसके बौद्धिक समूहों को ‘असुरक्षा’ का अनुभव होने लगा है। इस ‘असुरक्षा’ का कारण क्या है?

विपक्षी दलों को लोकसभा चुनाव के बाद से अधिकांश विधानसभा चुनावों में एक के बाद एक पराजय मिली। चूंकि चुनावी परिणाम उनके अनुकूल नहीं आ रहे थे तो ईवीएम पर सवाल उठाकर लोकतंत्र के प्रमुख प्रहरी निर्वाचन आयोग को कलंकित किया गया। जब पंजाब में कांग्रेस जीती तो इसे लोकतंत्र की जीत माना गया, किंतु जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला तो इसे ईवीएम से छेड़छाड़ का मुद्दा बना दिया गया। ऐसे आरोप अन्य चुनाव परिणामों में भी लगाए गए।

इसी तरह जब 2जी घोटाला मामले में अदालती निर्णय उनके अनुरूप था तो उसे सच की जीत बताया, किंतु जब जज लोया की मौत, कथित भगवा आतंकवाद आदि मामलों में न्यायिक निर्णय उनके प्रतिकूल आए तो एकाएक देश में संवैधानिक संकट खड़ा हो गया और अदालत की निष्पक्षता पर खतरा मंडराने लगा। इसी तरह जब सितंबर, 2016 में भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में सर्जिकल स्ट्राइक की तब कांग्रेस सहित कई विपक्षी दलों को पाकिस्तान द्वारा इसे झुठलाने का दावा ही ज्यादा सटीक लगा और वे भारतीय सेना से साक्ष्य प्रस्तुत करने की मांग करने लगे।

विपक्षी दलों द्वारा संसद में बिना आवश्यक अंकगणित के महाभियोग प्रस्ताव लाने उद्देश्य क्या है? शीर्ष अदालत में ऐसे कई मामले लंबित हैं जो सीधे तौर पर कांग्रेस सहित कई विपक्षी दलों के राजनीतिक स्वार्थ को प्रभावित करते हैं। इन मामलों में राम मंदिर, नेशनल हेराल्ड, आइएनएक्स मीडिया घोटाला, रोहिंग्या- बांग्लादेशी शरणार्थी मुद्दा, बहुविवाह-हलाला आदि मामले शामिल हैं। यदि महाभियोग प्रस्ताव राज्यसभा सभापति द्वारा स्वीकार कर लिया जाता तो संभवत: मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर इन सभी मामलों की सुनवाई से अलग होने का नैतिक दवाब बनाया जाता जिसके संकेत गत दिनों कपिल सिब्बल दे भी चुके थे। यह किसी से छिपा नहीं कि अतीत में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए किस तरह कई बार नियंत्रित करने का प्रयास किया गया है। आज वही संस्थाएं जब संवैधानिक मर्यादाओं में रहकर काम कर रही हैं और देश में वैकल्पिक विचार एवं विमर्श को स्थान मिल रहा है तो कांग्रेस और उसके विचारकों के ‘जन्मसिद्ध विशेषाधिकार’ का ह्रास होना और स्वयं को ‘असुरक्षित’ मानना स्वाभाविक है।

(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)