[जगदीप एस छोकर]। आजकल देश में नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) और नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर (NRC) को लेकर जो कुछ चल रहा है उसे देख कर अंग्रेजी के प्रसिद्ध साहित्यकार और नाटककार विलियम शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक हेमलेट की जानी मानी लाइन-टू बी ऑर नॉट टू बी की याद आती है। इसका संदर्भ उस बात से है जो देश के गृहमंत्री अमित शाह पिछले कई महीनों से कह रहे थे और जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी महीने की 22 तारीख को दिल्ली के रामलीला मैदान में कहा।

इन दोनों नेताओं की बातों को सुनकर असमंजस यह होता है कि एनआरसी नाम की कोई चीज है (जैसा कि गृहमंत्री ने संसद के भीतर-बाहर बार-बार कहा) या फिर हम एक सपना देख रहे थे, जैसा कि प्रधानमंत्री ने देश के सबसे चर्चित मैदान में भरी सभा में कहा। उनके अनुसार एनआरसी के बारे में तो अभी कोई बात तक नहीं हुई। यह मानना असंभव नहीं तो अत्यंत कठिन अवश्य है कि गृहमंत्री के एनआरसी पर एक से अधिक बयान गलत या फिर झूठ हैं। इसके साथ ही प्रधानमंत्री द्वारा सार्वजनिक तौर पर की गई घोषणा पर विश्वास करना भी ठीक नहीं होगा। आखिर देश असमंजस की इस स्थिति में कैसे पहुंचा और इसके लिए कौन जिम्मेदार है?

असम में घुसपैठियों को खोजकर बाहर निकालना 

असम में एनआरसी तो एक पुरानी ऐतिहासिक विरासत है जिसे उच्चतम न्यायलय ने एक नया जीवनदान देना उचित समझा। जैसे-जैसे असम में एनआरसी का काम चलता गया उसके नए-नए पहलू सामने आने लगे। इस सिलसिले में सत्तारूढ़ दल को महसूस हुआ कि इस प्रक्रिया को उसके 1996 के लोकसभा चुनाव के घोषणा पत्र में किए गए वादे को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके पीछे यह इरादा था कि जो लोग देश में गैरकानूनी या अवैध तरीकों से आए हुए हैं और जिन्हें सामान्यत: घुसपैठिया भी कहा जाता है उन्हें खोजकर निकालना और देश से बाहर भेजना। इस प्रक्रिया को 1996 के घोषणा पत्र में डिटेक्शन, डिलीशन और डिपोर्टेशन कहा गया था।

नागरिकता अधिनियम में संशोधन

अवैध रूप से आए लोगों को खोजने के लिए तो एनआरसी एक बना-बनाया तरीका था। इसके बाद गैर-कानूनी तरीकों से देश में आए लोगों के नाम को एनआरसी से हटाने या सम्मिलित न करने और अवैध घोषित करने के लिए एक कानूनी तरीके की जरूरत समझी गई। यह तरीका बना नागरिकता अधिनियम में संशोधन करके। संशोधन में लिखे जाने वाले शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण थे। फैसला यह हुआ कि जो हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के लोग अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान से अवैध रूप से भारत में आए हैं उन्हें भारतीय नागरिकता प्रदान की जाएगी, अगर वे भारत में कम से कम पांच साल से रह रहे हों।

मुस्लिम समुदाय का नहीं लिखा गया नाम

कभी-कभी होता यह है कि जो कहा गया या लिखा गया वह उतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना वह जो नहीं कहा या लिखा गया। नागरिकता कानून में संशोधन में भी ऐसा ही हुआ। जिन समुदायों के नाम इसमें लिखे गए उनसे अधिक महत्वपूर्ण वह समुदाय था जिसका नाम नहीं लिखा गया। वह समुदाय कौन सा है, यह बताने की तो आवश्यकता नहीं होनी चाहिए, लेकिन पारदर्शिता के नाते यह समझना होगा कि वह समुदाय है मुस्लिम। इसका औचित्य बताया गया कि ये तीनों देश अधिकृत रूप से इस्लामी देश हैं। इसलिए इन देशों में मुसलमानों का धार्मिक उत्पीड़न नहीं हो सकता।

यह औचित्य कहां तक ठीक है या नहीं, इसका फैसला जनता स्वयं करें, लेकिन यह याद रखने की बात है कि इस्लाम में भी कई उप-समुदाय हैं जिनमें से कुछ आपस में एक-दूसरे का बहुत विरोध करते हैं। यह भी कहा जा रहा है कि अगर एनआरसी है भी तो उसमें और नागरिकता संशोधन अधिनियम में कोई रिश्ता नहीं है। रिश्ता है तो कैसे और अगर नहीं है तो ये दोनों लागू कैसे किए जाएंगे, यह देखना पड़ेगा। उदाहरण के लिए असम के आंकड़ों को लेकर देखते हैं कि यह काम कैसे होगा।

एनआरसी से बाहर हुए लोग दे सकते हैं याचिकाएं 

असम में एनआरसी हुआ और लगभग 3.3 करोड़ लोगों के नाम उसमें आए और लगभग 19 लाख के नहीं आए। जिन 19 लाख के नाम नहीं आए उनमें से लगभग 13 लाख हिंदू, सिख, बौद्ध जैन, पारसी और इसाई हैं और शेष छह लाख मुसलमान। कानूनी प्रावधान के तहत ये सब 19 लाख लोग फॉरेन नेशनल ट्रिब्यूनल्स यानी विदेशियों के लिए गठित विशेष अदालतों में अपने नाम एनआरसी में शामिल कराने के लिए याचिकाएं दे सकते हैं। 

ट्रिब्यूनल्स का लेना होगा सहारा

नागरिकता कानून यानी सीएए का असर या काम यहां से आरंभ होता है। इस संशोधन के कारण इन 19 लाख में से जो 13 लाख हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई हैं और जो 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत में प्रवेश कर चुके थे उन्हें तो अवैध प्रवासी नहीं गिना जाएगा और इस कारण भारत में पांच साल रहने के बाद वे भारतीय नागरिकता के हकदार होंगे, लेकिन जो छह लाख बाकी बचेंगे उन्हें अवैध प्रवासी गिना जाएगा और इसीलिए उन्हें ट्रिब्यूनल्स का सहारा लेना पड़ेगा। वहां जो होगा सो होगा। अब तक जो अनुभव असम में गठित इन ट्रिब्यूनल्स का हुआ है वह तो उत्साहजनक नहीं लगता। 

आगे क्या होगा, यह कहना कठिन है, लेकिन दो बातें तो स्पष्ट हैं। एक तो यह कि 1996 के घोषणा पत्र में किए गए वादे को पूरा करने के लिए एनआरसी और सीएए, दोनों की आवश्यकता है और दूसरी, सीएए धर्मनिरपेक्ष नहीं है। धर्मनिरपेक्षता भारत के संविधान का अभिन्न और अटूट हिस्सा है। प्रश्न यह उठता है कि क्या संविधान में ऐसा परिवर्तन, इस तरीके से करना देश की जनता को स्वीकार है?

(लेखक आइआइएम अहमदाबाद के प्रोफेसर, डीन और डायरेक्टर इंचार्ज रहे हैं)