दुनिया की दृष्टि बदलने वाले स्वामी विवेकानंद, शिकागो में बजाया था भारतीय धर्म-संस्कृति का डंका
शिकागो शहर में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन के मंच से स्वामी विवेकानंद ने भारतीय धर्म-संस्कृति का ऐसा शंखनाद किया कि सुनने वाले सम्मोहित होकर रह गए। उन श्रोताओं में जर्मन भाषाविद् और प्राच्य विद्या के मर्मज्ञ प्रोफेसर फ्रेडरिक मैक्समूलर और अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे मूर्धन्य विज्ञानी भी थे।
[डा. विनोद कुमार तिवारी] समकालीन विश्व इतिहास में 11 सितंबर 1893 का दिन एक युगांतकारी परिघटना का पड़ाव बना था। उस दिन शिकागो शहर में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन के मंच से स्वामी विवेकानंद ने भारतीय धर्म-संस्कृति का ऐसा शंखनाद किया कि सुनने वाले सम्मोहित होकर रह गए। उन श्रोताओं में जर्मन भाषाविद् और प्राच्य विद्या के मर्मज्ञ प्रोफेसर फ्रेडरिक मैक्समूलर और अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे मूर्धन्य विज्ञानी भी थे। स्वामी जी के विचार सुनकर भारत को देखने की पश्चिमी विद्वानों की दृष्टि ही बदल गई कि जिसे वे जादू-टोना और सपेरों का देश समझते रहे, वह तो ज्ञान-विज्ञान, दर्शन और साहित्य की अविरल धारा को समेटे है। स्वामी विवेकानंद मानते थे कि, ‘संसार भारत माता का अपार ऋणी है। यदि हम विश्व के सभी राष्ट्रों का तुलनात्मक अध्ययन करें तो पाते हैं कि विश्व में ऐसी कोई जाति नहीं है, जिसका संसार उतना ऋणी है, जितना वह हमारे भद्र हिंदू पूर्वजों का है।’पश्चिमी जगत पर स्वामी विवेकानंद का ऐसा असर हुआ कि हंिदूुत्व के विविध आयामों पर व्याख्यान के लिए उन्हें जगह-जगह आमंत्रित किया जाने लगा। इसी कड़ी में मैक्समूलर ने स्वामी जी को अपने यहां भोजन पर आमंत्रित किया। यह 28 मई 1896 की तिथि थी। मैक्समूलर से घंटों शास्त्रर्थ हुआ। मैक्समूलर से मिलकर स्वामी जी भी अभिभूत हुए। इस मुलाकात पर अपने संस्मरण में उन्होंने लिखा कि जैसे वह प्राचीन भारत के किसी महान ऋषि के समक्ष बैठे हैं। उन्हें लगा कि ऋषि वशिष्ठ और अरुंधती ईश्वर प्राणिधान में मग्न हैं। विवेकानंद और मैक्समूलर का यह मिलन महज दो व्यक्तियों का मिलन नहीं था। यह संगम उन पूर्वाग्रहों का पराभव था, जो रुडयार्ड किपलिंग जैसों की दृष्टि में कभी संभव नहीं था, क्योंकि वह पश्चिम को सदैव पूरब से श्रेष्ठ मानते रहे। इस प्रकार विवेकानंद और मैक्समूलर का मिलन वास्तव में पूरब और पश्चिम का सेतुबंधन था।
प्रो. यूजेन वर्नोफ 19वीं सदी के मध्य यूरोप में प्राच्यविद्या के प्रतिष्ठित आचार्य रहे। वर्नोफ ने ही मैक्समूलर को संस्कृत पढ़ाई तथा उन्हें वैदिक वांग्मय पर गहन शोध के लिए प्रेरित किया। मैक्समूलर ने तीन दशक से भी अधिक समय वेदों पर अध्ययन और शोध किया। जब उनका भाष्य प्रकाशित हुआ तो यूरोप, अमेरिका और भारत का विद्वत वर्ग चमत्कृत हो उठा। यह पश्चिम में वैदिक ज्ञान की ‘दिग्विजय यात्र’ थी। यह संपूर्ण यूरोप में वैदिक ज्ञान के प्रति आए पुनर्जागरण का उत्कर्ष था। मैक्समूलर वैदिक ज्ञान के उपासक तथा अनन्य भारत प्रेमी थे। भारत से बाहर जन्म लेकर मां भारती की महती सेवा करने वाले महान मनीषी थे। उनकी मेधा से प्रभावित राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने यथार्थ ही कहा था कि महर्षि सायण की आत्मा ही जर्मनी में मैक्समूलर के रूप में अवतरित हुई, क्योंकि समकालीन युग में वह वेदों के महानतम भाष्यकार हैं। मैक्समूलर का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने तुलनात्मक भाषाविज्ञान तथा धर्मो के तुलनात्मक अध्ययन की परंपरा शुरू की। भारत और भारतीय संस्कृति से उनके अनुराग की अभिव्यक्ति इन्हीं शब्दों में समझी जा सकती है, ‘भारत आधुनिक विश्व का आध्यात्मिक पूर्वज है और जिस देश ने राम और कृष्ण को जन्म दिया, उसे गुलाम बनाना महापाप है।’ मैक्समूलर ने भारत को कई प्रकार से गौरवान्वित किया। उन्होंने भारतीय साहित्य, दर्शन, धर्मग्रंथों की 50 से अधिक खंडों में ग्रंथमाला प्रकाशित की। ‘इंडिया: व्हाट इट कैन टीच अस’ नामक पुस्तक में वह बताते हैं कि विश्व भारतवर्ष से क्या-क्या सीख सकता है?
वैदिक ज्ञान का आज संपूर्ण विश्व पर बहुआयामी प्रभाव पड़ा है। आधुनिक जीवन का शायद ही कोई आयाम हो जिसमें भारतवर्ष ने योगदान नहीं किया। वस्तुत: तुलनात्मक भाषाविज्ञान के अध्ययन से जो तथ्य स्थापित हुए, उनसे पूर्वाग्रही यूरोपीय विद्वानों की जड़ता समाप्त हुई। ये यही मानते थे कि फलस्तीन और यूनान से प्राचीन कोई देश नहीं और हिब्रू से प्राचीन कोई भाषा नहीं है। बाइबल के अनुसार सृष्टि 4000 वर्ष से अधिक पुरानी नहीं है। इस स्थापना के आलोक में वेदों के काल-निर्णय में यूरोपीय विद्वानों को बड़ी कठिनाई हुई, जो उन्हें ईसा से 2000 वर्ष पूर्व से आगे ले जाने के लिए किसी भी हाल में तैयार नहीं थे। हालांकि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खोदाई से उनके भ्रम टूटे और वे यह मानने को बाध्य हुए कि सृष्टि का इतिहास 4000 वर्ष से बहुत पुराना है।
यह मैक्समूलर ही थे जिन्होंने स्थापित किया कि हिब्रू नहीं, अपितु संस्कृत विश्व की प्राचीनतम भाषा है और यूनानी या यहूदी नहीं, बल्कि हंिदूू विश्व की प्राचीनतम जाति हैं। मैक्समूलर ने पाणिनी को विश्व का महानतम व्याकरणाचार्य घोषित किया। उनके अनुसार देववाणी संस्कृत अपनी समृद्ध शब्दावली तथा सर्वाधिक विज्ञानसम्मत व्याकरण से अलंकृत विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है, जिसमें प्राचीन हंिदूू ग्रंथों का प्रणयन हुआ। संस्कृत गणित, विज्ञान, खगोल विज्ञान और आयुíवज्ञान जैसे महत्वपूर्ण विषयों की भाषा भी है। सर विलियम जोंस जैसे विद्वान भी इससे सहमति व्यक्त करते हुए कहते हैं, ‘संस्कृत विश्व की सर्वाधिक पूर्ण भाषा है। यूनानी से भी अधिक परिपूर्ण तथा लैटिन से भी अधिक समृद्ध।
यह भारत और उसकी संस्कृति के प्रति आकर्षण ही रहा कि उसने मैक्समूलर जैसे कई विद्वानों को प्रभावित किया। यह श्रृंखला बहुत लंबी है, जिनमें से तमाम यह मानते हैं कि गणित और विज्ञान हमने भारत से ही सीखा है। महात्मा बुद्ध के माध्यम से भारतीय विचार ईसाई मत में अभिव्यक्त हुए। इसी प्रकार ग्राम स्वराज, स्थानीय स्वशासन, लोक कल्याण और लोकतंत्र इत्यादि संकल्पनाएं सबकी गंगोत्री भारतवर्ष ही है। इस प्रकार भारत माता कई अर्थो में समस्त विश्व की माता है। स्वामी विवेकानंद का यह सार आज भी उतना ही सत्य प्रतीत होता है कि शेष विश्व भारत का सबसे बड़ा ऋणी है।
(लेखक प्राच्यविद्या के आचार्य हैं)