रसाल सिंह। वैदिक काल से ही पूर्वोत्तर क्षेत्र भारतवर्ष का अभिन्न अंग रहा है। यह क्षेत्र अपने गौरवशाली इतिहास और समृद्ध संस्कृति के अलावा भाषा, परंपरा, पर्व-त्योहार, वेश-भूषा आदि की दृष्टि से इतना वैविध्यपूर्ण और समुन्नत रहा है कि इसे भारत का सांस्कृतिक संग्रहालय कहा जा सकता है। ईसाई प्रचारकों की विभाजनकारी ‘धर्मनीति’ और अंग्रेजों की औपनिवेशिक ‘राजनीति’ ने पूर्वोत्तर भारत में क्रमश: अलगाववाद और उग्रवाद के बीज बोये।

यह क्षेत्र स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर कुछेक साल पहले तक उपेक्षा का शिकार रहा है। चार देशों की सीमाओं से घिरे इस भौगोलिक क्षेत्र को, सिलीगुड़ी के निकट करीब 60 किमी की लंबाई में उसकी औसत चौड़ाई महज 22 किमी है। इस मार्ग को ‘सिलीगुड़ी कॉरिडोर’ और ‘चिकन नेक’ भी कहा जाता है, जो पूर्वोत्तर राज्यों को शेष भारत से जोड़ता है। पूर्वोत्तर में हो रही सुनियोजित घुसपैठ तथा धर्मांतरण को प्राथमिकता के आधार पर रोकना जरूरी था। अगर ऐसा किया गया होता तो पूर्वोत्तर की समस्याएं इतनी विकराल नहीं हो पातीं। परंतु खेदजनक है कि इस दिशा में पर्याप्त पहल नहीं हुई। फलत: पूर्वोत्तर का अधिकांश क्षेत्र अलगाववाद और हिंसा का शिकार हो गया।

‘एक्ट ईस्ट नीति’ से खुलेंगे संभावनाओं के द्वार : इधर सरकार ने इस क्षेत्र का समग्र विकास सुनिश्चित करने तथा शांति स्थापित करने के लिए कई कदम उठाए हैं। सरकार की ‘एक्ट ईस्ट नीति’ ने संभावनाओं के द्वार खोलने के साथ इस क्षेत्र की जनता में नई उम्मीद भी पैदा की है। पूर्वोत्तर भारत को उत्पादन और विकास के हब के रूप में विकसित करने की महत्वाकांक्षी कार्ययोजना का क्रियान्वयन किया जा रहा है। इस उपेक्षित क्षेत्र को आर्थिक रूप से अधिक गतिशील और समृद्ध बनाया जा रहा है। सड़क, रेल, नदी और हवाई मार्गों के संजाल द्वारा माल-असबाब और व्यक्तियों का पूर्वोत्तर आवागमन बढ़ाया जा रहा है। इससे तकनीक और विचारों के आदान-प्रदान एवं प्रवाह में भी गुणात्मक वृद्धि हो रही है। सरकार ने संवाद और संवेदनशीलता से इस क्षेत्र के वर्षों से लंबित कई मुद्दों का भी समाधान किया है।

त्रिपुरा में मुख्यधारा में शामिल हो रहे अलगाववादी : वर्तमान सरकार की समावेशी नीतियों के कारण पूर्वोत्तर के लोगों का अलगाववाद और उग्रवाद से मोहभंग हो रहा है। इसी कारण शब्बीर देब बरमा के नेतृत्व वाले नेशनल लिबरेशन फ्रंट त्रिपुरा (एनएलएफटी-एसडी) गुट ने हिंसा छोड़ने और मुख्यधारा में शामिल होने के लिए केंद्र सरकार के साथ समझौता किया है। इसके अनुसार एनएलएफटीएसडी के 88 समर्पित सदस्यों ने हथियारों के साथ समर्पण किया है और भारतीय संविधान में आस्था व्यक्त की है। त्रिपुरा सरकार आत्मसमर्पण करने वालों को आवास, रोजगार और शिक्षा प्राप्त करने में सहायता करेगी। एनएलएफटी गैरकानूनी निरोधक एक्ट के अंतर्गत 1997 से प्रतिबंधित संगठन था, जो राज्य में हिंसक गतिविधियों के संचालन में शामिल रहा है। इसने राज्य में वर्ष 2005 से 2015 तक 317 हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया। 2015 में एनएलएफटी के साथ शांति वार्ता शुरू हुई और 2016 से इसके द्वारा किसी प्रकार की हिंसा की घटना नहीं हुई है।

असम समस्या का पटाक्षेप : असम में शांति और सद्भाव हेतु त्रिपक्षीय समझौते के बाद करीब पांच दशकों से चल रहे अलग बोडोलैंड राज्य विवाद का भी शांतिपूर्ण हल हो गया है। बोडो समुदाय बहुल क्षेत्रों में विकास के लिए तीन वर्षों में 1,500 करोड़ रुपये दिए जाएंगे। बोडो ब्रह्मपुत्र नदी घाटी के दुर्गम क्षेत्रों में रहने वाला सबसे बड़ा जन समुदाय है। यही क्षेत्र बांग्लादेश के घुसपैठियों की सबसे बड़ी शरणस्थली था। यहां घुसपैठ का सिलसिला 1950 से जारी था। ये बांग्लादेशी घुसपैठिये इनकी खेती की जमीन व जंगल आदि संसाधनों पर कब्जा करते गए। इससे भारतीय मूल के लोग संकटग्रस्त होते गए। इसने भयंकर असंतोष, आक्रोश व हिंसा का रूप लेकर अलग बोडोलैंड राज्य की मांग को हवा दी थी। यूनाइटेड बोडो पीपुल्स ऑर्गेनाइजेशन ने 1972 में बोडोलैंड राज्य की मांग को लेकर आंदोलन का नेतृत्व किया। बड़े पैमाने पर हुई हिंसा में लगभग चार हजार निर्दोष नागरिकों और 239 सुरक्षाकर्मियों की जान चली गई।

पहला बोडो समझौता 1993 में तथा दूसरा समझौता 2003 में : तत्कालीन सरकारें वोट की राजनीति के चलते घुसपैठियों को वैध नागरिकता देने के उपाय करती रहीं। परिणामस्वरूप, देश में घुसपैठियों की संख्या चार करोड़ से भी ज्यादा हो गई। 1985 में यह समस्या बहुत भयावह हो गई तो इसके विरोध में छात्रों ने आंदोलन का नेतृत्व किया और एक राजनीतिक दल ‘असम गण परिषद’ का गठन किया। राज्य में शांति स्थापित करने और घुसपैठियों को खदेड़ने के लिए पहला बोडो समझौता 1993 में तथा दूसरा समझौता 2003 में हुआ। इनके अंतर्गत बोडोलैंड स्वायत्त परिषद का गठन, असम के चार जिलों (कोकराझार, चिरांग, बस्का, और उदलगुड़ी) को बोडोलैंड क्षेत्रीय जिले का दर्जा दिया गया। साथ ही, बोडोलैंड टेरिटोरियल परिषद बनाई गई। परंतु अब जो तीसरा समझौता वर्तमान सरकार ने किया है, वह अत्यंत व्यापक व सफल है, क्योंकि यह सभी प्रमुख उग्र आंदोलनकारी संगठनों के साथ मिलकर किया गया है। इन सभी संगठनों ने परस्पर सहमति से अलग बोडोलैंड राज्य की मांग छोड़ दी है और करीब 1,500 सशस्त्र कैडर हिंसा छोड़ मुख्यधारा में शामिल होने के लिए सहमत हो गए हैं।

ब्रू शरणार्थियों की समस्या: बोडो समझौते के अलावा पूर्वोत्तर भारत के समुचित विकास एवं शांति हेतु वर्तमान सरकार की अन्य ऐतिहासिक पहल है ब्रूरिआंग समुदाय का पुनर्वास। 16 जनवरी 2020 को नई दिल्ली में भारत सरकार, त्रिपुरा और मिजोरम सरकार तथा ब्रूरिआंग प्रतिनिधियों के बीच एक समझौता हुआ है। इस समझौते के अनुसार लगभग 34 हजार ब्रू शरणार्थियों को त्रिपुरा में ही बसाया जाएगा। उन्हें सीधे सरकारी तंत्र से जोड़कर राशन, यातायात, शिक्षा आदि की सुविधा प्रदान करते हुए उनके पुनर्वास में सहायता की जाएगी। यह समझौता बहुत विशिष्ट है और यह सहकारी संघवाद की भावना तथा भारतीय संस्कृति की निहित संवेदनशीलता और उदारता का परिचायक है।

ब्रूरिआंग हिंदू जन-समुदाय है जो अपने ही देश में 23 वर्षों से शरणार्थी के रूप में जीवनयापन कर रहा था। शरणार्थी के जीवन का अर्थ यह था कि उन्हें सभी बुनियादी सुविधाओं से वंचित रहना पड़ा था। इस दौरान उनके पास न घर था, न जमीन, न चिकित्सा और न ही कोई शैक्षिक सुविधा प्राप्त थी। ये अपने ही देश के लोग हैं जिनको ईसाई धर्म स्वीकार न करने के कारण अपने पैतृक राज्य मिजोरम को छोड़कर त्रिपुरा में शरण लेनी पड़ी थी। ब्रू समुदाय की कहानी कश्मीरी पंडितों की तरह दर्दनाक है। उन्हें अपनी आस्थाओं, मान्यताओं और धर्म के साथ समझौता न करने के कारण डर, हिंसा, अमानवीयता, मौत सहते हुए पलायन करना पड़ा था।

वर्ष 1997 में मिजोरम से त्रिपुरा में विस्थापित होने के बाद से ही भारत सरकार ब्रू-रिआंग परिवारों के स्थायी पुनर्वास के लिए प्रयास करती रही थी, लेकिन समस्या का कोई हल नहीं निकला। मिजो की धार्मिक, नैतिक तथा नस्लीय असहिष्णुता को देखते हुए अधिकांश ब्रू-रिआंग परिवारों की यह मांग थी कि ब्रू समुदाय की सुरक्षा चिंताओं को देखते हुए त्रिपुरा में ही उनके पुनर्वास की व्यवस्था की जाए। वर्ष 2020 की शुरुआत में ही केंद्र सरकार के ब्रू-रिआंग समझौते ने दो दशकों पुराने शरणार्थी संकट को समाप्त कर दिया है, जिसके परिणामस्वरूप मिजोरम के 34,000 से अधिक शरणार्थियों को मदद और राहत मिली है।

समाधान की राह पर नगालैंड समस्या : नगालैंड की दशकों लंबी समस्या का स्थायी पटाक्षेप भी होने वाला है। 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा समझौते के प्रारूप पर हस्ताक्षर करने के बाद इस शांति प्रक्रिया में तेजी आई है। यह राज्य देश की आजादी के बाद से ही उग्रवादी आंदोलनों के लिए कुख्यात रहा है। राज्य के उग्र नगा गुटों ने खुद को कभी भारत का हिस्सा समझा ही नहीं। वर्ष 1947 में जब अंग्रेज भारत छोड़कर गए तो उस समय अंगामी जापू फिजो की अगुवाई में एक गुट नगा बहुल क्षेत्र को अलग ईसाई देश बनाना चाहता था। परंतु डॉ. इम्कोंग्लिबा के नेतृत्व में आयोजित नगा सम्मेलन में तय हुआ कि इस क्षेत्र को भारत का हिस्सा बनना चाहिए।

उनके लंबे संघर्ष के बाद 1963 में नगालैंड को राज्य का दर्जा मिला और यहां 1964 में पहली बार चुनाव कराए गए। लेकिन अलग राज्य बनने के बावजूद नगालैंड में उग्रवादी गतिविधियों पर अंकुश नहीं लगाया जा सका। नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) का आइसक मुइवा गुट ‘नगालिम’ यानी ग्रेटर

नगा राज्य की मांग करता है, जिसका मतलब है- मणिपुर, असम और अरुणाचल प्रदेश के नगा बहुल इलाकों का नगालैंड में विलय। करीब 18 साल तक केंद्र सरकार और नगा संगठनों के प्रतिनिधियों के बीच हुई बैठक के बाद चार साल पहले समझौते के एक प्रारूप पर हस्ताक्षर किए गए हैं। एनएससीएन (आइएम) समेत समझौते में शामिल सभी संगठनों ने आश्वस्त किया है कि शांति प्रक्रिया जिस तरीके से आगे बढ़ रही है, उससे नगा समस्या का समाधान संभव नजर आ रहा है। पूर्वोत्तर की सभी समस्याओं में गैर कानूनी घुसपैठियों ने आग में घी के समान काम किया है।

घुसपैठियों से त्रस्त पूर्वोत्तर भारत के लोगों की बहुत पुरानी और न्यायसंगत मांग रही है। असम में बांग्लादेश से आए घुसपैठियों पर मचे बवाल के बाद सुप्रीम कोर्ट ने ‘राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण’ के पहले रजिस्टर 1951 को अपडेट करने को कहा था। अत: देश के सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशन और निगरानी में की गई ‘राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर’ की निर्माण-प्रक्रिया के तहत असम में 30 जुलाई 2018 को इसका अंतिम ड्राफ्ट जारी कर दिया गया। पूर्वोत्तर के मूल नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने तथा गैर कानूनी तरीके से भारत में मौजूद घुसपैठियों को देश से बाहर निकालने के लिए इस ‘राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर’ को अपडेट करना आवश्यक था। यह रजिस्टर रोहिंग्या व मुस्लिम घुसपैठियों की समस्या से निजात दिलाकर पूर्वोत्तर में शांति और विकास का मार्ग प्रशस्त करेगा।

[प्रोफेसर, जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय]