राजीव सचान : पाकिस्तान से जम्मू-कश्मीर में आतंकियों की घुसपैठ कोई नई बात नहीं। यह भी नई बात नहीं कि अक्सर ऐसे आतंकी मारे जाते हैं या फिर पकड़े जाते हैं। एक ऐसा ही आतंकी तबरीक हुसैन 21 अगस्त को कश्मीर के नौशहरा के झंगड़ क्षेत्र में पकड़ा गया। वह अपने साथियों के साथ सीमा पर लगे तार काट रहा था। तभी भारतीय सैनिकों की उस पर नजर पड़ी। उन्होंने चेतावनी दी तो तबरीक संग घुसपैठ करने आए आतंकी भागने लगे। इस पर हमारे सैनिकों ने गोलियां चलाईं, जिससे तबरीक घायल हो गया और उसके बाकी साथी भाग गए। उसे कंधे और जांघ पर गोलियां लगी थीं और उसका काफी खून भी बह गया था। उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां हमारी सेना के जवानों ने उसे तीन बोतल खून दिया। उसका ब्लड ग्रुप ओ निगेटिव था, जो कि दुर्लभ माना जाता है। उसकी सर्जरी हुई और अब वह खतरे से बाहर है।

तबरीक हुसैन ने बताया कि उसे कश्मीर में आत्मघाती हमले के लिए भेजा गया था और इसके लिए पाकिस्तानी सेना की खुफिया एजेंसी आइएसआइ के एक कर्नल यूसुफ ने 30 हजार रुपये दिए थे। अस्पताल से बाहर आने पर तबरीक हुसैन के साथ क्या किया जाएगा, पता नहीं। उसे कितने साल की जेल होगी, यह भी पता नहीं। जो पता है, वह यह कि तबरीक हुसैन ने अपने भाई हारुन अली के साथ अप्रैल 2016 में भी घुसपैठ की थी। तब भी वह पकड़ा गया था, लेकिन नवंबर 2017 में उसे मानवीय आधार पर रिहा करके पाकिस्तान को सौंप दिया गया था।

कोई नहीं जानता कि इस बार ऐसा होगा या नहीं, लेकिन उसके बारे में भारतीय सेना के ब्रिगेडियर राजीव नैयर का यह कहना कई सवाल खड़े करता है कि वह हमारे लिए एक आम घायल व्यक्ति की तरह है और यही मानकर उसका उपचार कराया जा रहा है। आखिर आत्मघाती हमले के लिए भारत में घुसा आतंकी आम आदमी की तरह कैसे हो सकता है? क्या घायल होने के कारण वह आतंकी नहीं रह गया? क्या हम इसकी अनदेखी कर दें कि यदि वह घुसपैठ करने में सफल रहता तो हमारे सुरक्षा बलों के किसी ठिकाने या फिर उनके काफिले पर हमला करता? ऐसे किसी हमले में क्या होता, इसकी कल्पना करना कठिन नहीं।

किसी के लिए भी समझना कठिन है कि आत्मघाती हमले के लिए भारत में घुसे आतंकी तबरीक हुसैन को 2017 में किस मानवीय आधार पर रिहा कर पाकिस्तान को सौंप दिया गया था? क्या आतंकियों के भी मानवाधिकार होते हैं या फिर यह मान लिया गया है कि उन पर रहम दिखाकर उनका हृदय परिवर्तन किया जा सकता है? यदि ऐसा कुछ सोचा जा रहा है तो यह आत्मघाती उदारता के अलावा और कुछ नहीं। वास्तव में यह मामला उसी सदियों पुरानी मानसिकता की याद दिलाता है, जिसके तहत हमारे अस्तित्व को मिटाने पर आमादा खूंखार-बर्बर आक्रांताओं के प्रति भी उदारता बरती जाती थी और उन्हें जड़-मूल से नष्ट करने के स्थान पर प्राय: उन्हें क्षमा कर दिया जाता था। इतिहास बताता है कि ऐसा करने के कितने घातक नतीजे हुए।

जैसे आतंकियों के प्रति नरमी बरतना आफत को निमंत्रित करने के अलावा और कुछ नहीं, वैसे ही आतंक पैदा करने वाली गतिविधियों की अनदेखी करना भी। दुर्भाग्य से ऐसा लगता है कि हमें आतंक की अनदेखी करने और आतंक पैदा करने वाली हरकतों को सहने की आदत पड़ गई है। इसका पता इससे चलता है कि नुपुर शर्मा प्रकरण को लेकर देश भर में सार्वजनिक रूप से “गुस्ताखे नबी की एक ही सजा- सिर तन से जुदा” के नारे लगते रहे, लेकिन हमारी सरकारें ऐसे व्यवहार करती रहीं जैसे आक्रोशित लोग अभिव्यक्ति की आजादी के तहत लोकतांत्रिक तरीके से अपनी भावनाएं व्यक्त कर रहे हों। ऐसा पिलपिला, शर्मनाक और आत्मघाती व्यवहार तब किया गया, जब सिर तन से जुदा के दहशत पैदा करते नारे पर अमल भी किया जाता रहा। क्या किसी को इसमें संदेह है कि सिर तन से जुदा करने का नारा लगाने वालों ने ही कन्हैयालाल, उमेश कोल्हे को बर्बर तरीके से मारा और उन अन्य अनेक लोगों पर प्राणघातक हमले किए जो नुपुर शर्मा के पक्ष में बोल रहे थे या फिर उनसे हमदर्दी जता रहे थे?

जैसा अभी कन्हैयालाल और उमेश कोल्हे के साथ हुआ, वैसा ही कमलेश तिवारी के साथ हो चुका है। कमलेश तिवारी को सुरक्षा मिली हुई थी, लेकिन सिर तन से जुदा करने की सनक से लैस उन्मादी तत्वों ने उन्हें मारकर ही चैन लिया। जैसे नुपुर शर्मा की जान को खतरा है, वैसे ही तेलंगाना के विधायक राजा सिंह को भी। नुपुर शर्मा के खिलाफ हजारों लोगों ने सिर तन से जुदा के नारे लगाए, लेकिन किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई। राजा सिंह के खिलाफ भी हजारों लोगों ने सिर तन से जुदा के नारे लगाए, लेकिन एक व्यक्ति की गिरफ्तारी के अतिरिक्त अन्य किसी का कुछ नहीं हुआ।

ऐसे खौफनाक नारे लगाने वालों को सहन करना अराजक-उन्मादी और आतंकी तत्वों के दुस्साहस को बढ़ावा देना है। दुर्भाग्य यह है कि सरकारें ऐसे तत्वों की अनदेखी करने में लगी हुई हैं। उनके रुख-रवैये से केवल यही नहीं लगता कि वे ऐसे तत्वों का दृढ़ता से सामना करने के लिए तैयार नहीं, बल्कि यह भी प्रतीति होती है कि वे उनसे सहमी हुई हैं। क्या यह विचित्र नहीं कि भारतीय मूल के जाने-माने लेखक सलमान रुश्दी पर प्राणघातक हमले को लेकर भारत सरकार ने करीब 15 दिन तक मौन रहने के बाद कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करना उचित समझा? सरकार इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकती कि उसने लगभग 15 दिनों तक जो चुप्पी साधे रखी, उससे किन तत्वों को बल मिला होगा।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)