नई दिल्ली, ब्रह्मा चेलानी। श्रीलंका एशिया के पुराने लोकतांत्रिक देशों में से एक है, लेकिन पिछले कुछ दिनों की राजनीतिक उठापटक से वहां लोकतंत्र के भविष्य पर सवालिया निशान लगे हैं। श्रीलंका की भौगोलिक स्थिति उसे सामरिक रूप से महत्वपूर्ण बनाती है। यह दुनिया के सबसे व्यस्त सामुद्रिक मार्गो के करीब है। ऐसे में वहां मची उथलपुथल पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का चिंतित होना स्वाभाविक है। श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेन के हालिया असंवैधानिक कदमों से उनके पूर्ववर्ती महिंदा राजपक्षे के तेवर मुखर हो रहे हैं जिन्होंने अधिनायकवाद में महारत हासिल कर ली थी। श्रीलंका की भौगोलिक स्थिति ने भी उसे सामुद्रिक वर्चस्व के लिए चीन और उसके मुकाबले भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे लोकतांत्रिक देशों के बीच अखाड़ा बना दिया है। अपने दस वर्षीय शासनकाल में राजपक्षे ने बहुत सख्ती से शासन किया और अल्पसंख्यक तमिल विद्रोहियों का निर्ममता से सफाया कर श्रीलंका को 26 वर्षो से जारी गृह युद्ध से मुक्ति दिलाई।

2015 में एक अप्रत्याशित राजनीतिक उलटफेर में राजपक्षे को सिरिसेन के हाथों सत्ता गंवानी पड़ी जो एक वक्त उनकी सरकार में ही कैबिनेट मंत्री थे। सिरिसेन चुनाव से ऐन पहले पाला बदलते हुए राष्ट्रपति पद के लिए संयुक्त विपक्ष के साझा उम्मीदवार बन गए। वह राष्ट्रपति बन गए तो रानिल विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री की कुर्सी मिली। दोनों नेता इसी वादे के साथ सत्ता में आए कि वे श्रीलंका में जवाबदेही के संकट को सुलझाने के साथ ही लोकतांत्रिक शासन सुनिश्चित करेंगे और देश को चीन के कर्जजाल में फंसने से बचाएंगे। चीन के साथ राजपक्षे के संबंध बहुत आत्मीय थे। चीन जहां युद्ध अपराधों के आरोप ङोल रहे राजपक्षे की संयुक्त राष्ट्र में ढाल बना तो बदले में राजपक्षे ने कई अहम परियोजनाएं चीन की झोली में डाल दीं। बदले में चीन ने श्रीलंका को कर्ज देने में पूरी दरियादिली दिखाई।

सिरिसेन और विक्रमसिंघे के संबंध कभी भी सहज नहीं रहे। उनके बीच की तल्खी इस साल तब आम हो गई थी जब राष्ट्रपति के रूप में दूसरा कार्यकाल न लेने के अपने वादे से मुकरते हुए सिरिसेन विक्रमसिंघे का पत्ता काटते हुए नजर आए जो अगला राष्ट्रपति बनने की हसरत रखते हैं। इस साल अप्रैल में भी सिरिसेन ने प्रधानमंत्री को सत्ता से बेदखल करने की एक असफल चाल चली थी। तब संसद में प्रधानमंत्री के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव खारिज हो गया था। इसके बाद राजपक्षे से हाथ मिलाकर उन्होंने विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त करते हुए रातोंरात राजपक्षे को नया प्रधानमंत्री बना दिया, जबकि श्रीलंकाई संविधान में 2015 में हुए एक संशोधन में राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री को आनन-फानन बर्खास्त करने की शक्ति समाप्त कर दी गई थी।

मौजूदा मसले पर देश-विदेश में हो रहे हंगामे को देखते हुए सिरिसेन ने संसद ही भंग कर दी। इससे अपनी बर्खास्तगी का विरोध कर रहे विक्रमसिंघे को संसद में बहुमत साबित करने का मौका नहीं मिला। इस बीच अमेरिका, भारत और यूरोपीय संघ ने संसद में मत-परीक्षण के लिए कुछ दबाव बनाया तो चीन नए प्रधानमंत्री को मान्यता देने के लिए बेकरार दिखा। कहा जा रहा है राजपक्षे के लिए बहुमत जुटाने का बंदोबस्त खुद सिरिसेन कर रहे थे जिसमें सांसदों को लुभाने के लिए तमाम प्रलोभन दिए गए। इससे भी जब बात नहीं बनी तो सिरिसेन ने 9 नवंबर को संसद ही भंग कर दी। इसके साथ ही उन्होंने तय समय से 20 महीने पहले 5 जनवरी को ही संसदीय चुनाव कराने का एलान भी कर दिया। इसमें भी नियमों की अनदेखी हुई, क्योंकि श्रीलंका में संसद तभी भंग की जा सकती है जब उसके कार्यकाल में छह महीने का समय ही शेष रह गया हो या फिर दो-तिहाई सांसदों से इसे मंजूरी मिली हो। सिरिसेन के इन कदमों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। कोर्ट ने उनके फैसले को पलट दिया।

वास्तव में सत्ता को लेकर सिरिसेन का मोह राजपक्षे की परिवार केंद्रित खराब विरासत की ही याद दिलाता है। राजपक्षे ने राष्ट्रपति की शक्तियों में अथाह विस्तार करते हुए नागरिक स्वतंत्रता को कुचला था और देश पर चीन का प्रभाव बढ़ने दिया था। मौजूदा संकट में तमाम बातों के साथ ही जवाबदेही, नस्लीय मेल-मिलाप, मानवाधिकारों, न्याय और आर्थिक स्थिरता जैसे पहलुओं का ध्यान रखा जाना चाहिए। 2009 में तमिल विद्रोहियों के दमन के बाद से ही अपनाई गई नीतियों में प्रभावित लोगों को मुख्यधारा में लाने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं हुए हैं। इसके कारण वहां नस्लीय और धार्मिक संघर्ष के नए ज्वालामुखी फटने का खतरा बढ़ गया है। इस साल मार्च में मुस्लिम विरोधी हिंसा भड़कने के कारण सरकार को देशव्यापी आपातकाल लगाना पड़ा था। श्रीलंका को गृहयुद्ध समाप्ति की भी भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। सैन्य संघर्ष के आखिरी पड़ाव में 40,000 से अधिक लोग मारे गए। इसके बावजूद बहुसंख्यक सिंहली समुदाय में राजपक्षे एक नायक के तौर पर उभरे। सिंहली मुख्यत: बौद्ध हैं। राजपक्षे ने विविधता भरे श्रीलंका को एक पहचान वाले देश में तब्दील करने की कोशिश की। देश की एक चौथाई आबादी हिंदू, तमिलों और मुसलमानों की है।

आज भी हजारों तमिल अपने गुमशुदा लोगों की सूचना के लिए भटक रहे हैं तो तमाम अपनी उन जमीनों को छुड़ाने की गुहार लगा रहे हैं जिन्हें सेना कब्जाए बैठी है। तमिल नेता भी जेल में बंद तमिलों को छुड़ाने की मुहिम में जुटे हैं। इनमें से कुछ तो 1997 से जेल में कैद हैं। उन पर तमिल चीतों से संबंध रखने का संदेह है।

इस बीच श्रीलंका की चीन को लेकर दुविधा और बढ़ी है। कर्ज चुकाने में नाकाम होने के बाद श्रीलंका अपना सामरिक रूप से महत्वपूर्ण बंदरगाह हंबनटोटा चीन को 99 साल के पट्टे पर देने के लिए मजबूर हुआ। अपनी मजबूत पकड़ से चीन ने अन्य परियोजनाएं भी झटक लीं। अमेरिका के उप-राष्ट्रपति माइक पेंस ने पिछले महीने कहा भी कि श्रीलंका बीजिंग की कर्ज में फंसाने वाली चाल का शिकार बना है और हंबनटोटा जल्द ही चीन के नौसैनिक दबदबे की अग्रिम कड़ी बन जाएगा। आज श्रीलंका के सामने दो विकल्प हैं-या तो वह राजनीतिक स्थिरता से अपनी नियति स्वंय तय करे या आंतरिक अव्यवस्था का शिकार होकर सत्ता संघर्ष में उलझकर रह जाए। विक्रमसिंघे और राजपक्षे के बीच प्रधानमंत्री पद की पहेली को उलझाकर राष्ट्रीय संकट पैदा करने वाले सिरिसेन ने राष्ट्रपति के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल के लिए रास्ता साफ कर लिया है। मौजूदा संकट की परिणति चाहे जो हो, लेकिन इतना तय है कि इससे वहां लोकतांत्रिक संस्थानों को होने वाले नुकसान की भरपाई आसान नहीं होगी।

कैसी विडंबना है कि जो शख्स सत्ता के दुरुपयोग रोकने के वादे के साथ सत्ता में आया वही ऐसा करने पर आमादा हो गया। इससे भी बड़ी बात यह कि जिस राष्ट्रपति के दौर में लोकतंत्र पर आघात हुआ उसी के साथ सिरिसेन ने सियासी सौदेबाजी कर हाथ मिला लिया। श्रीलंका इसकी मिसाल है कि केवल स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव ही लोकतंत्र को सशक्त बनाने या शासकों के संवैधानिक नियमों से बंधे रहने की गारंटी नहीं दे सकते। अगर कानून का राज सख्ती से लागू न हो तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया पलट भी सकती है।

(लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)