[ लेखक, मेनका संजय गांधी, केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री ]

गर्भावस्था एक महिला के लिए विशेष समय होता है जिसमें वह खुशी, उम्मीद और उत्सुकता महसूस करती है। महिला के शारीरिक रूप से स्वस्थ और भावनात्मक रूप से मजबूत होने का सीधा असर शिशु के शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक विकास पर पड़ता है। मन:स्थिति में उतार-चढ़ाव, थकान, टांगों में दर्द के साथ मरोड़, और सांस की बीमारियां गर्भावस्था का हिस्सा हैं, लेकिन गर्भवती महिलाएं आसानी से इन समस्याओं का सामना कर सकती हैं। गर्भावस्था के दौरान योग, जिसे प्रसव-पूर्व योग कहा जाता है, करने से गर्भवती महिला का चित्त शांत रहता है।

गर्भावस्था के दौरान दो तरह के प्राणायाम अथवा श्वसन व्यायाम निर्धारित हैं : उज्जयी अर्थात लंबी, तेजस्वी और गहरी सांस लेना, जिससे गर्भवती महिला को मौजूदा स्थिति पर अपना ध्यान केंद्रित करने और चित्त को शांत रखने में मदद मिलती है तथा नाड़ी शोधन (बारी-बारी से अलग-अलग नासिका से सांस लेना), जिससे एक अध्ययन के अनुसार शरीर की ऊर्जा के प्रवाह को संतुलित रखने में मदद मिलती है, लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि किसी भी तरह से सांस को रोक कर न रखा जाए और न ही अति वायु संचालन किया जाए। इससे शिशु की ऑक्सीजन की आपूर्ति बाधित हो सकती है।

प्राणायाम को तीनों तिमाहियों में दिनचर्या में शामिल किया जाना चाहिए, क्योंकि इससे क्रोध और तनाव जैसे नकारात्मक मनोविकारों से मुक्ति मिलती है। गर्भावस्था की तीन तिमाहियों के दौरान शारीरिक मुद्रा और व्यायाम अलग-अलग चरणों में अलग-अलग होते हैं।

प्रथम तिमाही (0-13 सप्ताह)

योग के विशेषज्ञ प्राय: यह सलाह देते हैं कि इस तिमाही में योग करते समय अत्यधिक सावधान रहने की जरूरत होती है, क्योंकि गलत मुद्रा से भ्रूण और प्लेसिंटा के आरोपण में रुकावट आ सकती है। पहली तिमाही में निम्नलिखित आसन आदर्श आसन हैं। मरजारी आसन (बिल्ली तानन) गर्दन और कंधों को तानता है, शरीर की कठोरता कम करता है और स्पाइन को लोचपूर्ण रखता है, क्योंकि गर्भावस्था की अवधि बढऩे के साथ पीठ को अधिक शारीरिक वजन उठाना पड़ता है। कोण आसन (भुजाएं बगल में खड़ा करना) स्पाइन को लचीला रखता है और कब्ज दूर करता है जो गर्भावस्था का एक आम लक्षण है।

वीरभद्र आसन (योद्धा मुद्रा) शरीर का संतुलन सुधारता है, बांहों, टांगों एवं पीठ के निचले हिस्से को मजबूती प्रदान करता है और स्टेमिना बढ़ाता है। बद्धकोण आसन (तितली मुद्रा) नितंब और पेडू क्षेत्र में लोच बढ़ाता है, जांघों और घुटनों को तानता है, दर्द में राहत प्रदान करता है, थकान दूर करता है और गर्भावस्था के आखिरी दिनों तक अभ्यास करने पर आसानी से प्रसव होने में मदद करता है। योग से तनाव एवं चिंता कम होती है, रक्तचाप नियंत्रित होती है और शरीर की हर कोशिका शिथिल होती है।

दूसरी तिमाही (14 से 28 सप्ताह)

दूसरी तिमाही के दौरान गर्भस्थ शिशु की मदद के लिए शरीर में रक्त की मात्रा 50-60 प्रतिशत बढ़ जाती है, रक्त संचार तेज हो जाता है, चयापचय की दर बढ़ जाती है और धड़कन तेज चलती है, सांसें तेज चलती हैं। शरीर का शुगर तेजी से खत्म होता है और इस चरण में गर्भस्थ शिशु एवं प्लेसेंटा की सहायता के लिए शरीर में जमा भंडार का प्रयोग होता है। महिलाओं को अक्सर मिचली एवं हल्का सिरदर्द महसूस होता है तथा खाने की इच्छा बढ़ जाती है। इस चरण पर प्रसव पूर्व योग की अधिकतम सलाह दी जाती है, क्योंकि इससे गर्दन में ब्लड शुगर का स्तर बना रहता है।

दूसरी तिमाही के दौरान निम्नलिखित आसान लाभप्रद हैं। वज्र आसन (हीरा मुद्रा) पाचन बढ़ाता है और खाना खाने के तुरंत बाद किया जा सकता है। इससे पेडू की मांसपेशियां भी मजबूत होती हैं और प्रसव में महिलाओं को सहूलियत होती है। मत्स्य कृदासन (फडफ़ड़ाती मीन मुद्रा) से कब्ज दूर होता है और पाचन भी बढ़ता है। टांगों की नसें शिथिल होती हैं जिससे गर्भावस्था के आखिरी दिनों के दौरान काफी राहत मिलती है।

कटि चक्र आसन (मेरुदंड मरोड़ मुद्रा) से शारीरिक और मानसिक तनाव दूर होता है तथा कमर, नितंब एवं पीठ मजबूत होती हैं। मरजारी आसन (बिल्ली मुद्रा) महिलाओं के प्रजनन तंत्र को मजबूती प्रदान करने में बहुत उपयोगी है। इससे शरीर में लचीलापन आता है। ताड़ आसन (पर्वत मुद्रा) से पूरा मेरुदंड फैलता और ढीला होता है तथा मानसिक एवं शारीरिक संतुलन स्थापित करने में भी मदद मिलती है। उठान आसन गर्भाशय, जांघों, पीठ एवं एडिय़ों की मांसपेशियों को मजबूती प्रदान करता है। मेरु आकर्षण आसन उदर एवं टांगों की मांसपेशियों को तानता है तथा उनको लचीला एवं मजबूत बनाता है।

तीसरी तिमाही (29 से 40 सप्ताह)

तीसरी तिमाही तक शरीर में भौतिक एवं जैविक परिवर्तन बहुत अधिक हो चुके होते हैं तथा अब शिशु की हलचल भी अधिक होती है। पेट के उभरने तथा वजन बढ़ जाने से संतुलन स्थापित करने में दिक्कत हो सकती है। संतुलन स्थापित करने की सरल मुद्राओं से महिलाएं हल्का-फुल्का एवं अधिक संतुलित महसूस कर सकती हैं, परंतु यदि ढुलमुल महसूस करें तो दीवार का सहारा जरूर लें।

विशेषज्ञों की सलाह 6 माह के बाद लंबे समय तक पीठ के बल लेटने के विपरीत है ताकि वेना कावा (एक बड़ी नस जो स्पाइन के बगल से गुजरती है और गर्भाशय के पीछे मुड़ती है) पर अधिक दबाव न बने। इस चरण में किसी शिक्षक के मार्गदर्शन में योग करना उपयुक्त होता है, क्योंकि यह स्टेमिना बढ़ाने का सही समय है। तथापि यदि कोई मुद्रा करने में शरीर को अच्छा न महसूस हो तो उसे न करें।

संतुलन स्थापित करने की बुनियादी मुद्राएं जैसे कि उत्थित त्रिकोण आसन, उत्थित पार्श्वकोण आसन, वीरभद्र आसन और वक्र आसन टांगों में मजबूती लाने, स्पाइन को ठीक से सीधा रखने तथा रक्त संचार ठीक करने के लिए आदर्श आसन हैं, परंतु ध्यान रखें कि ये आसन किसी दीवार के सहारे या कुर्सी के सहारे करें। नितंब को खोलने वाला उपाविष्ट कोण आसन भी इस तिमाही में एक महत्वपूर्ण आसन है, क्योंकि इससे पीठ के निचले भाग में दर्द से राहत मिलती है तथा पेडू के चारों ओर जगह बनती है।