रवि शंकर। पूर्वोत्तर राज्यों के हालिया चुनाव में भाजपा की सफलता ने विपक्षियों को ऐसा झटका दिया कि उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा को हाथ मिलाने की जरूरत महसूस हो गई। हालांकि अभी दोनों दलों में औपचारिक गठजोड़ नहीं हुआ है, लेकिन राज्य में लोकसभा की दो सीटों पर उपचुनाव के लिए जरूर फौरी गठबंधन हुआ है। राज्य की गोरखपुर और फूलपुर सीटों पर बसपा-सपा उम्मीदवारों का समर्थन करेगी। मायावती की यह घोषणा चौंकाने वाली है, जिससे शायद प्रदेश में कोई नई इबारत लिखी जाने वाली है?

पिघल रही रिश्तों पर 22 साल से जमी बर्फ

मायावती और अखिलेश यादव का एक साथ आना किसी चमत्कार से कम नहीं है। भले ही चमत्कार कम ही दिनों का क्यों न हो, लेकिन इसकी वजह भी होगी। बहरहाल, उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा के रिश्तों में 22 साल से जमी बर्फ पिघलती हुई दिख रही है। राज्यसभा, विधान परिषद और दो लोकसभा सीटों के उपचुनाव में दोनों पार्टियां एक-दूसरे की मदद करेंगी। अगर यह प्रयोग सफल रहा तो शायद 2019 के लोकसभा चुनावों में इस गठबंधन को व्यापक तौर पर मूर्त रूप दिया जाए।

तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट भी तेज

अगर 2019 में भी सपा, बीएसपी साथ रहे तो इसमें कांग्रेस को मिलाकर एक राजनीतिक त्रिकोण बनेगा या नहीं, यह भी साफ नहीं है, पर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने गैर बीजेपी, गैर कांग्रेस दलों का मोर्चा बनाने की बात कही है। यानी एक तरफ विपक्ष में एकता की सुगबुगाहट साफ दिख रही है तो दूसरी तरफ इसमें विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को लेकर कुछ भी साफ नहीं है। मायावती का यह सहयोग तथाकथित सेक्युलर खेमे को कितनी ताकत देगा, यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन फिलहाल सपा को समर्थन देकर उन्होंने कांग्रेस पर नैतिक दवाब बढ़ा दिया है।

कौन किसका नेता...

बड़ा सवाल यह भी है कि एक साथ आने के बाद मायावती और अखिलेश में कौन किसे लीडर मानेगा? साल 1993 में बीएसपी ने जब मुलायम को मुख्यमंत्री स्वीकार किया था तब हालात कुछ और थे। मायावती काफी जूनियर थीं और पार्टी अध्यक्ष कांशीराम कभी मुख्यमंत्री बने नहीं थे। फिर स्टेट गेस्ट हाउस कांड में दोनों पार्टियों में कड़वाहट नफरत की हद तक पहुंच गई। ऐसे में मायावती के लिए अखिलेश का नेतृत्व स्वीकार करना आसान नहीं दिखता। यही स्थिति अखिलेश के लिए भी है। बहरहाल दोनों दलों के मौजूदा नेता पुरानी दुश्मनी को भूलकर आज भाजपा के विजय रथ को रोकने के लिए एक साथ आने पर मजबूर हैं।

मायावती ने स्पष्ट कर दिया है कि राज्यसभा और उत्तर प्रदेश विधान परिषद के चुनाव में दोनों पार्टियां एक दूसरे की मदद से एक-एक उम्मीदवार को जिताएंगी। साफ है कि मायावती ने सपा के साथ फिलहाल गठबंधन से इन्कार किया है, लेकिन हमेशा के लिए नहीं। यानी उन्होंने अपने पत्ते खुले रखे हैं। इसमें बहुत कुछ गोरखपुर और फूलपुर के नतीजों पर निर्भर करेगा। गोरखपुर लोकसभा सीट मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के इस्तीफे से खाली हुई है, जबकि फूलपुर लोकसभा सीट उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफे के कारण।

सपा बसपा के साथ आने की मजबूरी

अपना अस्तित्व बचाने के लिए सपा और बसपा दोनों बीजेपी से लोहा लेने के लिए मजबूर हैं। खैर उपचुनाव के बहाने भाजपा के खिलाफ प्रदेश के गैर कांग्रेसी विपक्षी दल एक साथ आ गए हैं। एनसीपी, निषाद पार्टी, पीस पार्टी, पीएमएसपी समेत कई अन्य छोटे दल सपा का पहले ही समर्थन कर चुके हैं। जिससे सपा उत्साहित है। उनका पूरा जोर पिछड़ा, दलित व मुस्लिम समीकरण बनाने पर है। ऐसे में गोरखपुर व फूलपुर में भाजपा के खिलाफ गैर कांग्रेसी राजनीतिक दलों की लामबंदी हो गई है। इसमें वे सफल होंगे या नहीं, यह तो आने वाला वक्त बताएगा, लेकिन बसपा के रुख से चुनाव रोचक जरूर हो गया है। साथ ही, लंबे समय बाद किसी चुनाव में विपक्ष इस तरह एकजुट दिखा है।

(लेखक टीवी पत्रकार हैं)