[ बलबीर पुंज ]: प्राचीन सबरीमाला मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को एक ओर जहां महिलाओं की स्वतंत्रता और अधिकारों की जीत के रूप में पेश किया जा रहा है वहीं फैसले का विरोध करने वाले वर्ग विशेषकर श्रद्धालुओं को अपराधी माना जा रहा है। यहां तक कि विरोध-प्रदर्शन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा का एजेंडा बताया जा रहा है। आखिर सच क्या है? एक अंग्रेजी दैनिक को दिए साक्षात्कार में केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन ने स्पष्ट किया कि सबरीमाला मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों को लागू किया जाएगा और इसमें वह किसी भी विरोध को बर्दाश्त नहीं करेंगे। उनके अनुसार असामाजिक तत्वों और अपराधियों ने भगवान अयप्पा के स्थान को अपना अड्डा बना लिया है। केरल पुलिस अब तक एक हजार से अधिक प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लेकर लगभग 440 मामले दर्ज कर चुकी है। अब यहां अपराधी कौन है? क्या वे श्रद्धालु दोषी हैं जो अपनी धार्मिक परंपराओं और मान्यताओं को बदले जाने से आहत हैं और स्वामी अयप्पा के समर्थन में खड़े हैं या फिर महिलाओं का वह समूह है जिसने मंदिर में जबरन घुसने का प्रयास किया। उनके हावभाव से नहीं लगता कि उनमें कोई श्रद्धालु हो।

अयप्पा के भक्तों में महिलाओं की भी भारी संख्या है जिनका विश्वास है कि मंदिर में एक विशेष आयु की महिलाओं के प्रवेश से भगवान अयप्पा की तपस्या भी भंग होगी। क्या कोई भी स्वतंत्रता या संवैधानिक अधिकार-किसी व्यक्ति की आस्था की अनदेखी का विशेषाधिकार दे सकता है? सबरीमाला मंदिर के बाहर हुए प्रदर्शन की जड़ें 28 सितंबर को सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले से जुड़ी हैं जिसमें पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ ने 4-1 के बहुमत से सबरीमाला की परंपरा को असंवैधानिक बताकर 10 से 50 वर्षीय महिलाओं के मंदिर में प्रवेश की अनुमति दी थी। निर्विवाद रूप से किसी भी न्यायिक निर्णय के विरुद्ध हिंसक कृत्य भारत की बहुलतावादी, लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष छवि के विपरीत है। फिर भी क्या अदालत हर विषय में निर्णय देने में सक्षम है? क्या समस्त धार्मिक अनुष्ठानों और किसी की आस्था को मानवीय कानून समझ सकता है?

मान्यताओं के अनुसार स्वामी अयप्पा नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे, इसलिए यहां पुरुषों के अतिरिक्त बालिकाएं जो रजस्वला न हुई हों या वृद्ध महिलाएं जो रजस्वला से मुक्त हो चुकी हों वही इस मंदिर में प्रवेश कर सकती हैं। इसी पर शीर्ष अदालत ने कहा था, ‘मासिक धर्म की आड़ लेकर लगाया गया प्रतिबंध महिलाओं की गरिमा के विरुद्ध और अपमानजनक है। अनुच्छेद 25 के अनुसार, भारत में सभी समान हैं।’ लगता है न्यायालय इस तथ्य को समझने में विफल रहा कि यह प्रतिबंध सामाजिक नहीं और यह केवल सबरीमाला मंदिर तक सीमित है। देश में भगवान अयप्पा के अन्य मंदिर भी हैं जहां वह नैष्ठिक ब्रह्मचारी के रूप में स्थापित नहीं हैं, इसलिए वहां सभी महिलाओं का प्रवेश मान्य है।

सबरीमाला का मुद्दा किसी समानता और स्वतंत्रता के अधिकारों से नहीं, बल्कि पारंपरिक अनुष्ठान और विश्वास से जुड़ा है। धार्मिक मान्यता है कि सबरीमाला मंदिर में भगवान अयप्पा ब्रह्मचर्य की गंभीर तपस्या करते हैं और वह स्वयं को महिलाओं की उपस्थिति से दूर रखना चाहते हैं। अब यदि कोई श्रद्धालु किसी मंदिर में भगवान के दर्शन का अभिलाषी है, किंतु भगवान की इच्छा क्या है और वह किस रूप में भक्तों से मिलना चाहते हैं उसकी अवहेलना करता है तो क्या वह व्यक्ति सच्चा भक्त माना जाएगा? हिंदू दर्शन में भगवान के किसी भी रूप की प्रतिमा को ‘विग्र्रह’ माना जाता है। इसी कारण श्रद्धालु उन्हे जीवंत मानकर किसी सामान्य व्यक्ति की भांति भोग, शयन और स्नान आदि भी कराते हैं। वास्तव में सबरीमाला पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय र्ने ंहदुओं की मूल पूजा पद्धति को चुनौती दी है जिसमें उनके लिए प्रत्येक प्रतिमा ही साक्षात भगवान है जिनसे भक्त अपने हर संकट को हरने की अपेक्षा रखते है और अनादिकाल से उनकी पूजा करते आ रहे हैं।

स्वाभाविक रूप से यह विरोधियों की अगली दलील होगी कि अगर सबरीमाला मंदिर में भगवान अयप्पा 10-50 आयु वर्ग की महिलाओं को दर्शन नहीं देना चाहते तो इसके प्रमाण क्या हैैं? यही वर्ग इस बात को भी प्रमाणित करने की मांग करेगा कि अयप्पा वास्तव में सबरीमाला में उपस्थित हैैं भी या नहीं? ऐसे प्रश्नों की अंतहीन शृंखला है जिनका उत्तर खोजना अदालत सहित किसी के लिए भी संभव नहीं। निर्णय देने वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ में केवल जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने बहुमत पक्ष से असहमति जताई थी। उन्होंने कहा था, ‘देश में पंथनिरपेक्ष माहौल बनाए रखने के लिए गहराई तक जुड़े धार्मिक आस्था के मुद्दों से छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए। अनुच्छेद 25 के तहत समानता का अधिकार पूजा करने के मौलिक अधिकार की अवहेलना नहीं कर सकता। यह निर्णय सबरीमाला तक सीमित नहीं रहेगा। इसका अन्य धार्मिक स्थलों पर भी दूरगामी प्रभाव पड़ेगा।’

क्या अदालत भविष्य में यह पूछने का साहस कर सकती है कि इस्लाम में महिलाओं को मस्जिदों में मुफ्ती/मौलवी बनाने या फिर नमाज पढ़ाने की इजाजत क्यों नहीं है? इसी तरह कैथोलिक चर्च में महिला पादरियों की नियुक्ति क्यों नहीं होतीं? धार्मिक स्थलों की भांति सभी निजी और सरकारी संस्थानों के अपने कुछ नियम-कायदे होते हैं। गत 24 अक्टूबर को ही सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में सुनवाई के दौरान गोवा और अरुणाचल प्रदेश के मुख्य सचिवों का पक्ष सुनने से इसलिए इन्कार कर दिया, क्योंकि दोनों अदालती मर्यादा के अनुरूप कपड़े पहनकर नहीं आए थे। यह स्थिति तब है जब देश का एक वर्ग पसंदीदा कपड़े पहनने को अपना अधिकार बताता है। अदालत में किस व्यक्ति को कैसे कपड़े पहनने चाहिए, इसका निर्णय जब स्वयं न्यायाधीश ले सकते हैं तब नैष्ठिक ब्रह्मचारी भगवान अयप्पा किन भक्तों को दर्शन देना चाहते हैं, इसका विवेकाधिकार उनसे क्यों छीना जा रहा है?

हमें धार्मिक मान्यताओं और सामाजिक बुराइयों के बीच अंतर करना होगा। अस्पृश्यता, बहु-विवाह, दहेज प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या और तीन तलाक जैसी कुप्रथाएं किसी भी धर्म का हिस्सा नहीं हैं। समाज को इन कुरीतियों से मुक्त करने हेतु संसद और अदालतों के साथ लोगों को भी आगे आना होगा, किंतु जब समाज सुधार के नाम पर धार्मिक स्थलों की परंपराओं और मान्यताओं में कानूनी दखल होगा तो वह सनातन भारत की बहुलतावादी और पंथनिरपेक्ष छवि को चुनौती देने जैसा होगा।

मध्य नवंबर में सबरीमाला मंदिर पुन: तीन महीने के लिए खुलेगा और सर्वोच्च न्यायालय 13 नवंबर को सबरीमाला निर्णय के विरुद्ध दाखिल 19 पुनर्विचार याचिकाओं पर सुनवाई करेगा। क्या तब अदालत इन प्रश्नों और अयप्पा श्रद्धालुओं की भावनाओं का संज्ञान लेगी? वह निकट भविष्य में स्पष्ट हो जाएगा।

[ लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]